निराशा हर स्थिति से हटे
अनाचार अपनाने पर प्रत्यक्ष व्यवस्था में तो अवरोध खड़ा होता ही है, साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि नियतिक्रम के निरंतर उल्लंघन से प्रकृति का अदृश्य वातावरण भी इन दिनों कम दूषित नहीं हो रहा है। भूकम्प, तूफान, बाढ़, विद्रोह, अपराध, महामारियाँ आदि इस तेजी से बढ़ रहे हैं कि इन पर नियंत्रण पा सकना कैसे संभव होगा, यह समझ में नहीं आता। किंकत्र्तव्य विमूढ़ स्थिति में पहुँचा हुआ हतप्रभ व्यक्ति क्रमश: अधिक निराश ही होता है। विशेषतया तब जब प्रगति के नाम पर विभिन्न क्षेत्रों में किए गये प्रयास खोखले लगते हों, महत्त्वपूर्ण सुधार हो सकने की संभावना से विश्वास क्रमश: उठता जाता हो।
इतना साहस और पराक्रम तो विरलों में ही होता है, जो आँधी, तूफानों के बीच भी अपनी आशा का दीपक जलाए रह सकें। सृजन प्रयोजनों के लिए साथियों का न जुट पाते हुए भी सुधार संभावना के लिए एकाकी साहस संजोए रह सकें, उलटे को उलटकर सीधा कर देने की योजना बनाते और कार्य करते हुए अडिग बने रहे, गतिशीलता में कमी न आने दें, ऐसे व्यक्तियों को महामानव-देवदूत कहा जाता है, पर वे यदाकदा ही प्रकट होते हैं। उनकी संख्या भी इतनी कम रहती है कि व्यापक निराशा को हटाने में उन प्रतिभाओं का जितना योगदान मिल सकता था, उतना मिल नहीं पाता। आज जनसाधारण का मानस ऐसे ही दलदल में फँसा हुआ है। होना तो यह चाहिए था कि अनौचित्य के स्थान पर औचित्य को प्रतिष्ठिïत करने के लिए साहसिक पुरुषार्थ जगता, पर लोक मानस में घटियापन भर जाने से उस स्तर का उच्च स्तरीय उत्साह भी तो नहीं उभर रहा है। अवांछनीयता को उलट देने वाले ईसा, बुद्ध, गाँधी, लेनिन जैसे प्रतिभाएँ भी उभर नहीं रही हैं।
इन परिस्थितियों में साधारण जनमानस का निराश होना स्वाभाविक है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि निराशा हल्के दर्जे की बीमारी नहीं है, वह जहाँ भी जड़ जमाती है, वहाँ घुन की तरह मजबूत शहतीर को भी खोखला करती जाती है। निराशा अपने साथ हार जैसे मान्यता संजोएं रहती है, खीझ और थकान चिपक जाती हैं। इतने दबावों से दबा हुआ आदमी स्वयं तो टूटता ही है अपने साथियों को भी तोड़ता है। इससे शक्ति का अपहरण होता है, जीवनी शक्ति जबाव दे जाती है, तनाव बढ़ते जाने से उद्विग्नता बनी रहती है और ऐसे रचनात्मक उपाय दीख नहीं पड़ते, जिनका साथ लेकर तेज बहाव वाली नाव को खेकर पार लगाया जाता है। निराश व्यक्ति जीत की संभावना को नकारने के कारण जीती बाजी हारते हैं। निराशा न किसी गिरे को ऊँचा उठने देती है और न प्रगति की किसी योजना को क्रियान्वित होने देती है।
अस्तु, आवश्यकता है कि निराशा को छोटी बात न मानकर उसके निराकरण का हर क्षेत्र में प्रयत्न करते रहा जाए। इसी में सबकी सभी प्रकार की भलाई है। उत्साह और साहस जीवित बने रहें, तभी यह संभव है कि प्रगति प्रयोजनों को कार्यान्वित कर सकना संभव हो सके। उज्ज्वल भविष्य की संरचना को ध्यान में रखते हुए जहाँ भी निराशा का माहौल हो, उसके निराकरण का हर संभव उपाय करना चाहिए।
समय की रीति-नीति में अवांछनीयता जुड़ी होने की बात बहुत हद तक सही है, पर उसका उपचार यही है कि प्रतिरोध में समर्थ चिंतन और पुरुषार्थ के लिए जन जन की विचार शक्ति को उत्तेजित किया जाए। उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान देने और उन्हें समर्थ बनाने के लिए जिस मनोवृत्ति को उत्साह पूर्ण प्रश्रय मिलना चाहिए, उसके लिए आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार की जाए। इस संबंध में जन-जन को विश्वास दिलाने के लिए एक समर्थ और व्यापक प्रयास को समुचित विस्तार दिया जाए।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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