Magazine - Year 1944 - Version 2
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पुण्य-सहयोग
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जीवन को आत्मोन्नति में लगाना चाहिए साथ ही परमार्थ परोपकार के लिए प्रयत्न करना चाहिए। शरीर की भूख बुझाने के लिए धन, संपत्ति का,सुख सामग्री का प्राप्त करना आवश्यक है, इसी प्रकार आत्मा की भूख बुझाने के लिए पुण्य, परोपकार, धर्म, दया, दान आदि कार्यों का करना उचित है। हर मनुष्य दोनों प्रकार की अपनी समझ और परिस्थितियों के अनुसार प्रयत्न करता है।
परन्तु सब लोगों के लिए यह सुलझ नहीं है कि भौतिक सम्पदाओं की भाँति आत्मिक संपदाएं कमाने में दिलचस्पी के साथ जुट सकें। बहुत से आदमी ऐसी परिस्थितियों में पड़ें हुए हैं कि उन्हें करीब करीब सारा समय अपनी आर्थिक और निजी समस्याएं सुलझाने में लगा रहना पड़ता है। अपनी नौकरी या व्यापार में इतनी शक्ति उन्हें खर्च करनी पड़ती है कि सारा महत्वपूर्ण समय उसी में चला जाता है जो थोड़े बहुत क्षण बचते हैं वे थकान के होते हैं उस थकी हुई दशा में परमार्थ का कुछ महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकता। सेवा, परोपकार आदि कार्यों के लिए एक विशेष प्रकार की योग्यता भी आवश्यक होती है जो कि सब किसी में नहीं पाई जाती। यदि किसी स्थान पर बीमारी फैले तो उसे निवारण करने के लिए एक कुशल वैद्य जितना काम कर सकता है उतना कार्य चित्रकार द्वारा नहीं हो सकता, यदि नदी में कुछ आदमी डूब रहे हों तो उसे निकालने के लिए एक मल्लाह जितना कार्य कर सकता है उतना तैरने से अनभिज्ञ डॉक्टर साहब द्वारा नहीं हो सकता। धर्म चर्चा जितनी पंडित जी कर सकते हैं उतनी लाला जी से नहीं हो सकती। बदमाशों का मुँह तोड़ने में एक शूरवीर जितना समर्थ है उतना काम मुंशी जी से नहीं हो सकता। वकील के काम को लुहार और लुहार के काम को वकील ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। इसी प्रकार सच्ची सेवा और सच्चा परोपकार कर सकने की स्थिति में हर मनुष्य नहीं होता।
इस कठिनाई के होते हुए भी एक मार्ग ऐसा है जिसके द्वारा हर मनुष्य हर प्रकार की योग्यताएं अपने लिए सुलभ कर सकता है और ऊँची से ऊँची योग्यताओं का बढ़िया से बढ़िया फल पा सकता है। यह मार्ग है “परिश्रम का बदलाव”। जिस मनुष्य में जो योग्यता है वह अपनी योग्यता से दूसरे का काम करे और दूसरा उसका काम कर दे। जैसे आप कानूनी दाव पेंच नहीं जानते वकालत में आपका ज्ञान नहीं है तो अपनी शक्ति और सामर्थ्य मूल्य -पैसा वकील साहब को दे दीजिए बदले में वकील साहब योग्यता और काम आपको दे देंगे। इस प्रकार कानूनी योग्यता न होते हुए भी आप आसानी से कानून सम्बन्धी बड़े से बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं। यदि वकील से सहयोग न करके स्वयं खुद ही आप अपने पैरों पर खड़े होना चाहते तो कई वर्ष कानूनी ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त तब कहीं बातें समझने के योग्य होते