कहिए कम-करिये ज्यादा (भाग 1)

मानव स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी प्रदर्शन प्रियता है। बाहरी दिखावे को वह बहुत ज्यादा पसन्द करता है। यद्यपि वह जानता और मानता है कि मनुष्य की वास्तविक कीमत उसकी कर्मशीलता, कर्मठता है। ठोस और रचनात्मक कार्य ही स्थायी लाभ, प्रतिष्ठा का कारण होता है। दिखावा और वाक शूरता नहीं। यह जानते हुये भी उसे अपनाता नहीं। इसीलिये उसे एक कमजोरी के नाम से सम्बोधित करना पड़ता है।
प्रकृति ने मनुष्य को कई अंगोपाँग दिये हैं और उनसे उचित काम लेते रहने से ही मनुष्य एवं विश्व की स्थिति रह सकती है। पर मानव स्वभाव कुछ ऐसा बन गया है कि सब अंगों का उपयोग ठीक से न कर केवल वाक्शक्ति का ही अधिक उपयोग करता है। इससे बातें तो बहुत हो जाती हैं, पर तदनुसार कार्य कुछ भी नहीं हो पाता। हो भी कैसे वह करना भी नहीं चाहता और इसीलिये दिनों दिन वाक्शक्ति का प्रभाव क्षीण होता जाता है। कार्य करने वाले को बोलना प्रिय नहीं होता, उसे व्यर्थ की बातें बनाने को अवकाश ही कहाँ होता है? वह तो अपनी वाक्शक्ति का उपयोग आवश्यकता होने पर ही करता है। अधिक बोलने से वाक्शक्ति का महत्व घट जाता है। जिसकी जबान के पीछे धर्म शक्ति का बल होता है उसी का प्रभाव पड़ता है।
वस्तुतः कार्य करना एक साधना है। इससे साधित वाक्शक्ति मंत्रवत् बलशाली बन जाती है। साधक के प्रत्येक वाक्य में अनुभव एवं कर्म साधना की शक्ति का परिचय मिलता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में मौन का बड़ा महत्व है। जैन तीर्थंकर अपनी साधना अवस्था में प्रायः मौनावलम्बन करते हैं। इसी से उनकी वाणी में शक्ति निहित रहती है।
वर्तमान युग के महापुरुष महात्मा गाँधी के जबरदस्त प्रभाव का कारण उनका कर्मयोग ही है। वे जो कुछ कहते उसे करके बताते थे। इसी में सचाई का बल रहता है। इस सचाई और कर्मठता के कारण ही गाँधी जी के हजारों लाखों करोड़ों अनुयायी विश्व में फैले हुये हैं। गाँधी जी अपने एक क्षण को भी व्यर्थ न खोकर किसी न किसी कार्य में लगे रहते थे। और आवश्यकता होने पर कार्य की बातें भी कर लेते थे। इसी का प्रभाव है कि बड़े-बड़े विद्वान-बुद्धिमान एवं श्रीमान् उनके भक्त बन गये।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति-जून 1950 पृष्ठ 15
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