ईश्वर की भक्ति (भाग 1)

जिसको अपने पर विश्वास नहीं, वह ईश्वर पर विश्वास नहीं कर सकता। ऐसे आत्म-घातियों को अपने पाप का परिणाम भोगने के लिये ईश्वर छोड़ देता है और वह धैर्यपूर्वक तब तक उसी कुछ मदद न करने के लिए ठहरा रहता है, जब तक कि वह आत्म-घात करना न छोड़ दे। माता तब तक बच्चे को निर्दयतापूर्वक धूप में खड़ा रहने देती है जब तक कि वह फिर चोरी न करने की प्रतिज्ञा नहीं करता। भक्त का प्रथम लक्षण आत्म-विश्वास है। आत्म-विश्वास का अर्थ है परमात्मा में विश्वास करना। जो आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की झाँकी करता है, वही प्रभु के निकट तक पहुँच सकता है। ईश्वर नामक सर्वव्यापक सत्ता में प्रवेश करने का द्वार आत्मा में होकर है, वही इस खाई का पुल है।
अन्य उपायों से प्रभु को प्राप्त करने वालों का प्रयत्न ऐसा है जैसे पुल का तिरस्कार करके गहरी नदी का कोई और मार्ग तलाश करते फिरना। आचार्यों का अनुभव है कि—”दैवापि दुर्बल घातकः” क भी दुर्बलों का घातक है। अविश्वासी और आत्म-घाती निश्चय ही विपत्ति में पड़े रहते हैं और बिना पतवार के जहाज की तरह इधर-उधर टकराते हुए जीवन का उद्देश्य नष्ट करते रहते हैं। एक क्रूर कर्ता अपराधी की जेल की जैसे निष्पक्ष जज कुछ सुनवाई नहीं करता और सरसरी में खारिज कर देता है, वैसे ही आत्म तिरस्कार करने वालों को ईश्वर के यहाँ भी तिरस्कार प्राप्त होता है और उनकी प्रार्थना निष्फल चली जाती है।
ईश्वर से की गई प्रार्थना का तभी उत्तर मिलता है जब हम अपनी शक्तियों को काम में लावें। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और अज्ञान यह सब गुण यदि मिल जाएं तो मनुष्य की दशा वह हो जाती है जैसे कि किसी कागज के थैले के अन्दर तेजाब भर दिया जाए। ऐसा थैला अधिक समय तक न ठहर सकेगा और बहुत जल्द गल कर नष्ट हो जाएगा। ईश्वरीय नियम, बुद्धिमान माली के सदृश हैं, वह निकम्मे घास कूड़े को उखाड़ कर फेंक देता है और योग्य पौधों की भरपूर साज-सँभाल रखकर उन्हें उन्नत बनाता है। जिस खेत में निकम्मे खरपतवार उग पड़ें उसमें अन्न की फसल मारी जाएगी। भला ऐसे किसान की कौन प्रशंसा करेगा, जो अपने खेत की ऐसी दुर्दशा कराता है। निश्चय ही ईश्वरीय नियम निकम्मे पदार्थों की गन्दगी हटाते रहते हैं, ताकि सृष्टि का सौंदर्य नष्ट न होने पावे। यह कहावत बिलकुल सच है कि—ईश्वर उसकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करता है, अपने पैरों पर खड़ा होने वाले को पीठ थपथपाने वाले दूसरे लोग भी मिल जाते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 2
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