‘बुरे’ भी ‘भले’ बन सकते हैं (भाग 2)
कोई मनुष्य अपने पिछले जीवन का अधिकाँश भाग कुमार्ग में व्यतीत कर चुका है या बहुत सा समय निरर्थक बिता चुका है तो इसके लिए केवल दुख मानने पछताने या निराशा होने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। जीवन का जो भाग शेष रहा है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। राजा परीक्षित को मृत्यु से पूर्व एक सप्ताह आत्म कल्याण को मिला था, उस ने इस छोटे समय का सदुपयोग किया और अभीष्ट लाभ प्राप्त कर लिया। बाल्मीकि के जीवन का एक बड़ा भाग, लूट, हत्या, डकैती आदि करने में व्यतीत हुआ था वे संभले तो वर्तमान जीवन में ही महान ऋषि हो गये। गणिका जीवन भर वेश्या वृत्ति करती रही, सदन कसाई, अजामिल, आदि ने कौन से दुष्कर्म नहीं किये थे। सूरदास को अपनी जन्म भर की व्यभिचारी आदतों से छुटकारा मिलते न देखकर अन्त में आंखें फोड़ लेनी पड़ी थी, तुलसीदास का कामातुर होकर रातों रात ससुराल पहुँचना और परनाले में लटका हुआ साँप पकड़ कर स्त्री के पास जा पहुँचना प्रसिद्ध है। इस प्रकार के असंख्यों व्यक्ति अपने जीवन का अधिकाँश भाग बुरे कार्यों में व्यतीत करने के उपरान्त सत्पथ गामी हुए हैं और थोड़े से ही समय में योगी और महात्माओं को प्राप्त होने वाली सद्गति के अधिकारी हुए हैं।
यह एक रहस्यमय तथ्य है कि मंद बुद्धि, मूर्ख, डरपोक, कमजोर तबियत के ‘सीधे’ कहलाने वालों की अपेक्षा वे लोग अधिक जल्दी आत्मोन्नति कर सकते हैं जो अब तक सक्रिय, जागरुक, चैतन्य, पराक्रमी, पुरुषार्थी एवं बदमाश रहे हैं। कारण यह है कि मंद चेतना वालों में शक्ति का स्त्रोत बहुत ही न्यून होता है वे पूरे रचनाकारी और भक्त रहें तो भी मंद शक्ति के कारण उनकी प्रगति अत्यंत मंदाग्नि से होती है। पर जो लोग शक्तिशाली हैं, जिनके अन्दर चैतन्यता और पराक्रम का निर्झर तूफानी गति से प्रवाहित होता है वे जब भी, जिस दिशा में भी लगेंगे उधर ही सफलता का ढेर लगा देंगे। अब तक जिन्होंने बदमाशी में अपना झंडा बुलन्द रखा है वे निश्चय ही शक्ति सम्पन्न तो हैं पर उनकी शक्ति कुमार्ग गामी रही है यदि वही शक्ति सत्पथ पर लग जाय तो उस दिशा में भी आश्चर्य जनक सफलता उपस्थित कर सकती है। गधा दस वर्ष में जितना बोझा ढोता है, हाथी उतना बोझा एक दिन में ढो सकता है। आत्मोन्नति भी एक पुरुषार्थ है। इस मंजिल पर भी वे ही लोग शीघ्र पहुँच सकते हैं जो पुरुषार्थी हैं, जिनके स्नायुओं में बल और मन में अदम्य साहस तथा उत्साह है।
मंद मति तम की स्थिति में हैं, उनकी क्रिया किसी भी दिशा में क्यों न हो। पुरुषार्थी, चतुर, संवेदनशील व्यक्ति रज की स्थिति में हैं चाहे वह अनुपयुक्त दिशा में ही क्यों न लगा हो। तम नीचे की सीढ़ी है, रज बीच की, और सत सबसे ऊपर की सीढ़ी है। जो रज की स्थिति में है उसके लिए सत में जा पहुँचना केवल एक ही कदम बढ़ाने की मंजिल है, जिस पर वह आसानी से पहुँच सकता है। स्वामी विवेकानन्द से एक मूढ़मति ने पूछा- मुझे मुक्ति का मार्ग बताइए। स्वामी जी ने उसकी सर्वतोमुखी मूढ़ता को देख कर कहा तुम चोरी, व्यभिचार, छल, असत्य भाषण, कलह आदि में अपनी प्रवृत्ति बढ़ाओं। इस