Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
देने से मिलेगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री सोमनाथ जी नागर, मथुरा)
एक व्यक्ति अपना सर्वस्व परोपकार में लगाकर संन्यासी हो गया और निर्मल चित से तप करने लगा। ईश्वर के यहाँ से ऐसी व्यवस्था हुई कि उसी तपोभूमि में एक देवदूत नित्य पहुँचता और बहुमूल्य सुस्वादु भोजनों का थाल उन्हें दे आता। इस प्रकार उसकी तपनिष्ठा का योगक्षेम अदृश्य सत्ता ने अपने ऊपर उठा लिया।
एक दूसरा व्यक्ति जो ये सब देखा करता था, उसने सोचा कि मैं भी संन्यासी हो जाऊँ, तो मुझे भी ऐसे ही व्यंजन खाने को मिला करेंगे, वह अपने घर गया और सारा कारोबार लड़कों को सँभलवा, गेरुए कपड़े पहनकर, उन्हीं संन्यासी की बगल में तप करने बैठ गया।
यथासमय भोजन देने वाला देवदूत आया। आज उसके हाथ में दो थाल थे। एक में तो उस पुराने साधु के लिये वही बहुमूल्य भोजन थे, दूसरे थाल में दो सूखी रोटियाँ थीं, यह नये साधु के सामने रखकर वह चला गया। नये साधु ने पहले दिन कुड़कुड़ाते हुये उसे खाया। मन में सोचने लगा, जब हम दोनों एक सा काम करते हैं तो फल भी एक सा मिलना चाहिये, शायद आज देवदूत से भूल हो गयी होगी, कल वह जरूर बढ़िया थाल लावेगा। कल आया, किन्तु फिर वही दो सूखी रोटी, अब तो उसका धैर्य टूटने लगा, एक दिन और गम खाया, तीसरे दिन भी जब वही दो सूखी रोटी देखी, तो नया साधु आग बबूला हो गया, उसने बड़े क्रोध के साथ गरज कर देवदूत से कहा- “क्या रे! जब हम दोनों एक ही तरह का काम करते हैं, तो यह दो तरह का भोजन हम लोगों को क्यों देता है?”
देवदूत ने नये साधु को साँत्वना देते हुये बड़े नम्र शब्दों में कहा -”भगवन्! यह फल संचित कर्मों के अनुसार मिल रहा है। यह पुराने साधु महानुभाव अपना सारा धन-धान्य परोपकार में लगा चुके हैं, इसलिये इनके खाते में बहुत जमा है। उसी में से मैं ले आता हूँ, और इन्हें दे जाता हूँ। आपने तो जीवन-भर में एक बार एक आदमी को बड़े अहंकारपूर्वक एक सूखी रोटी दान दी थी, सो उसी की ब्याज से बढ़कर कुछ रोटियाँ जमा हो गयी हैं। यह सब दो-चार रोज में समाप्त हो जायेंगी, तो आपको यह सूखी हुई रोटियाँ भी मिलना बन्द हो जायेगा। आप मेरे ऊपर क्रोध न करें। मैं तो निर्दोष हूँ। जिसका जैसा जमा है, उसे वैसा ही लाकर दे देता हूँ।”
अब नये साधु को चेत हुआ। वह समझता था कि वेश बना लेने या काम की नकल करने से वैसा ही फल मिलता है, पर अब उसने जाना कि नकल करने से परमेश्वर को ठगा नहीं जा सकता। जो जितना देता है, वह उतना ही पाता है। उत्तम फल तभी मिलता है, जब उसके अनुरूप कार्य किया जाये, दिये बिना मिलना असम्भव है, अपनी भूल पर वह बार-बार पछताने लगा।
दूसरे दिन जब फिर दो रोटियाँ आईं, तो उसने विनयपूर्वक दूत से पूछा- ‘अब मेरे खाते में कितनी रोटियाँ जमा हैं?’ उसने उत्तर दिया ‘दस’। साधु ने कहा- ‘तो मैं अपना खाता जमा नहीं रखना चाहता। मेरी सब रोटियाँ एक साथ लाकर दे दीजिए।’ देवदूत ने उसकी बात स्वीकार कर ली, और उसकी कुल दस रोटियाँ एक साथ लाकर दे दी। साधु ने उनमें से एक टुकड़ा भी न खाया, और गरीब भूखे-प्यासों को उन्हें बाँटने के लिये चल दिया। उसने दसों रोटियाँ बाँट दी और स्वयं भूखा रह कर सो गया। क्योंकि आज वह समझ गया था कि खुद खा-पीकर मौज उड़ाने का अर्थ अपनी संचित कमाई को समाप्त करना है और परोपकार में त्याग करना अपनी पूँजी बढ़ाना है। पूँजी को खर्च न करके उसे बढ़ाने की उसकी इच्छा सब प्रबल हो गयी थी, इसलिये भोग के स्थान पर त्याग उसने स्वीकार किया। दूसरे दिन देवदूत फिर पहुँचा, आज उसने पुराने साधु के थाल से कुछ ही घटिया थाल नये साधु के सामने रखा। इसे देखकर वह समझ गया कि देने में कितना बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। उस दिन से वह देवदूत द्वारा प्राप्त होने वाले भोजन में से जीवन निर्वाह के लिये कम से कम और सस्ती से सस्ती सामग्री अपने लिये लेता और शेष परोपकार में दान दे देता, इस क्रम से धीरे-धीरे उसकी पूँजी ईश्वर के खाते में दिन-दिन बढ़ने लगी और दिन-दिन वह अपार सुख भोग का अधिकारी होता गया।
पाठक! आप भी नये साधु की तरह अपनी पूँजी बढ़ाने का प्रयत्न करें- “कम से कम अपने लिये लेना, और अधिक से अधिक दूसरों को देना” इस नीति को अपनावें, तो एक दिन ईश्वर के खाते में आपकी बड़ी भारी पूँजी जमा हो जायेगी और अनायास ही अपार ऐश्वर्य प्राप्त कर लेंगे।