Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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सतयुग की अंतर्दशा
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यह बात अनेक प्रमाणों से सिद्ध होती है कि संवत् 2000 में कलियुग को आरम्भ हुए 4400 वर्ष के करीब होते हैं। निर्णय सिन्धु में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में 4400 वर्ष समाप्त होने पर नया युग आरम्भ होगा।
चत्वार्पाब्द सहस्त्राणि चत्वार्याब्द शतानिच।
कलेर्यदागमष्यन्ति तदापूव युगाश्रिता॥
- निर्णय सिन्धु पूर्वार्द्ध
अर्थ- कलियुग के 4400 वर्ष चले जाने पर पहले युग के से अर्थात् द्वापर युग के से काम होने लगेंगे।
प्राचीन इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण मिल सकते हैं कि एक युग में दूसरे युग के अन्तर भी प्रचलित होते रहते हैं। सतयुग में हिरण्यकश्यप, त्रेता में रावण, द्वापर में कंस जैसे अधर्मी राजाओं के अनीति पूर्ण समय बहुत समय तक रहे हैं यद्यपि उन युगों का धर्म उत्तम था फिर भी बुरे लोगों की बाहुल्यता होने के कारण बुरा समय बढ़ने लगा। नियम है कि जैसे एक विंशोत्तरी दशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा बढ़ती हैं एवं एक योगिनी दशा में अन्य अर्न्तदशाएं आती रहती हैं वैसे ही एक युग के अंतर्गत अन्य युगों के समय भी आते रहते हैं। चन्द्रमा एक राशि पर सवा दो दिन रहता है परन्तु इतने ही समय में सवा दो दो घन्टे की अनेक लग्न राशियाँ व्यतीत हो जाती हैं। इसी प्रकार भले युगों में बुरे और बुरे युगों में अनेक युगों के अन्तर समयानुसार बढ़ते रहते हैं।
महाभारत शान्ति पूर्व 69-79 में युधिष्ठिर से कहा हैः-
कालोवा कारण राशो राजा वा काल कारणम्।
इति ते संशयोयाभूद् राजा कालस्य कारणम्॥
अर्थात्- हे युधिष्ठिर तुम ऐसी दुविधा मत करो कि समय के भले बुरे होने से राजा अच्छे बुरे होते हैं या राजा के कारण समय भला बुरा हो जाता है वास्तव में राजा ही समय ही कारण हैं। जैसा राजा होता है वैसा ही समय बदल जाता है।
राजा कृतयुग सृष्टा त्रेताया द्वापरस्यच।
युगस्यच चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥
कृतस्य कारणत् राजा स्वर्गमत्यन्त मश्रुते।
त्रेताया कारणत राजा स्वर्गंनात्यन्त मश्रुते॥
प्रवर्तनाद् द्वापरस्य यथा भाग मुपाश्रते।
कलेर्प्रवर्तना द्राजा पाप मत्यन्त मश्रुते॥
महाभारत शान्ति अ. 69
अर्थात्- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का निर्माण करने वाला राजा ही होता है। राजा चाहे जैसे युग उपस्थित कर सकता है, जिस राजा ने सतयुग का समय उपस्थित किया हो वह अत्यन्त स्वर्गन्तों पहुँचता है जिस राजा ने त्रेतायुग उपस्थित किया हो उसे साधारण स्वर्ग मिलता है। जिस राजा के आचरण से द्वापर युग उपस्थित हो वह जैसा करता है वैसा भोगता है परन्तु जिस राजा के कारण कलियुग के से आचरण होने लगे वह अत्यन्त पापी होता है।
उपरोक्त श्लोकों में यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि युगों की लम्बी काल गणना क्रम पूर्वक चलती रहती है तो भी बीच-बीच में राजा तथा जनता के सहयोग से अन्य युगों की अंतर्दशा भी उपस्थित होती रहती है। जो लोग काल गणना में भ्रम से फैली हुई रूढ़ि के अनुसार कलियुग के चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का मानते हैं और अभी सत्युग को दूर समझते हैं उन्हें जानना चाहिए कि ऐसा होने पर भी ‘निर्णय सिन्धु’ के प्रमाण से सम्वत् 2000 के बाद अच्छे युग की अंतर्दशा का आगमन होगा ओर बुरा समय व्यतीत होकर श्रेष्ठ काल की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।