Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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वास्तविक अहिंसा क्या है?
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(श्री महात्मा चिदानन्दजी सरस्वती)
किसी से अभिद्रोह न करना अहिंसा है। जब अभिद्रोह करना बुरा माना है तो मन, वाणी या शरीर से किसी को सताना या किसी की हत्या करना ही बुरा है। वेद ने विश्व प्रेम तथा विश्व भ्रातृभाव का विस्तार दिया है। चींटी से लेकर मनुष्य तक सब के अंतर्गत आत्मा का जब अपना ही स्वरूप मानने का आदेश है, तो फिर किसी को मारना, सताना नहीं होता, फिर अभिद्रोह करने की तो बात ही नहीं उठती।
अब प्रश्न यह उठता है कि वेद जो “यस्तुसर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति” अर्थात् सब प्राणियों में अपनी आत्मा समझने का विचार दिया है-उसी वेद में आततायी शत्रुओं को मारने, काटने के मन्त्र भी आते हैं। यह परस्पर विरोध क्यों? इसका उत्तर इतने में ही समझ लेना चाहिये कि वैदिक ऋषि इस जगत के व्यवहार को खूब जानते थे। उन्हें पता था कि इस प्राणी समूह में सात्विक, राजस तथा तामस सभी प्रकृति के जीव हैं। जो जीव इस जगत में किसी को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें दण्ड देने या मारने को शास्त्र इसलिये पुण्य मानता है कि उस दण्ड से जहाँ राष्ट्र में शाँति स्थापित होती है वहाँ उस प्राणी का भी भला होता है। जैसे डाकू है और वह रास्ते में जाने वाले यात्रियों को लूटता मारता है। यदि ऐसे पुरुष को पकड़ कर दण्ड दिया जावेगा तो एक तो उसे जेल (कारागार) में रखने से संसार में शाँति होगी, दूसरा कारागार में कष्टमयी यातनाओं के भोगने से उसका मन भी आगे से ऐसे कुकर्म करने के लिये उसके मन में भय उत्पन्न होगा। साथ ही इस प्रकार के दूसरे लोगों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा और वे भी अनुभव करेंगे कि यदि हमने भी डाका डाला तो हमें भी जेल या दूसरे दण्ड भोगने पड़ेंगे। इसी प्रकार-शेर, चीता, मगरमच्छ, साँप तथा दूसरे हानिकारक प्राणियों और जगत् की शाँति तथा जाति के नियमों के नाशक पुरुषों को मारना भी अहिंसा में शामिल किया गया हैं-हिंसा में नहीं।
यजुर्वेद के मन्त्र (“द्यौशान्तिरन्तरिक्ष ॐ शान्ति”) में शान्ति प्राप्ति की प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें सूर्य, चान्द, पृथ्वी, जल, भूमि आदि सब शान्ति दें-तो वहीं यह वाक्य भी आता है कि “शान्तिरेव शान्तिः” अर्थात् हे परमेश्वर! वह शान्ति भी हमारे लिये शान्ति का कारण हो। इसका तात्पर्य यह है कि जिस शान्ति के रखने से परिणाम में अशान्ति उत्पन्न होती है वह शान्ति हमें नहीं चाहिये। इस बात को यदि हम विस्तार से समझना चाहें तो इस तरह समझें कि कोई दुष्ट हमारे घर में आकर हमारा सामान उठाता है, या हमारी बहू बेटियों को कुदृष्टि से देखता है, या हमें मार्ग में सताता है और हम उसे इसलिये कुछ नहीं कहते कि इसे पकड़ने या मारने से अशान्ति होगी, इसलिये शान्ति रखनी चाहिये, तो वेद ऐसी निष्क्रिय शान्ति के विरुद्ध है। वेद कहता है कि यह शान्ति तो सदा के लिये अशान्ति उत्पन्न करने वाली होगी। यदि पापी को दण्ड दिया गया तब तो सदा के लिये शान्ति रहेगी। दुष्टों को दण्ड देना ही स्थायी शान्ति की स्थापना है। इसीलिये यह प्रार्थना है कि हमारी ‘शान्ति’ ‘शान्तिकारिणी’ हो।
