Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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निष्कलंक भगवान् की जय।
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कौशलपुर के राजा प्रसेनजित के पुरोहित आचार्य भार्गव अपनी दयालुता, न्याय-शीलता और परोपकार वृत्ति के लिए प्रसिद्ध थे। पराये दुख दूर करने को आत्म त्याग करने के लिये वे सदैव तत्पर रहते थे।
आचार्य भार्गव के घर एक बड़ा ही सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। इस समाचार से सारे कौशलपुर में आनन्द छा गया। घर-घर बधाये बँटने लगे। घड़ी मुहूर्त देखने के लिये ज्योतिषी लोग पधारे, उन्होंने बालक के जो लक्षण बताये उसे सुनकर सब लोग सन्न रह गये। आचार्य का मुख सूख गया। ज्योतिषियों ने कहा कि “यह बालक बड़ा होकर भयंकर डाकू होगा। यह अनेक निरपराध मनुष्यों की हत्या करेगा।”
ऐसा बालक भला भार्गव जैसे ऋषि के लिये कुछ प्रसन्नता का कारण थोड़े ही हो सकता था। उसने सोचा कि इसे अभी ही मार दिया जाए तो अनेक लोगों की विपत्ति कट जायगी। उन्होंने निश्चय किया कि अपना विचार राजा के सम्मुख रखूंगा और इस बालक का वध करा दूँगा।
दूसरे दिन अपने नवजात बालक को लेकर आचार्य भार्गव राज दरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा को अपना विचार सुनाया और कहा-अनेक मनुष्यों के लिये विपत्ति बनने वाले इस बालक का आप वध करा दीजिये।
आचार्य की त्याग वृत्ति और बालक की सुन्दर आकृति को देखकर राजा का हृदय दया से भर गया। उसने कहा-भगवान्! देवताओं तक से भूल होती है फिर ज्योतिषी तो मनुष्य ही हैं। कौन जाने ज्योतिषियों का कथन मिथ्या ही निकले। फिर यदि यह डाकू हुआ तो राज-शक्ति द्वारा जैसे अनेक डाकुओं का दमन किया जाता है वैसे इसका भी प्रबन्ध कर दिया जाएगा। इस बालक का अकारण वध करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता, इस लिये आप इसे लौटा ले जाइये।
भार्गव को राजा की बात माननी पड़ी, वे बालक को घर लौटा लाये। मृत्यु के मुख में से वापिस आये हुए बालक को पाकर माता को बड़ा आनन्द हुआ, उसने पुचकारते हुए बच्चे को छाती से लगा लिया। माता ने हाथ जोड़े कर ईश्वर से प्रार्थना की कि—प्रभो! मेरे बच्चे को कलंक से बचाना। इसे निष्कलंक रखना। माता को निष्कलंक नाम इतना प्रिय लगा कि उसने बालक का नाम ही ‘निष्कलंक’ रख दिया।
निष्कलंक बड़ा होने लगा। उसकी बुद्धि ऐसी तीव्र थी कि सभी को आश्चर्य होता। सद्गुणों का तो मानो अवतार ही हो। पिता ने समस्त संस्कार उसमें कूट-2 कर भरे थे। ऐसे सुयोग्य बालक को पाकर माता-पिता के आनन्द की सीमा न रही। सात वर्ष का होते-2 उसे तक्षशिला के विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन करने के लिये भेज दिया गया।
विधि की इच्छा। निष्कलंक को ऐसे अध्यापक के पास पढ़ना पड़ा जो छिप कर मद्यपान करता था। थोड़े दिन तो वह कुछ न समझ सका। पर जब वह अठारह वर्ष का हो गया तो ऊँच-नीच समझने लगा। एक दिन अपने गुरु को छिपकर मद्य-पान करते देखा। ब्राह्मण और उपाध्याय होते हुए भी सुरा पान! बालक को बड़ा क्षोभ आया। उसने अपना रोष प्रकट करते हुए कहा—गुरु जी! यह बहुत ही अनुचित है। आप इतने विद्वान् होते हुए भी ऐसा पाप करते हैं। मैं राजा से इसकी शिकायत करूंगा।
अध्यापक भय से काँपने लगे। उस युग में ब्राह्मण के लिये सुरापान करना अक्षम्य अपराध था, यदि राजा को पता चल जाए तो कठोर दण्ड भोगे बिना छुटकारा न मिले। जन्म-भर को जाति से बहिष्कृत होकर अपमान की अग्नि में जलना पड़े सो अलग। इस विपत्ति की सम्भावना से अध्यापक अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर उसने धैर्य धारण किया और एक उपाय सोच निकाला।
