Magazine - Year 1941 - Version 2
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Language: HINDI
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नश्वर संसार
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(रचियता-श्री महताबनारायण त्यागी, वै. ध. विशारद, लश्कर)
यौवन-सरिता-तट पर पी सौर्न्दय-सुरा मस्ताने वाले!
श्रणभंगुर जीवन में दाहक तन से नेह लगाने वाले!
तेरा विश्वप्रेम एकाकी कलुषित होकर जाग रहा है!
अमर पुत्र मानव, तुझको लख भय से पशु भी भाग रहा॥
रणप्राँगिण में डडडड सचमुच विस्मयान्वित बल है दिखलाया।
मानस के दूर्धर रिपुओं का दमन नहीं क्योंकर कर पाया?
जीवन जो अवशिष्ट उसी में जोड़ विश्व पति से अब नाता।
इस अनन्त संघर्ष-मध्य मानव ही व्यर्थ रहा टकराता॥
मिट्टी के पुतले, सोचा भी धरा-धाम पर क्यों है आया?
नश्वर जग के इस समत्व में जो निज को है व्यर्थ फंसाया॥
मोह-श्रृंखला के अय बन्दी! देख समय भागा जाता है।
जीवन का क्षण बीत गया जो कभी, नहीं वापिस आता है॥
केश श्वेत हो गये सँभल जा, मद-मत्सर के अरे पुजारी।
दिव्य योनि पाकर भी पगले, निष्फल आयु गँवाई सारी॥
अन्तरिक्ष में पंचतत्व हैं शीघ्र तिरोहित हो जाने को।
पथिक! गँवा बैठा संचित भी धिक् तेरे नर तन पाने को॥
परवर्धित तेरा वैभव यह आज देखकर के हँसता है।
“बाजीगर की माया है” नर जान बूझ कर भी फंसता है॥
मरणोदिप्त चिता को लख कर उदासीन हो जाने वालो!
अन्तिम शिक्षा को धारण कर कुछ तो निज को मित्र, सँभालो॥
*समाप्त*