साराँश यह है कि आत्मरक्षा (स्द्गद्यद्ध ष्ठद्गद्धद्गठ्ठष्द्ग) में की गई हिंसा ‘अहिंसा’ है। उस अवस्था में हानिकर पशु, प्राणी या मनुष्य को मारना अथवा दण्ड देना पाप नहीं। इस भाव को सूक्ष्म दृष्टि से विचारने से यह स्पष्ट हो जाता है जहाँ वेद सबसे प्रेम और मित्र दृष्टि से देखने की आज्ञा देता है, वहाँ दुष्टों तथा हानिकर पुरुषों को ताड़ने, मारने और दण्ड देने की भी आज्ञा देता है। वेद के यह वाक्य परस्पर विरोधी नहीं, प्रत्युत यह जगत में स्थायी शान्ति स्थापना का निश्चित नियम है। इसी भाव को न जानने से आर्य जाति, जो कि वीर और लड़ाकू जाति थी, जिसकी शक्ति से शत्रु थर थर काँपते थे, जिसका नाम सुनकर दुष्टों के हृदय धड़कने लग पड़ते थे, आज वह “दब्बू” डरपोक सी बनी हुई है। साधारण से साधारण पुरुष भी इसे दबा लेने का साहस कर सकता है।
आर्यों के धर्मशास्त्रों में आत्म रक्षा (Self Defence) के लिये दुष्टों को मारने के निमित्त बहुत से प्रमाण और दृष्टान्त मिलते हैं। जैसे कि यजुर्वेद 1 अध्याय के 8 वें मन्त्र में लिखा है, कि-
धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामः॥
अर्थात् - हे प्रभो! जे दूसरों की हिंसा करता है उसे आप नाश करें और उसको मारें! दण्ड दें!! जो हमको वध करता है उसका नाश कर!!! और जिसका हम विनाश करना चाहते हैं, उसको धूलि में मिला! पुनः इसी वेद के 11वें अध्याय के 80वें मन्त्र में लिखा है, कि
योऽस्भ्यमरातीयाद्यश्चनो द्वेषते जनः।
निन्दाद्योऽस्मान् धिप्साच्च सर्वतं भस्मसा कुरु॥
अर्थात्-जो मनुष्य हमें लूटता है, हमारे से द्वेष करता है, जो हमारी निन्दा करता है या जो हमारी हिंसा करना चाहता है, उसे तुम “भस्मसा कुरु” मार कर भस्म करो।
बि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यः त योऽस्माडभिदासत्यधरं गमया तमः।
यजुः 8। 44॥
अर्थात्-हे परमेश्वर्य वाले इन्द्र! हमारे शत्रुओं को मारो। जो हमारे ऊपर चढ़ाई करते हैं उन्हें नीचा दिखा। जो हमें दास (गुलाम) बनाना चाहता है उसे नीचे अन्धेरे में फेंक दे।
प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्त
रक्षो निष्टप्ता अरातयः। उर्वन्तरिक्षमन्वेमि॥
यजुः 1। 7॥
विघ्नकारी दुष्ट स्वभाव के पुरुषों, राक्षसों और लुटेरों को जला दो! अदानशील कंजूसों, पर द्रव्योपहारी निर्दयी पुरुषों को ठीक ठीक जाँच कर संतापित करना चाहिए। विघ्नकारी दुष्ट शत्रु पुरुष खूब तप्त हों। और इस प्रकार राष्ट्र को दुष्ट विघ्नकारियों से रहित करके विस्तृत महान् अन्तरिक्ष प्रदेश को भी अपने वश में करें तथा दुष्टों का सदा नाश करें।
ये रूपाणि प्रतिमुज्जमाना असुरा सन्तः स्वधयाचरन्ति
परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात प्रणुदात्यस्मात्।
यजुः 2। 30॥
