Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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संगीत विश्व का प्राण है।
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संगीत का मनुष्य जीवन को सरस बनाने में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। यदि संगीत का अस्तित्व मिट जाए तो दुनिया बड़ी ही नीरस, रूखी, और कर्कश प्रतीत होने लगेगी। साधारण पशु की अपेक्षा मनुष्य को जो आनन्दमयी स्थितियाँ प्राप्त हैं उनमें संगीत, साहित्य और कला का बहुत बड़ा भाग है।
जड़ पदार्थों में गति उत्पन्न करने के लिए गर्मी का कार्य प्रधान है। अन्य तत्वों से भी गति का संचार होता है परन्तु प्रधानता अग्नि तत्व की ही है। इसी प्रकार चैतन्य तत्वों में जो हलचलें होती हैं उसके कारण यद्यपि अन्य भी हैं पर संगीत की उनमें प्रधानता है। प्राणियों के अन्दर जो चैतन्य तत्व है वह संगीत के द्वारा गति प्राप्ति करता है, आगे बढ़ता है, विकसित होता है।
वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि शून्य सृष्टि की निराकार स्थिति जहाँ है वहाँ से एक प्रकार का शब्द उत्पन्न होता है यह शब्द ऐसा है जैसे कि थाली में एक हलकी चोट मार दी जाए तो वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है। ऐसी झंकृतियाँ पानी की लहरों की भाँति बार बार अदृश्य अन्तराल में से उठती हैं। उनकी झंकृतियों के आघातों से इलेक्ट्रॉन परमाणु (विद्युत घटकों) में गति उत्पन्न होती है और वे अपनी धुरी पर उसी प्रकार घूमने लगते हैं जैसे कि सृष्टि के बड़े बड़े ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी आदि अपनी अपनी धुरी पर बड़ी तीव्र गति से घूम रहे हैं। इलेक्ट्रॉन परमाणुओं में गति उत्पन्न होने से दुनिया का सारा काम चलने लगता है। घड़ी की चाबी का पुर्जा चलने से उसके अन्य पुर्जे भी चलने लगते हैं इसी प्रकार इलेक्ट्रॉन कणों में हरकत होने से संसार की समस्त दृश्य अदृश्य क्रियाएं होने लगती हैं।
इस वैज्ञानिक खोज से प्रतीत होता है कि अदृश्य झंकृति के संगीतमय कंपन की प्रेरणा से ही समस्त सृष्टि का काम चल रहा है। यदि यह संगीत बन्द हो जाए तो प्रलय में तनिक भी विलम्ब न समझना चाहिए। संगीत द्वारा सृष्टि संचालन के उपरोक्त सिद्धान्त को आधुनिक वैज्ञानिकों ने ही ढूँढ़ निकाला है ऐसी बात नहीं है, भारतीय तत्वदर्शी आचार्य इन सब बातों को चिर प्राचीनकाल से अनुभव करते आ रहे हैं। योग की दिव्य दृष्टि द्वारा उन्होंने ढूँढ़ा कि सृष्टि को कौन चलाता है? उन्हें मालूम हुआ कि पंच तत्वों से ऊपर की भूमिका में एक घंटा नाद के समान झंकृति हो रहा है उसके कम्पनों की प्रेरणा से विश्व में गतिविधि जारी है। पंच तत्व जड़ हैं, इसलिए वे स्वेच्छापूर्वक निरंतर ऐसी प्रेरक गति अविचल रूप से सदैव जारी नहीं रख सकते अतएव यह कार्य किसी चैतन्य और नित्य शक्ति का होना चाहिए। गुण के अनुसार नाम रखा जाता है। जैसे जिसमें शूर वीरता होती है उसे ‘बहादुर’ जो अंटशंट बकता है उसे ‘पागल’ जो चिकित्सा करता है उसे ‘वैद्य’ कहते हैं उसी प्रकार उस संचालक, चैतन्य, नित्य, ईश्वर