अध्याक ने एक मर्म हँसी हँसते हुए बालक के सिर पर हाथ फिराया और उसके कान के पास मुँह ले जा कर अत्यन्त धीमे स्वर में कहा-बेटा, इसमें बड़ा भारी रहस्य छिपा हुआ है। मेरे साथ घर चल, घर तुझे ये सब बताऊँगा। निष्कलंक गुरु के साथ हो लिया। जब दोनों कुटी पर पहुँच गये तो आदरपूर्वक बालक को बिठाते हुए गुरु ने कहा-बेटा, मैं तान्त्रिक हूँ। तन्त्र द्वारा कैसे-2 जादू भरे चमत्कारी कार्य मनुष्य कर सकता है सो तो तुम जानते ही हो। उसी तन्त्र साधना के लिए मुझे मद्यपान करना पड़ता है। तुम मेरे सब से प्यारे शिष्य हो। यदि तुम तन्त्र विद्या सीखना चाहो तो मैं तुम्हें सिखा सकता हूँ।
विभूतियों का लोभ किससे त्यागा गया है। अपने अन्दर आश्चर्यजनक शक्तियाँ लेने और दुनिया को अपनी उंगली के इशारे पर नचाने का लालच एक किशोर को फँसा लेने के लिये पर्याप्त था। वह गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। ‘भगवान् मुझे वह विद्या सिखा कर कृतार्थ कर दीजिये।’ अध्यापक ने देखा कि मेरा जादू काम कर गया। उन्होंने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया, ‘अवश्य! मैं तुम्हें अवश्य सिखाऊंगा। पर उसकी साधना में जो कठोर कार्य करने पड़ते हैं उन्हें तुम कैसे कर सकोगे?’
किशोर ने कहा- कैसी ही कठोर साधना क्यों न हो मैं उसे पूरी करूंगा। गुरु ने उससे कहा- बेटा! तुम्हें एक हजार मनुष्यों का वध करना पड़ेगा। युवक ने यह स्वीकार कर लिया और वह तलवार लेकर जंगल की ओर चल दिया।
निष्कलंक घने वन में एक ऐसे स्थान पर छिपा रहा जहाँ आठ मार्गों का चौराहा था। वहाँ से जो पथिक निकलता वही निष्कलंक की तलवार का शिकार बन जाता। इस प्रकार राज-पथ के बन्द हो जाने से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। सारा कौशल राज्य उसके आतंक से त्रस्त हो उठा। गुप्तचरों ने घोषित कर दिया कि यह डाकू और कोई नहीं आचार्य भार्गव का पुत्र निष्कलंक है। राजा एक बड़ी सेना के साथ स्वयं जाकर उस डाकू को मारने गये पर उन्हें बहुत प्रयत्न करने के बाद भी निराश लौटना पड़ा।
दस्यु की दुष्टता का सबसे अधिक दुःख निष्कलंक की माता को हुआ। वह तपस्वी ज्योतिर्भिक्षु के आश्रम में पहुँची। यह बौद्ध भिक्षु अहिंसा धर्म का प्रबल प्रचारक और ऐसा तेजस्वी था कि असंख्य मनुष्यों के जीवन का प्रवाह उसने पच्छिम से पूरब को पलट दिया था। माता ने भिक्षु के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। माता की ममता उसकी आँखों में से टपक कर अपनी कथा आप कह रही थी। आँसू का प्रत्येक कण प्रार्थना कर रहा था। ऋषि निष्कलंक को सकलंक होने से बचा दीजिये।
भिक्षु को सारा घटना क्रम जानने में क्षण भर का भी विलम्ब न हुआ। उसने वृद्धा को भूमि पर से उठाते हुए कहा, ‘माता तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, तुम्हारा पुत्र निष्कलंक ही रहेगा। तुम्हारा दुःख दूर करके अपना जीवन धन्य करूंगा।’ यह कहता हुआ भिक्षु अपने आसन पर से उठा और उत्तर दिशा के लिये चल दिया।
डाकू को ढूँढ़ता हुआ ज्योतिर्भिक्षु निविड़ वन में पहुँचा। अचानक अपने आप एक शिकार पास में आया देखकर दस्यु को बड़ी प्रसन्नता हुई। एक हजार मनुष्यों का वध करने में आज एक ही की कमी रह गई थी, सो ईश्वर ने अपने आप घर बैठे भेज दिया। साधना पूरी होने पर जो विभूतियाँ प्राप्त होंगी, उनकी कल्पना करता हुआ, तलवार हाथ में लेकर डाकू आगे बढ़ा।