अर्थात्- जो असुर-दुष्ट अनेक धोखे से रूप बनाकर, हमारे पदार्थों को खाते या उड़ाते हैं। जो हमारे पर बाहर या भीतर से आक्रमण करते हैं, ऐसे स्वदेशी या परदेशी दुष्टों को हे वीर तुम दूर भगा दो।
अपेतो यन्तु पणयो असुम्ना देवपीयवः॥
यजुः 35। 1
दुःखदायी, देवों की हिंसा करने वाले दुष्टों को भगा दो।
नीचैःपद्यन्तामधरे भवंतु ये नः सूरिं मधवानंपृतन्यान
क्षिणामि ब्रह्मणामित्रानुन्नयामि स्वानहम्॥
अथर्ववेद 3। 19। 3॥
अर्थात्- जो भले पुरुषों पर (खामखा) आक्रमण करते हैं, वे नीचे गिरें और नीचे हों। उन शत्रुओं को मैं ज्ञान शक्ति की सहायता से नाश करता हूँ और अपने साथियों को ऊपर उठाता हूँ।
यो नः सोम सुशंसिनी दुःशस आदिदेशति।
वजेणास्य मुखे जहि स संपष्टो अपायति॥
अथर्ववेद 6। 6। 2॥
अर्थात्-जो दुष्ट, सज्जनों को सताता है, हम हथियार से उसके मुख को तोड़ दें, जिससे पिटा हुआ वह दुष्ट भाग जावे।
यो नः सोमाभिदासति सनाभिर्यश्च निष्टयः।
अप तस्यबलं तिर महीवद्यौर्वधात्मना॥
अथर्ववेद 6। 6। 3॥
अर्थात्- जो कोई हमें तंग करता या दास बनाता है, चाहे वह ‘सनाभि-अपना है’ चाहे निष्ट्य-बेगाना-उसके बल को तोड़ दो और उसे मार भगा दो।
वेद के इन मन्त्रों से स्पष्ट है कि जो राष्ट्र को हानि पहुँचाता अथवा निरपराधी पर आक्रमण करता या जो निर्दोष व्यक्तियों के धन को लूट, खसोटता तथा दूसरे प्रकार के अत्याचार करता है, ऐसे आततायी को मारना, ताड़ना या दण्ड देना पुण्य है। इसी प्रकार स्मृतिकारों ने भी लिखा है, कि :–
आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणाँनाँ च संगरे,
स्त्री विप्राभ्युपपत्तो चाघ्नन्धर्मेण न दुष्यति॥
मनु. 8। 34॥
अर्थात्- अपनी रक्षा (Self Defence) पर धन के लूटे जाने पर, स्त्रियों और ब्राह्मणों पर संकट आने पर, दुष्टों को मारने वाला दोषी नहीं होता। शास्त्रों ने आततायी को मारने में कोई दोष माना ही नहीं।
नाततायी वधे दोषी हतुर्भवति कश्चन,
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति॥
मनु. 8। 351॥
अर्थात्- सामने या छिप कर मारने वाला जो आततायी है, उसके मार डालने में कोई दोष नहीं, क्योंकि मन्यु (क्रोध) उस मन्यु (क्रोध) को प्राप्त होता है अर्थात् दुष्ट ने निरपराधी को मारने के लिये जो क्रोध किया है, अपनी रक्षा में वही क्रोध उस दुष्ट के क्रोध से लड़ता है। मन्युस्तं मन्युमृच्छति, एक मुहावरा है, जिसे अंग्रेजी में (Tit for Tat) कहते हैं। इसी प्रकार आततायी को बिना सोचे समझे मार देने की आज्ञा भी स्मृति में है। यथा-
“अततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्”
मनु. 8। 359॥
धर्म शास्त्रकारों ने छः आततायी माने हैं।
अग्निदो गदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदाररश्चैवष्डेते ह्ततायिनः॥
मनु. 8। 350॥
जो आग लगाने आया हो, जो विष देकर मारना चाहता हो, जो हाथ में शस्त्र लेकर मारने आया हो, जो लूटने आया हो, जो भूमि और स्त्री को हरने आया हो, ये छः आततायी होते हैं, इनको बिना विचारे मार देना चाहिये।
उपरोक्त वेद और शास्त्रों के प्रमाण आततायी को मारने का आदेश करते हैं। इन प्रमाणों की विद्यमानता में यदि कोई आततायी को मारने में हिंसा समझता है, तो यह उसकी आत्मिक निर्बलता और नीतिहीनता है।