अहिंसा और हिंसा (भाग 2)
बड़े बुद्धिमान, ज्ञानवान, शरीरधारी प्राणियों को दुख देने, दण्ड देने या मार डालने या हिंसा करने के समय यह विचारना आवश्यक है। कि यह दुख किस लिए दिया जा रहा है। सब प्रकार के दुख को पाप और सब प्रकार के सुख को पुण्य नहीं कहा जा सकता। गरीब भेड़ों के खून के प्यासे भेड़ियों को मार डालना न तो पाप है और न सर्प को दूध पिलाना पुण्य है। हिंसा अहिंसा की परिभाषा कष्ट या आराम के आधार पर करना एक बड़ा घातक भ्रम है। जिसके कारण केवल पाप का विकास और धर्म का नाश होता है।
एक आप्त वचन है कि- वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात्- विवेकपूर्वक की गई हिंसा हिंसा नहीं है।
अविवेकपूर्वक दूसरों को जो कष्ट दिया गया है वह हिंसा है। जिह्वा की चटोरेपन के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है, अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों की दुख देना हिंसा है। किन्तु निस्वार्थ भाव से लोक कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय, तो वह हिंसा नहीं, वरन्, अहिंसा ही होगी। डॉक्टर निस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा करने के लिए फोड़े को चीरता है, एक न्यायमूर्ति जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू को फाँसी की सजा का हुक्म देता है, एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक आत्म कल्याण के लिए तपस्या करने के मार्ग पर प्रवृत्त करता है। मोटी दृष्टि से देखा जाय तो डॉक्टर का फोड़ा चीरना जज का फाँसी देना, गुरु का शिष्य को कष्ट में डालना, हिंसा और अधर्म जैसा प्रतीत होता है। पर असल में यह सच्ची अहिंसा है।
गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला हरामखोरों का दान देन वाला दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक प्रतीत होता है। पर असल में वह घोर पातकी हिंसक और हत्यारा है। क्योंकि अपनी बुज़दिली और हीनता को अहिंसा की बेड़ी में छिपाता हुआ असल में वह पाजीपन की मदद करता है। एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राणघातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है। ऐसी अहिंसा को जड़बुद्धि के अज्ञानी ही अहिंसा कह सकते है असल में तो वह प्रथम श्रेणी की हिंसा है।
अखण्ड ज्योति 1942 जुलाई
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