हे मनुष्य! तुम महान हो!
तुम्हारा वास्तविक स्वरूप- तुम्हारे हिस्से में स्वर्ग की अगणित विभूतियाँ आई हैं न कि नर्क की कुत्सित। तुमको वही लेना चाहिये, जो तुम्हारे हिस्से में आया है। स्वर्ग तुम्हारी ही सम्पत्ति है। शक्ति तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है। तुमको केवल स्वर्ग में प्रवेश करना है तथा शक्ति का अर्जन करना है। स्वर्ग में सुख ही सुख है। वहाँ आत्मा को न तो किसी बात की चिन्ता रहती है और न किसी प्रकार की इच्छा। तूफान मचाने वाले विकारों की आसुरी लीला या भय के भूतों का लेश भी वहाँ नहीं है। वह ‘स्वर्ग’ इस संसार में ही है। वह तुम्हारे भीतर है। उसे खोजने का प्रयत्न करो, अवश्य तुम्हें प्राप्त हो जायगा।
संसार में फैले हुए पाप, निकृष्टता, भय, शोक तुम्हारे हिस्से में नहीं आये हैं। मोह, शंका, क्षोभ की तरंगें तुम्हारे मानस-सरोवर में नहीं उठ सकतीं क्योंकि विक्षोभ उत्पन्न करने वाली आसुरी प्रवृत्तियों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। संशय तथा शंकाओं से दबकर तुम्हें इधर-उधर मारा नहीं फिरना है। क्षण-क्षण उद्विग्र तथा उत्तेजित नहीं होना है। शान्त तथा पवित्र आत्मा में क्लेश, भय, दु:ख शंका का स्पर्श कैसे हो सकता है? यदि तुम इन कुत्सित वस्तुओं को अपनाओगे तो अवश्य ही ये तुम्हारे गले पड़ेगें और तुम्हारे जीवन की, तुम्हारी महत्वाकांक्षा की इति श्री कर देंगे।
तुम्हारा मनुष्य होना ही इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी शक्ति अपरिमित है। संसार की ओर आँख उठाकर देखो! प्रकृति पर मनुष्य का आधिपत्य है, बड़े से बड़े पशु उसके इङ्गित पर नृत्य करते हैं। ऊँची से ऊँची वस्तु पर उसका पूर्ण आधिपत्य है। उससे शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
तुझमें शारीरिक शक्ति का भण्डार है, तेरे हाथ, पाँव, छाती, पट्ठों में शक्ति इसीलिए दी गई है कि कोई तुझे दबा न सके, तेरी बराबरी न कर सके। मनुष्य में असीम सामथ्र्य विद्यमान है, शक्ति का वृहत् पुञ्ज भरा पड़ा है। तुझे किसी के आगे हाथ पसार कर माँगने की आवश्यकता नहीं है। तू ईश्वर का महान पुत्र है। ईश्वर की शक्ति का ही तेरे अन्दर प्रकाश है। तू ईश्वर को ही अपने भीतर से कार्य करने दे। ईश्वर को स्वयं प्रकाशित होने दे। ईश्वर जैसा ही बन कर रह। ईश्वर होकर खा, पी, और ईश्वर होकर ही साँस ले, तभी तू अपनी महान् पैतृक सम्पत्ति का स्वामी बन सकेगा।
मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिए यह प्रयोग परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कत्र्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ, मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नर-पशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?
लोभ-मोह के साथ अहंकार जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उभरी अहमन्यता अनेकों प्रकार के कुचक्र रचतीं और पतन पराभव के गर्त गिरती हैं। अहंता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भंयकर हो जाता है। दुष्ट दुरात्मा एवं नर पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ-सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशाएँ हर किसी के लिए खुली हैं। जो इनमेें से जिसे चाहता है उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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