दोनों निगाह से निगाह मिली। भिक्षु ने आत्म तेज की एक किरण फेंकते हुए कहा-बस, आगे पैर मत बढ़ाओ, जहाँ हो वहीं खड़े रहो। डाकू प्रस्तर मूर्ति की तरह जहाँ का तहाँ खड़ा रहा। अब वह अपना एक अंग हिलाने में भी असमर्थ था।
भिक्षु ने कहा-बेटा, तुम्हें बहुत भ्रम हुआ। धूर्त द्वारा बुरा तरह ठगे गये। हत्या और हिंसा द्वारा जो विभूतियाँ प्राप्त होती है, वे बड़ी ही मलीन और नीच कोटि की होती हैं तो अधिक दिन ठहरती भी नहीं। तुमने दुष्ट के बहकावे में आकर अपना लोक और परलोक बिगाड़ा। अब तुम्हें इस प्रपंच से बच कर ब्राह्मण धर्म का पालन करना चाहिये। चलो मेरे साथ चलो, मैं देखता हूँ कि तुम्हारे अन्दर ज्ञान की ज्योति जल रही है, मैं इसे प्रदीप्त करूंगा और तुम्हें ब्रह्म विद्या की शिक्षा दूँगा।
डाकू मन्त्र-मुग्ध की तरह खड़ा हुआ था। उसके हृदय को मानों कोई जोर-2 से मसोस रहा हो, पश्चात्ताप से सौ बिच्छू काटने की पीड़ा वह अनुभव कर रहा था। हाथ! मैं किस भ्रम में पड़ा रहा; मैंने अपने कर्त्तव्य धर्म की कितनी भारी उपेक्षा की। आँखों में से पानी की बूंदें टपक पड़ीं। भिक्षु उसे अपनी कुटी पर ले आया और सत्य धर्म की शिक्षा देने लगा।
समय बीतने लगा। निष्कलंक के कपाय कटने लगे। गुरु के लिये भिक्षा माँग लाना और विद्या पढ़ना, यही दो कार्य आश्रम में उसे करने पड़ते थे। अब वह सचमुच अपने नाम को सार्थक करने की स्थिति में पहुँच चुका था। ज्ञान की महिमा ऐसी ही है, उस गंगा में स्नान करके कौए कोयल हो जाते हैं और बगले हंस बन जाते हैं।
एक दिन वह भिक्षा माँगने गया हुआ था। रास्ते में देखा कि एक विधवा का बालक मर गया है और वह बिलख-2 कर रो रही है। निष्कंक उस विधवा को आश्रम में ले पहुँचा और भिक्षु जी से सब वृत्तांत कह दिया।
ज्योतिर्भिक्षु ने कहा-वत्स, आज तुम्हारी ही परीक्षा का समय है। मृत बालक को हाथ में लो और कहो कि “यदि मैंने जीवन भर में आज तक किसी भी प्राणी की हिंसा न की हो तो मेरे पुण्य प्रताप से यह बालक जीवित हो जाए।” निष्कलंक ने उन्हीं शब्दों को दुहरा दिया। वाक्य समाप्त होते-2 मृत बालक ने आँखें खोल दीं।
निष्कलंक आश्चर्य से चिल्ला उठा—प्रभो! यह कैसी विडम्बना! मैं 999 मनुष्यों की तो हत्या प्रत्यक्ष ही की है, फिर “किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का क्या अर्थ?”
ज्योतिर्भिक्षु खिल-खिला कर हँस पड़े और बोले, वत्स! कर्म बन्धन तो तभी तक है जब तक कि मनुष्य उसमें बँधता है। स्वार्थ और लोभ जब तक है, तब तक कर्मों के भले-बुरे फल भी अवश्य मिलते हैं! पर जब आत्मा के असली स्वरूप को समझ लिया जाता है तो उसका अन्तर ईश्वरीय अखण्ड ज्योति से भर जाता है। उसके आचरण स्वार्थ, तृष्णा एवं भोगों के लिये नहीं वरन् सत्य, प्रेम, न्याय के लिये होते हैं। ऐसा जीवन मुक्त आत्म सर्वथा निष्कलंक है। तुमने सत्य की शोध करके तत्वज्ञान प्राप्त कर लिया है इसलिये पिछले कर्म-बन्धन से तुम्हें अनायास ही छुटकारा मिल गया। हे आत्मन! तुम सत्चित आनन्द स्वरूप हो इसलिये निष्कलंक हो। जीवन मुक्त हो। आत्मा और परमात्मा को पहिचान लेने पर तुम्हारी तरह अन्य प्राणी भी निष्कलंक हो सकते हैं।”
आश्रम के छात्र और अनेक दर्शक इस उपदेश को सुन रहे थे। यह सार उनके अन्तर में उतर गया। और सब ने अपने को निष्कलंक बनाने की प्रतिज्ञा कर ली।
गुरु ने उच्च स्वर में आवाज लगाई-निष्कलंक भगवान् की जय। सुनने वालों के असंख्य कण्ठों ने उसका अनुगमन किया। निष्कलंक भगवान की जय। आश्रम का पवित्र वातावरण उसकी प्रतिध्वनि से गूँज उठा। वायु ने यह पवित्र सन्देश दूर-2 देशों में फैला दिया। जागृति आत्माएं एक स्वर पुकारने लगीं:—
निष्कलंक भगवान की जय।