सत्ता का नामकरण करने के लिए भी ऋषियों को उसके गुण का आश्रय लेना पड़ा। घड़ियाल में चोट मार देने के बाद जो बहुत देर तक झंकृति होती है उस झंकृति का उच्चारण करीब करीब “ ओं - - -म्” जैसा होता है। सृष्टि संचालक शब्द भी इसी प्रकार का है इसलिए उसका नाम ॐ रखा गया। ‘ॐ’ अक्षर का प्राचीन कालिक रूप " स्वास्तिक था। अब उसकी बनावट में सुधार हो जाने के कारण ‘"‘ को ‘ॐ’ लिखा जाने लगा है। योगाभ्यास में कान बन्द करके दिव्य कर्णेन्द्रिय से ‘अनहद नाद’ सुनने की जो साधना है उसका तात्पर्य अपनी चेतना को सूक्ष्म परमात्म तत्व के निकटवर्ती प्रदेश तक पहुँचा देना है।
भौतिक सृष्टि का सारा खेल संगीत की शक्तिशाली झंकृतियों के आधार पर चल रहा है। चैतन्य सृष्टि की साकारिता भी संगीत के आधार पर है। मस्तिष्क के विद्युत कोषों में से प्रति सैकिण्ड करीब 30 या 31 विचार तरंगें निकलती हैं। सिनेमा के फिल्म में एक सैकिण्ड में करीब सोलह चित्र आँखों के आगे से निकल जाते हैं आँखें उन चित्रों की पृथकता को इतनी तेजी से देखने में असमर्थ रहती हैं इसलिए ऐसा भ्रम होने लगता है कि एक ही तस्वीर चल फिर रही है, वास्तव में होता यह है कि एक तस्वीर जरा सी हरकत करती दीखती है उतनी ही देर में उसके सैकड़ों चित्र आँखों के आगे से निकल जाते हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क में से भी प्रति सैकिण्ड करीब 30-31 एक प्रकार की तरंगें निकलती हैं इनके सम्मिलन से जो एक बहुत बड़ा समूह बनता है उसे ‘विचार’ कहते हैं। मस्तिष्क के विद्युत कोषों का तरंगित होना भी एक सूक्ष्म संगीत के ऊपर निर्भर है। प्राण वायु सहस्रार कमल से जाकर टकराती है जिससे ॐ की झंकृति से मिलता जुलता एक दूसरा शब्द उत्पन्न होता है। ऋषियों ने उसे ‘सोऽहम्’ ध्वनि कहा है। यही अजपा जप है। ब्रह्माण्ड में स्थिर सहस्रदल कमल से जाकर प्राण वायु न टकरावे और यह ‘सोऽहम्’ ध्वनि न हो तो मस्तिष्क की चेतना का स्नायविक विद्युत शक्ति का अन्त हो जाएगा और क्षण भर के अन्दर मनुष्य की मृत्यु हो जायेगी।
योगी लोग जानते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढांचा-सितार के ढांचे से बिलकुल मिलता जुलता है। भगवती सरस्वती के हाथ में वीणा का होना एक आध्यात्मिक अर्थ रखता है वह अर्थ यह है कि सद्विवेक का सरस्वती का-प्राकट्य सितार की आकृति के बने हुए सूक्ष्म शरीर द्वारा होता है। मेरु दंड में इडा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हुए हैं। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में यह तार बँधे हुए हैं। षट् चक्र इस सितार के वाद्य स्थान हैं। इनमें से विभिन्न प्रकार की झंकार हर घड़ी निकलती है। प्राण विद्या के सूक्ष्मदर्शी आचार्य बतलाते हैं कि गुदा और अंडकोष के बीच मूलाधार चक्र (क्कद्गद्यक्द्बष् क्कद्यद्गफ्ह्वह्य) में से “लं” की ध्वनि, पेडू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र (॥