Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु को याद रखो
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(डॉ. शिवरतनलाल त्रिपाठी, गोला गोकरननाथ)
किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे। अपने शिष्यों को पढ़ा देना और योगाभ्यास करना यही महात्मा का नित्य कार्य था। उदर पोषण के लिये कन्द मूल फल तथा नदियों का स्वच्छ जल पीकर ही सन्तुष्ट रहते थे। वल्कल वस्त्र, तृण शैया, फूस की झोंपड़ी में विश्राम, इस प्रकार सन्तोष, धैर्य और शान्ति की साक्षात मूर्ति महाराज योगीराज थे।
परन्तु महाराज का एक शिष्य बड़ा ही चपल था। उसके हृदय में बार-बार विविध विचारों की तरंगें उठती थी। साँसारिक भोग-विलासों की कल्पना में उसका मन रात्रि-दिवस उलझा रहता और योग में न लगता था। आखिर मन की कल्पना को कार्यरूप में करने की ठानी और गुरु जी से कहने लगा कि “महाराज आप तो सदा वन में पड़े रहते हैं, कभी-कभी नगर की भी सैर किया कीजिये। बीसियों राजे महाराजे आपके शिष्य बनेंगे, सब में नाम होगा, राजमहलों तथा नगर की शोभा को हम शिष्य लोग भी देख लेंगे।” योगीराज यह सुनकर कहने लगे “ भाई मुझे तो अवकाश नहीं है, हाँ, तू चाहे तो नगर में जा सकता है।” चेला कहने लगा कि “महाराज आपको अवकाश क्यों नहीं, यहाँ बैठे आप-रात दिन योग-अभ्यास ही तो करते रहते हैं, दो चार दिन को चलिये घूम आवें, हर वक्त का भजन किस काम का।” यह सुन महात्मा हँस दिये और चेले से कहा कि “ भाई मैं तो जाता नहीं, तू जैसा चाहे वैसा कर।”
चेला अकेला ही नगर की सैर को चला। बाजार की शोभा देखता-देखता गली-कूँचों को चला। इधर-उधर महलों की शोभा देखता फिर रहा था कि एक अट्टालिका पर निगाह पड़ी, देखता क्या है एक युवती खड़ी बाल सुखा रही है। बस उसे देखते ही लोट-पोट हो गया कामदेव के बाण से वेधित होकर, छटपटाने लगा, परन्तु करता क्या, बेबस था।
सायंकाल समीप जान आश्रम को लौटा। गुरु जी महाराज ने चेहरा देखते ही जान लिया कि बच्चा माया का शिकार बन गया है। बोले कहो, क्या दशा है? चेला गिर पड़ा और कराहता हुआ कहने लगा कि महाराज छाती में दर्द होता है। गुरु जी ने हँस कर कहा क्या नजर का काँटा हृदय में लग गया, सच-सच बता? गुरु जी से झूठ बोलकर परलोक न बिगाड़। गुरु जी के यह वचन सुन चेले ने लज्जा से सिर झुका लिया। फिर गुरु जी के आग्रह पर सारा असली वृत्तांत कह सुनाया, तब गुरु जी ने चेले को आश्वासन देते हुये कहा कि घबराओ मत, यह कितनी बड़ी बात है, तुम पता बताओ वह स्त्री यही उपस्थित होगी। चेले ने सब पते बताये। गुरु जी ने अपने दूसरे चेले के हाथों एक पत्र उस स्त्री के पति के नाम लिखकर भेज दिया। उस शिष्य ने स्त्री के पति को, जो कि एक सेठ था, पत्र दिया। पत्र में लिखा था कि हमारे ऊपर विश्वास कर अपनी स्त्री को इस रात के लिये आश्रम में भेज दो, उसके पतिव्रत धर्म के हम पिता के समान रक्षक हैं।
महात्मा को दूर-दूर तक सब जानते थे, उन पर सबको पूरा विश्वास था, सेठ अपनी स्त्री सहित उपस्थित हो गया। महात्मा जी सेठ को अलग बैठा कर स्त्री को ले शिष्य के पास पहुँचे और कहने लगे ले भाई! यह देवी मौजूद है, तू जो चाहे सो कर, परन्तु इतना ध्यान रख कि प्रातःकाल सूर्य निकलते ही तेरा देहान्त हो जावेगा, रात्रि के थोड़े से घण्टे ही तेरे जीवन के हैं। स्त्री को महात्मा जी ने पहिले ही समझा दिया था कि पुत्री घबड़ाना मत। तुम्हारे धर्म पर आँच नहीं आयेगी, थोड़ी देर का माया जाल है। स्त्री बैठी रही। इधर मृत्यु के भय से चेला चिन्ता में डूब गया और उसके हृदय से सारी काम-वासना काफूर हो गई। रह-रह कर यही सोच सता रही थी कि प्रातःकाल होते ही काल का कलेवा बन जाऊंगा। बस सारी रात बीत गई, प्रातःकाल होते ही गुरुजी आ पहुँचे। चेले ने चरण छुये। गुरुजी ने कहा, कहो भोग-तृष्णा को भुला चुके? चेला कहने लगा- कैसा भोग और कैसा विलास, मैं तो सारी रात चिन्ता में रहा हूँ। गुरु जी ने कहा कि मूर्ख तुझे तो रात्रि भर का समय दिया था फिर क्यों न कुछ कर सका। मुझे तो यही पता नहीं है कि मृत्यु कब आ जाये। फिर किस प्रकार योगाभ्यास छोड़कर सैर-सपाटे को निकलूँ, मृत्यु के स्वागत के लिये ही मैं हर समय तैयार बैठा रहता हूँ।
याद रख, भोग-विलास में फंसे रहना और परलोक की तैयारी न करना भूल है। यह नर तन इस लिये ही मिला है कि मुक्ति प्राप्त की जाये। परन्तु भोग विलास में फँसा हुआ मनुष्य सोचता रहता है कि अन्त में भजन कर लूँगा। इसी प्रकार टालते-टालते मृत्यु आ जाती है और हम तैयार नहीं हो पाते। मनुष्य यदि यह विचार सदा रखे कि मृत्यु आने वाली है तो फिर भोग में लिप्त नहीं हो सकता। चेला यह सुनकर चरणों में गिर पड़ा। गुरु जी ने कहा कि उठ, अब तू अमर हुआ। यदि तू भोग में फंसता तो ब्रह्मचर्य से गिर जाता, यही तेरी धार्मिक मृत्यु होती। अब तूने मृत्यु चिन्ता के कारण भोगों से उदासीनता दिखाई है, इसलिये स्थिर होकर योगाभ्यास कर और मृत्यु के मुकाबले को तैयार रह।
यह बाह्य पदार्थ मनुष्य को भुलावे में डालने वाले हैं और यदि मनुष्य मृत्यु का भय हृदय में रखे (जिसके आने का अनिश्चित समय है) तो मन को स्थिरता प्राप्त होगी और आप सुगमतापूर्वक पूर्णानन्द की ओर बढ़ जावेंगे तथा सारे पाप यूँ ही देखते रह जावेंगे। वेद कहते हैं कि -भस्मान्त शरीरम् बस मृत्यु को सदा याद रक्खो। “गृहत इव केशेपु मृत्युनाधर्माचरेत” अर्थात् मृत्यु बाल (चोटी) पकड़े हुये है, ऐसा समझ कर (शीघ्र) धर्म को करो।