जितनी कि वकील ने जरा सी देर में समझा दी। इसी प्रकार हलवाई को पैसा देकर मिठाई तुरंत ही आसानी से प्राप्त कर सकते हैं किन्तु यदि स्वयं मिठाई बनाने बैठे तो उसके लिए बहुत समय तक शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता है तब कहीं अच्छी मिठाई मिल सकती है। कपड़ा, मकान, भोजन, सवारी, मनोरंजन आदि को स्वयं निर्माण करना हर आदमी के लिए सुलभ नहीं है पर यह सुलभ है कि बदलाव के सिद्धान्त के अनुसार उन वस्तुओं को बिना किसी कठिनाई के मनोवाँछित रूप से प्राप्त कर ले।
पैसा- धातु का टुकड़ा मात्र नहीं है। वह मनुष्य की योग्यता, सामर्थ्य परिश्रम जैसी सूक्ष्म शक्तियों का स्थूल रूप है। एक आदमी आठ घंटे परिश्रम कर के एक रुपया कमाता है। यह एक रुपया और कुछ नहीं उसके एक दिन के समय और श्रम का स्थूल रूप है। यदि वह इस एक रुपये को किसी वैद्य को देता है और कहता है इसके बदले में आप अपना समय दे दीजिए और समय को बीमार लोगों की निस्वार्थ सेवा में लगा दीजिए वैद्य इस प्रस्ताव पर सहमत हो जाता है और मजदूर का एक रुपया अपने लिए रख लेता है और बदले में अपना एक दिन बीमारों की चिकित्सा में लगा देता है तो यह वैद्य द्वारा बीमारों की जो सेवा हुई है उसके फल का अधिकारी वह मजदूर है जिसने दिन भर मेहनत करके एक रुपया कमाया और उसके बदले में वैद्य की योग्यता लेकर बीमारों की सेवा की।
जो व्यक्ति धन उपार्जन में दिलचस्पी लेते हैं जिन्हें जीवन भर कार्य करते रहने के कारण उसी क्षेत्र में योग्यता प्राप्त है वे अपना नियत कार्य करते हुए भी धर्म, पुण्य, सेवा, परोपकार का फल बदलाव का सिद्धान्त प्रयोग करके आसानी से प्राप्त कर सकते हैं अपने समय का मूल्य-पैसा-वे किसी कार्य में लगाते हैं, कार्यकर्ताओं को भोजन देते हैं, उस कार्य के उपयुक्त साधन जुटाने की व्यवस्था करते हैं यह सब उनके पैसे की अथवा यों कहिए कि समय एवं शक्ति की ही तो करामात है। मान लीजिए कि आप एक पाठशाला खुलवाते हैं उसमें स्वयं अध्यापक का और चपरासी आदि का काम नहीं करते वरन् अपने पैसे से अध्यापक और चपरासी नियुक्त कर देते हैं तो भी वास्तव में उन अध्यापक और चपरासी का काम आप स्वयं ही कर रहे हैं। यदि उन दोनों को वेतन न मिलता तो भला वे किस प्रकार उस कार्य को करते? वेतन देने के अर्थ हैं, स्वयं कार्य करना-उस कार्य के पुण्य फल को स्वयं प्राप्त करना।
हर चीज का अपना अपना महत्व है।एक लोक सेवी मनुष्य धन कमाने में पूरा भोंदू हो सकता है, एक व्यापारी ज्ञान के प्रसार में अयोग्य ठहर सकता है, परन्तु वे दोनों जब अपनी योग्यताओं का बदलाव करते हैं तो वैसा ही आश्चर्यजनक फल उत्पन्न होता है जैसा कि ताँबे और जस्ते के मिलने से विद्युत प्रवाह बहने का कार्य होने लगता है। राणा प्रताप जब वन में भूखे प्यासे निराश घूम रहे थे तब उनके सामने चारों ओर अँधेरा था, एक दो बहादुर सेनापतियों का सहयोग उस दशा में उन्हें मिल जाता तो भी वे उस समय शायद कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर सकते थे। परन्तु उसी समय एक वृद्ध पुरुष, लटे दुबले, कमर जिनकी झुक रही थी, लाठी टेकते टेकते राणा प्रताप के पास पहुँचते हैं और अपनी वह शक्ति उनके हवाले करते हैं जो पचासों सेनापतियों से अधिक थी। यह वृद्ध पुरुष स्वनामधन्य श्री भामाशाह थे उन्होंने अपनी जीवन भर की कमाई हुई सम्पाति राणा प्रताप को हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए लड़ने के निमित्त दे डाली। इस पैसे से राणा प्रताप का बल लाखों गुना बढ़ गया उन्होंने तुरन्त एक अच्छी सेना बना ली और एक नवीन आशा के साथ धर्म संग्राम आरम्भ कर दिया। क्या श्री भामाशाह का पुण्य,जीवन भर धर्म युद्ध करने वाले सेनापति से कम माना जाएगा। एक धर्मवीर अपने समय और सामर्थ्य को युद्ध में लगा कर धर्म की रक्षा करता है, एक दानवीर जीवन भर अपने समय और सामर्थ्य को लगाकर धन कमाता और उस धन को धर्म के लिए दे डालता है, दोनों का कार्य त्यागपूर्ण है, धर्ममय है, पुण्यमय है। दोनों ही एक स्थान पर खड़े हैं। दोनों ही प्रशंसनीय हैं दोनों ही पूज्य हैं। एक सोना था तो दूसरा सुगन्ध हुआ। सोना और सुगन्ध मिलकर एक दैवी तत्व कुन्दन बन जाता है।
जो शरीर और बुद्धि द्वारा जनता जनार्दन की, देश जाति की सेवा कर सकते हैं वे उसके द्वारा करें जो धन उपार्जन करते हैं वे अपने धन को उन सेवाभावियों के द्वारा सत्कार्यों के लिए लगावें, जिस प्रकार सिर और धड़ के सहयोग से जीवन कायम रहता है उसी प्रकार ज्ञान और धन के संयुक्त सम्मिलन द्वारा एक एक ब्रह्म शक्ति का आविर्भाव होता है। जो अचूक, अमोध और आश्चर्यजनक फल को उत्पन्न करती है और कर सकती है। ज्ञान और कर्म अलग अलग रह कर अकेले हैं, निर्बल हैं सूने हैं निरर्थक हैं। शरीर और जीव अलग अलग रहें तो उनका कुछ अस्तित्व नहीं, रज और वीर्य की पृथकता में कुछ विचित्रता नहीं किन्तु जब दो प्रचण्ड सत्ताओं का सम्मिलन होता है तो एक अद्भुत तत्व बनता है। धन और ज्ञान जब तक अलग अलग हैं तब तक दोनों ही निरर्थक हैं। परन्तु जब दोनों मिलते हैं और उनका सम्मिलित प्रयत्न सत्य के, धर्म के, बल के उत्थान में लगता है तो उसके द्वारा उस भूमि की उस क्षेत्र की काया पलट हो जाती है, उस भूमि पर स्वर्ग उतर आता है।
धनियों! आप ऋषियों का सहयोग करो, इससे आपका धन असंख्य गुना पुण्य लेकर चक्रवृद्धि ब्याज के रूप में वापिस लौटेगा। ऋषियों! आप धनियों का सहयोग करो इससे आपकी शक्ति अनेक गुनी बढ़ जाएगी और इससे आपकी परमार्थ भावनाओं को सफल बनाने का स्वर्ग सुयोग प्राप्त होगा। दोनों के सहयोग से आप दोनों के हिस्से में जितना पुण्य और यश आवेगा वह अलग अलग कार्य करने की अपेक्षा बहुत अधिक होगा। जड़ वस्तुएं एक और एक मिलकर दो होती हैं परन्तु चैतन्य प्राणी एक और मिल कर ग्यारह हो जाते है। ऋषि और धनी दोनों मिलकर काम करें तो थोड़े ही परिश्रम से नर नारायण की सच्ची पूजा का बहुत बड़ा अनुष्ठान होता है और हो सकता है। अखंड ज्योति इस एकता के लिए हर एक विवेकशील अन्तःकरण से प्रार्थना करती है।