ब्श्चशद्दड्डह्यह्लह्द्बष् क्कद्यद्गफ्ह्वह्य) में से “बं” की ध्वनि, नाभि स्थान के मणिपूर चक्र (श्वह्द्बद्दड्डह्यह्लह्द्बष् क्कद्यद्गफ्ह्वह्य) में से “र” की ध्वनि हृदय में स्थित अनाहत चक्र (ष्टड्डह्स्रद्बड्डष् क्कद्यद्गफ्ह्वह्य) में से “षं” की ध्वनि, कंठ स्थान के विशुद्धचक्र (ष्टड्डह्शह्लद्बस्र क्कद्यद्गफ्ह्वह्य) में से “हं” की ध्वनि तथा भूमध्य भाग के आज्ञाचक्र में से “ॐ” की ध्वनि निकलती है। इस प्रकार यह छः झँकृतियाँ अनवरत रूप से प्रतिक्षण तरंगित होती रहती हैं। स्थूल जगत में स, रे, ग, म, प, ध, नि, के स्वर वाद्य यन्त्रों पर बजते हैं। हमारे सूक्ष्म यन्त्र का सितार अपने तारों से अपनी भाषा में दूसरी ध्वनियाँ निकालता है। यह ध्वनियाँ आपस में एक दूसरे से टकराती हैं और मिलती हैं। इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अंतर्जगत संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है, इनके प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत के सूक्ष्म घटक गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता, रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कंठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है और फिर इन्हीं के आधार पर गुण कर्म स्वभाव का शारीरिक मानसिक स्थूल ढांचा दृष्टिगोचर होने लगता है। यह आध्यात्मिक संगीत हमारा पथ प्रदर्शक है, हमें नीचे ऊपर, आगे पीछे, जहाँ चाहता है, ले दौड़ता है।
घड़ी के पेण्डुलम की तरह हृदय की धड़कन अपना ताल ठेका अलग ही बजाती है। लप, डप, का क्रम तारवर्की की गर, गट्ट की समता करता है। इस तारवर्की से नस नस का पुर्जे पुर्जे का संचालन होता है। डॉक्टर लोग स्टेस्थेस्कोप यन्त्र लगाकर इस तारवर्की के संगीत की परीक्षा करते हैं कि कहीं यह संगीत बेसुरा तो नहीं हो रहा है वे जानते हैं कि जरा सा बेसुरापन आते ही नाना प्रकार के रोगों का उपद्रव उठ खड़ा होगा। चतुर संगीतज्ञ की आँखों से पट्टी बाँधकर सितार सुनाया जाए तो वह उसके बेसुरेपन को सुनकर यह बता देगा कि इस बाजे के अमुक तार में अमुक प्रकार की खराबी है। इसी प्रकार से हृदय की धड़कन, या नाडी की धड़कन का अनुभव करके उसके बेसुरेपन के आधार पर चिकित्सक लोग यह बताते हैं कि शरीर के किस पुर्जे में क्या खराबी आ गई है, क्या रोग हो गया है।
अदृश्य जगत की सूक्ष्म कार्यप्रणाली पर जिधर भी हम दृष्टि डालते हैं उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से दशों दिशाएं झंकृत हो रही हैं, हर तरफ स्वर लहरी गूँज रही है। हृषीकेश का पाँचजन्य, शंकर का डमरू, भगवान कृष्ण की मधुर मुरली, सरस्वती की वीणा का सत्य, शिव और सुन्दर संगीत निनादित हो रहा है और उसकी स्वर लहरी पर विमुग्ध होकर शिव की जड़ चैतन्य सत्ता का प्रत्येक परमाणु नृत्य कर रहा है। प्रकृति और पुरुष की रास लीला का यह नृत्य वाद्य कितना सुन्दर कितना मोहक और कितना मादक है?
निस्संदेह विश्व संगीतमय है। संगीत ही इसकी प्रगति, प्रेरणा और प्राण शक्ति है। यह तत्व इतना महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है कि इसके उपयोग से हम जीवन और मृत्यु, अमृत और विष जैसे परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।
(शेष अगले अंक में)