Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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पिशाच से देवता
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‘मेस्टर हान्ट’ इस शब्द का उच्चारण करते ही एक पत्थर जैसे कड़े सीने वाले, हाथी सी मोटी गर्दन के, सात फुट लम्बे, ढाई मन भारी, दुर्दान्त प्रकृति और क्रूरकर्मा मनुष्य का बोध होता है, जो गोरे रंग का राक्षस समझा जाता था। कहते है कि जब वह चलता है तो धरती हिलती है, मुक्का मार दे तो एक मजबूत साँड को बिठा दे, लाल आँखें देख कर बाघ भी डर जायें, आहट पाकर कुत्ते भौंकना बन्द कर दें, माताएं उसका नाम सुनकर बच्चों को गोद में छिपा लें, ऐसा था वह भीमकाय और क्रूरकर्मा ‘हान्ट’।
व्याघ्र के समान स्वतंत्र गति से वह सर्वत्र विचरण करता था। दुबले-पतले मनुष्य उसका रास्ता छोड़कर अलग हट जाते थे, महिलाएं अपने सतीत्व की आशंका से एक ओर छिप बैठती थीं। मेस्टर हाण्ट इंग्लैंड के ग्राम में धनी-मानियों को डरा-धमका कर अपना खर्च चलाता था, वैसे तो जंगली पशुओं का शिकार करने से भी उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी।
आप समझते हैं कि क्या ऐसे हिंसक पशु के हृदय में भी प्रेम-रस की कुछ बूँदें होंगी? वे हों चाहे न हों, पर ऐसी भी एक स्त्री थी जो उसे प्यार करती थी और उसके प्रणय-सूत्र में आबद्ध हुई थी। हाण्ट की धर्मपत्नी बड़ी ही सुशील-स्वरूपवती और सदाचारिणी थी, वह उसके अत्याचार सहती पर धर्म से विचलित न होती। किन्तु पशु के लिये मानवता का कोई महत्व नहीं। हाण्ट की दृष्टि में वह तुच्छ थी, तुच्छ ही नहीं उपेक्षणीय भी थी। यह उपेक्षा यहाँ तक बढ़ी कि हाण्ट एक पड़ौस की दुराचारिणी स्त्री पर आसक्त हो गया और अपनी स्त्री को तरह-तरह से सताने लगा। इन चतुर्मुखी वेदनाओं ने उस भद्र महिला को रोग शय्या पर डाल दिया और वह आखिर कुछ दिन में घुल-घुल कर मर ही गई।
पत्नी की मृत्यु का हाण्ट को मक्खी मरने के बराबर भी दुख नहीं हुआ। अन्त्येष्टि के दूसरे ही दिन वह दुराचारिणी पड़ोसिन उसके घर की मालकिन बन कर आ गई। सब को यह कार्य बड़ा दुखद प्रतीत हुआ, पर किसी में साहस न था कि उससे कुछ कहता। हृदय से सब उसे बुरा कहते थे, पर जिह्वा में कुछ कहने का दम न था।
दूसरे विवाह को हुए एक महीना व्यतीत हो चुका है। पति-पत्नी एक ही शय्या पर लेटे हुए थे और अर्द्ध-निद्रा में अचेतन पड़े हुए थे। इसी समय बन्द खिड़की को थप-थपाने की सी आवाज हुई। दोनों ने समझा कोई कुत्ता, बिल्ली होगा और चुप पड़े रहे। जब बार-बार खड़-खड़ होने लगी तो कारण जानने की इच्छा हुई। हाण्ट अलसाया हुआ पड़ा था। उसने स्त्री से कहा- उठ देख तो कौन खिड़की को खड़खड़ा रहा है। स्त्री उठी और दरवाजा खोलकर बाहर देखा। जो दृश्य उसने देखा, उससे उसकी घिग्घी बँध गई और भयभीत होकर बेतरह चिल्लाने लगी।
‘क्या है? क्यों चिल्लाती है?’ हाण्ट ने चारपाई पर पड़े-पड़े ही कर्कश स्वर से पूछा। पत्नी के होशो-हवास गायब थे। वह आपे से बाहर हो रही थी। उसने घिघियाते हुये कहा- देखते नहीं आपकी पूर्व-पत्नी खड़ी हुई है। अब तो हाण्ट का पारा और चढ़ गया, उसने गरजते हुए कहा- ‘देखता हूँ तेरा सिर! गधों की तरह खड़ी खड़ी बक-बक कर रही है। चल हट उधर से, दरवाजा बन्द कर और सीधे से इधर चली आ। अब की बार कुछ बका तो मुँह कुचल दूँगा।’ दोनों तरफ से प्रताड़ित स्त्री भयभीत शावक की तरह पति के पास लौट आई। उसका कलेजा धकधका रहा था और पाँव पत्तों की तरह काँप रहे थे।
स्त्री का यह हाल देखकर पति का मन कुछ पसीजा। मामला क्या है, यह जानने के लिये वह उठा और दरवाजे पर पहुँचा। अब तो उसकी भी आँखें स्थिर रह गईं और माथा चकरा गया। सचमुच उसकी पूर्व स्त्री सामने खड़ी हुई थी, रत्ती भर भी तो कोई फर्क उसमें दिखाई नहीं पड़ता था। लाल-लाल अंगारे की आँखें उसको जल रही थीं, मानो दो जलती हुई लौह-शलाकाएं उसे भस्म करने के लिये लपलपा रही हैं। जिस हाण्ट ने कभी यह नहीं जाना था कि भय किस चिड़िया का नाम है, वह आज चूहे की तरह सकपका रहा था। वह अधिक देर इस स्थिति में खड़ा न रह सका और एक चिंघाड़ मारता हुआ बेहोश हो गया।
हो हल्ला सुनकर पड़ौसी इकट्ठे हो गये। उसे उठाकर बिस्तर पर डाला गया और दवा-दारु की गई। इस पर भी उसकी दशा में कुछ अन्तर नहीं आया। पूरे पाँच महीने तक वह रोग-शय्या पर पड़ा रहा। ‘ अरे यह तो मेरी ही स्त्री है। अरे प्रिय तू यहाँ क्यों?’ ऐसे शब्दों को वह दिन भर दुहराता और बड़बड़ाता रहता। सारे दिन उसकी आँखों में से आँसू और मुँह से हाय का प्रवाह जारी रहता। जैसे-जैसे दिन बीतते हाण्ट का हृदय बदलता गया।
पाँच महीने की बीमारी में उसका शरीर बिल्कुल घुल गया था और साथ ही हृदय का कषाय आँसुओं की राह बह कर निकल गया। अब वह पुराना पिशाच हाण्ट नहीं रहा था, वरन् दयालु और सदाचारी हाण्ट बन गया था। विपत्ति में एक ऐसी खूबी है, जो मनुष्य का हृदय पवित्र कर देती है। हाण्ट को भी प्रकृति के इस नियम ने बदल ही दिया। वह मरा नहीं, उसकी पतिव्रता पूर्व-पत्नी का रोष शान्त हो गया और उसे अभय-दान देकर वापिस लौट गई, हाण्ट अच्छा हो गया। अब उसके पुराने सारे स्वभाव जड़-मूल से नष्ट हो गये थे। अपनी नगरी का सर्वश्रेष्ठ नागरिक इस समय वही था। अब उसे लोग आदर के साथ पुकारते थे ‘त्राता हाण्ट’। सचमुच अब वह एक निस्वार्थ परोपकारी संत हो गया था, यह उसकी मृत पूर्व-पत्नी की ही कृपा थी।