पर वहाँ बैठे हुए लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा स्वामी जी आप यह क्या अनीति का उपदेश करते हैं? उन्होंने विस्तार पूर्वक समझाया कि तम में पड़े हुए लोगों के लिए पहले रज में जागृत होना पड़ता है तब वे सत में पहुँच सकते हैं। भोग और ऐश्वर्य को अर्निद्य मार्ग से प्राप्त करना निर्दोष और निद्य मार्ग से प्राप्त करना, सदोष रजोगुणी अवस्था है। दरिद्र को पहले सुसम्पन्न बनना होता है तब यह महात्मा बन सकता है। दरिद्र और नीच मनोवृत्ति का मनुष्य उदारता और महानता की सतोगुणी भावनाओं को धारण करने में समर्थ नहीं होता।
एक बार स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में अध्यात्म पर भाषण दे रहे थे। अमेरिकनों ने सभा में ही पूछा स्वामी जी! क्या भारतवासी पूर्ण अध्यात्मवादी हो गये हैं, जिससे उन्हें उपदेश न देकर आपको अमेरिका आने की आवश्यकता अनुभव हुई? स्वामी जी ने इस प्रश्न का बड़ा अच्छा उत्तर दिया। उन्होंने कहा- आप अमेरिका निवासी रजोगुणी स्थिति में है, धनी और विद्या सम्पन्न है इसलिए आप ही सतोगुण स्थिति में चलने के, अध्यात्म का अवलम्बन करने के अधिकारी हैं। मैं अधिकारी पात्रों को ढूँढ़ता हुआ आपके पास अमेरिका आया हूँ। मेरे देश वासी इस समय, दरिद्रता, अविद्या और पराधीनता में जकड़े पड़े हैं, उनकी स्थिति तम की है। मैं उनसे कहा करता हूँ कि- तुम उद्योगी बनो, अधिक कमाओ, अच्छा खाओ और सम्मान पूर्वक जीना सीखो यही उनके लिए आत्मोन्नति का मार्ग है। तम की स्थिति को पार कर रजोगुण में जागृत होना और तदुपरान्त सतोगुण में पदार्पण करना आत्मोन्नति का यह सीधा सा मार्ग है।
जो लोग पिछले जीवन में कुमार्ग गामी रहे हैं, बड़ी ऊटपटाँग गड़बड़ करते रहे हैं वे भूले हुए, पथभ्रष्ट तो अवश्य हैं पर इस गणन प्रक्रिया द्वारा भी उन्होंने अपनी चैतन्यता बुद्धिमत्ता, जागरुकता और क्रियाशीलता को बढ़ाया है। यह बढ़ोतरी एक अच्छी पूँजी है। पथ भ्रष्टता के कारण जो पाप उनसे बन पड़े हैं वे पश्चाताप और दुःख के हेतु अवश्य हैं पर संतोष की बात इतनी है कि इस कँटीले, पथरीले, लहू-लुहान करने वाले, ऊबड़-खाबड़ दुखदायी मार्ग में भटकते हुए भी मंजिल की दिशा में ही यात्रा की है। यदि अब संभल जाया जाय और सीधे राजमार्ग से, सतोगुणी आधार से आगे बढ़ा जाय तो पिछला ऊल-जलूल कार्यक्रम भी सहायक ही सिद्ध होगा।
पिछले पाप नष्ट हो सकते हैं, कुमार्ग पर चलने से जो घाव हो गये हैं वे थोड़ा दुख देकर शीघ्र अच्छे हो सकते हैं। उनके लिए चिंता एवं निराशा की कोई बात नहीं। केवल अपनी रुचि और क्रिया को बदल देना है। यह परिवर्तन होते ही बड़ी तेजी से सीधे मार्ग पर प्रगति होने लगेगी। दूरदर्शी तत्वज्ञों का मत है कि जब बुरे आचरणों वाले व्यक्ति बदलते हैं तो आश्चर्य जनक गति से सन्मार्ग में प्रगति करते हैं और स्वल्प काल में ही सच्चे महात्मा बन जाते हैं। जिन विशेषताओं के कारण वे सफल बदमाश थे वे ही विशेषताएं उन्हें सफल संत बना देती है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)
अखण्ड ज्योति, सितम्बर 1949, पृष्ठ 7
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