प्रेम या अपनत्व

अपनों के लिए स्वभावत: उनके दोषों को छिपाने और गुणों को प्रकट करने की आदत होती है। कोई भी पिता अपने प्यारे पुत्र के दोषों को नहीं प्रकट करता है। वह तो उसकी प्रशंसा के पुल ही बाँधता रहता है। दुर्गुणी बालक को न तो कोई मार डालता है और न जेल ही पहँुचा देता है, वरन्ï यह प्रयत्न करता है कि किसी सरल उपाय से उसके दुर्गुण दूर हो जाए या कम हो जाए। यदि यही बात अपने परिजनों के साथ हम रखें, तो उनके अंदर जो बुरे तत्त्व वर्तमान हैं, वे घट जायेंगे। डाकू, हत्यारे, ठग, व्यभिचारी आदि क्रूर कर्मी लोग भी अपने स्त्री, पुत्र, भाई, बहिन आदि के प्रति मधुर व्यवहार ही करते हैं। सिंह अपने बाल-बच्चों को नहीं फाड़ खाता।
प्रेम एक ऐसा गोंद है, जो टूटे हुए हृदय को जोड़ता है। बिछुड़ों को मिलाता है। यदि किसी के साथ हमारा आत्मभाव सच्चा है और नि:स्वार्थ भाव से हम उसके साथ अपनेपन की भावना रखते हों, तो सच मानिये वह हमारा गुलाम बन जायेगा। दोषों से रहित इस संसार में कोई एक भी व्यक्ति नहीं है। किसी की एक बुराई देखकर उस पर आग बबूला हो जाना, सब बुराई की खान मान लेना उचित नहीं है। यदि हम ध्यान से देखेंगे तो मालूम होगा कि उसमें बुराइयों के साथ कुछ अच्छाइयाँ भी हैं।
आत्मोन्नति यही तो है कि अपनेपन के दायरे को छोटे से बड़ा बनाया जाय। जिनका अपनापन केवल अपने शरीर तक ही है, वे कीट, पतंग जैसे नीच श्रेणी के हैं। जो अपनी संतान तक आत्म भाव को बढ़ाते हैं। वे पशु-पक्षी से कुछ ऊँचे हैं। जिनका अपनापन कुटुम्ब तक सीमित है, वे असुर हैं। जिनका अपनापन अपनी संस्था राष्टï्र तक है, वे मनुष्य हैं। जो समस्त मानव जाति को अपनेपन से ओत-प्रोत देखते हैं, वे देवता हैं। जिनकी आत्मीयता चर-अचर तक फैली है, वे जीवनमुक्त परमसिद्ध हैं। जो आत्मभाव का जितना विस्तार करता है, अधिक लोगों को अपना समझता है, दूसरों की सेवा-सहायता करता है, उनके सुख-दु:ख में अपना सुख-दु:ख मानता है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है। आत्म विस्तार और ईश्वर आराधना एक ही क्रिया के दो नाम हैं।
एक उदार व्यक्ति पड़ोसी के बच्चों को खिलाकर बिना खर्च के उतना ही आनन्द प्राप्त कर लेता है, जितना कि बहुत खर्च और कष्टï के साथ अपने बालकों को खिलाने में किया जाता है। अपने हँसते हुए बालकों को देखकर हमारी छाती गुदगुदाने लगती है, पड़ोसी के उससे भी सुन्दर फूल से हँसते हुए बालक को देखकर हमारे दिल की कली नहीं खिलती है? इसका कारण यह है कि हम खुद अपने हाथों अपनी एक निजी दुनिया बसाना चाहते हैं। उसी से संबंध रखना चाहते हैं, उसकी ही उन्नति देखकर प्रसन्न होना चाहते हैं।
हम सदा यही देखते हैं कि लोग क्या करते हैं? यदि हम क्या करते हैं? यह देखने लगें, तो सदैव सुख ही हमारे सामने होगा, क्योंकि अपने को मनमर्जी बनाना हमारे हाथ में है। इसे कौन रोक सकता है कि हम दूसरों को अपना समझें, उन्हें प्यार करें और उस प्यार और अपनेपन के कारण जो आनन्द उपजे, उसका उपभोग करें। स्वर्ग निर्माण की यही कुंजी है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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