सदगुरु की आवश्यकता
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अनेक महत्त्वपूर्ण विधाएँ गुरु के माध्यम से प्राप्त की जाती हैं और तंत्र विद्या का प्रवेश द्वार तो अनुभवी मार्गदर्शक के द्वारा ही खुलता है। अक्षराम्भ यद्यपि हमारी दृष्टि में सामान्य सी बात है, पर छोटा बालक उस कार्य को अध्यापक के बिना अकेला ही पूर्ण करना चाहे, तो नहीं कर सकता, भले ही वह कितना ही मेधावी क्यों न हो। गणित, शिल्प, सर्जरी, साइन्स, यन्त्र निर्माण आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य अनुभवी अध्यापक ही सिखाते हैं। कोई छात्र शिक्षक की आवश्यकता न समझे और स्वयं ही यह सब सीखना चाहे, तो उसे कदाचित्ï ही सफलता मिले। रोगी को अपनी चिकित्सा कराने के लिए किसी अनुभवी चिकित्सक की शरण लेनी पड़ती है, यदि वह अपने आप ही इलाज करने लगे, तो उसमें भूल होने की सम्भावना रहेगी, क्योंकि अपने संबंध में निर्णय करना हर व्यक्ति के लिए कठिन होता है।
अपनी निज की त्रुटि, अपूर्णता, बुराई, स्थिति एवं प्रगति के बारे में कोई बिरला ही सही अनुमान लगा सकता है। जिस प्रकार अपना मुँह अपनी आँखों से नहीं देखा जा सकता, उसके लिए दर्पण की या किसी दूसरे से पूछने की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार अपने दोष-दुर्गुणों का, मनोभूमि का, आत्मिक स्तर का एवं प्रगति का भी पता अपने आप नहीं चलता, कोई अनुभवी ही इस संबंध में विश्लेषण कर सकता है और उसी के द्वारा उद्धार एवं कल्याण का मार्गदर्शन किया जा सकता है। जिसने कोई रास्ता स्वयं देखा है, कोई मंजिल स्वयं देखी है, कोई मंजिल स्वयं पार की है, वही उस रास्ते की सुविधा-असुविधाओं को जानता है, नये पथिक के लिए उसी की सलाह उपयोगी हो सकती है। बिना किसी से पूछे स्वयं ही अपना रास्ता आप बनाने वाले संभव हैं, मंजिल पार कर लें, निश्चित रूप से उन्हें कठिनाई उठानी पड़ेगी और देर भी बहुत लगेगी। इसलिए जब तक सर्वथा असंभव ही न हो जाय, तब तक मार्गदर्शक की तलाश करना ही उचित है। उसी के सहारे आध्यात्मिक यात्रा सुविधापूर्वक पूर्ण होती है।
प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करने पर भी यही प्रतीत होता है कि जीव शक्ति, ज्ञान और भाव के संबंध में स्वावलम्बी नहीं है, परावलम्बी है। उसे बाह्यï शक्तियों के सहयोग की अपेक्षा रहती है। इसके बिना पंगु ही बना रहता है। जब उसकी आंतरिक शक्ति और बौद्धिक विकास में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है, तब उसे बाह्य शक्तियों की अपेक्षा भले ही न हो, परन्तु फिर भी उसे अन्तस्ï की अचिन्त्य शक्ति का आलम्बन स्वीकार करना ही होगा, तभी वह पूर्ण विकास के पथ पर अग्रसर हो सकता है।
भौतिक ज्ञान के शिक्षक अपने विषय की जानकारी देकर अपना कत्र्तव्य पूरा कर लेते हैं, पर आध्यात्मिक मार्ग में इतने से ही काम नहीं चल सकता। वहाँ शिक्षा ही पर्याप्त नहीं, वरन् गुरु द्वारा दिया हुआ आत्मबल भी दान या प्रसाद रूप में उपलब्ध करना पड़ता है। जिस प्रकार कोई रोगी चिकित्सा की शिक्षा मात्र से अच्छा नहीं हो सकता, उसे चिकित्सक से औषधि भी प्राप्त करनी पड़ती है। उसी प्रकार सच्चे गुरु न केवल आत्म-कल्याण का मार्ग बताते हैं, वरन्ï उस पर चल सकने योग्य साहस, बल और उत्साह भी देते हैं। यह देन तभी संभव है, जब गुरु के पास अपनी संचित आत्म-संपदा पर्याप्त मात्रा में हो। इसलिए गुरु का चयन और वरण करते समय उसकी विद्या ही नहीं, आत्मिक स्तर पर तप की संगृहीत पूँजी को भी देखना पड़ता है। यदि वह सभी गुण न हों, तो कोई व्यक्ति अध्यात्म मार्ग का उपदेशक भले ही कहा जा सके, पर गुरु नहीं बन सकता। गुरु के पास साधन, तपस्या, विद्या एवं आत्मबल की पूँजी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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