Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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अमृत की प्राप्ति
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मनुष्य की सबसे प्रिय वस्तु उसका जीवन है। जब जीवन नष्ट होने की घड़ी आती है तो वह उसके बदले में बड़ी से बड़ी वस्तु देने को तैयार हो जाता है। चाहे कोई कैसी भी दीन हीन दशा में क्यों न हो परन्तु यदि मृत्यु का भय उसके सामने उपस्थित हो तो वह उससे बचने का उपाय करता है। कहते हैं कि लकड़हारा जंगल में लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहा था। उसके शिर में फोड़े थे, शरीर बीमार था, गट्ठा भारी था, इतनी लकड़ियाँ उसे दूर के गाँव में शिर पर रख कर बेचने के लिए ले जानी थी, बिना इसके गुजारा नहीं था। जब लकड़हारा गट्ठा बाँध चुका तो उसने एक लम्बी साँस ली और कहा-अच्छा था कि इस दुख की बजाय मुझे मौत आ जाती। लकड़हारे का इतना कहना था कि चट से मौत उसके सामने आकर खड़ी हो गई और कहने लगी कहो भाई! तुमने मुझे क्यों बुलाया है? जो कहो सो तुम्हारा काम करने को तैयार हूँ। मृत्यु को देखकर लकड़हारे के होश उड़ गये। उसने गिड़गिड़ाकर कहा- देवी जी, आप का आह्वान मैंने इसलिए किया है कि लकड़ियों का गट्ठा भारी है। यहाँ उठवाने वाला कोई है नहीं, इसलिए आप यह कृपा करें कि इस गट्ठे को उठाने में मुझे सहारा लगा दें, जिससे इसे शिर पर रखकर अपने गाँव को चला जाऊं? मृत्यु ने उसका गट्ठा उठवा दिया और मन-ही-मन मुस्कुराती हुई अन्तर्धान हो गई।
यह कथा एक महान सत्य पर थोड़ा सा प्रकाश डालती है। हर आदमी अपने जीवन से इतना प्यार करता है, जितना और किसी वस्तु से नहीं करता। इसीलिए मनुष्य अतीत काल से यह इच्छा करता चला आया है कि मैं अधिक दिन जीऊं, मृत्यु से बचा रहूँ, अमर जीवन का उपभोग करूं। इस इच्छा ने उससे एक ऐसे पदार्थ की कल्पना कराई है जिसे पीने से अमरता प्राप्त होती है। अमृत, सुधा, आवेहयात आदि अनेक नाम उस पदार्थ के दिये गये हैं। ऐसी कथाएं और किंवदन्तियाँ हर देश में प्रचलित हैं। जिनमें किसी अदृश्य देवताओं या महापुरुषों के अमर होने का वर्णन है। परन्तु प्रत्यक्षतः प्रमाणिक रूप से भी अभी तक एक भी ऐसा जीव कहीं भी नहीं देखा गया है जो अमर हो। इस संसार की रचना ऐसे परमाणुओं से हुई है जो हर घड़ी चलते, गति करते और परिवर्तित होते हैं। विनाश और विकास यह दोनों इसी प्रकार आपस में संबंधित हैं जैसे कि रात और दिन। यदि मृत्यु न हो तो नया जीवन भी न होगा। अमरता का अर्थ है- गति हीनता। गति का नाम ही जीवन है। यह जीवन यदि अचल हो जाय तभी उसका नष्ट न होना संभव है। जो वस्तु चलेगी वह घिसेगी, बिगड़ेगी और नष्ट होगी यह अवश्यम्भावी है। इसलिए जिस रूप में मनुष्य जीवन आज है उसमें कोई अमर नहीं हो सकता। राम, कृष्ण, ईसा, बुद्ध, मुहम्मद आदि अनेक योगी, यती, अवतार, देव-दूत इस पृथ्वी पर हुए हैं परन्तु कोई एक भी अमर न हो सका अन्ततः सब को मृत्यु की शरण लेनी पड़ी। अति प्राचीन काल से मनुष्य अमरता की इच्छा कर रहा है, कल्पनाओं, कथाओं की रचना उसने इस दिशा में बहुत कुछ की है परन्तु अभी तक न तो कोई अमर हो सका और न किसी को अमृत ही मिला।
तो क्या ‘अमृत’ नामक कोई पदार्थ संसार में नहीं है? हमारा कहना है कि- है और अवश्य है। अत्यंत उग्र आध्यात्म साधनाओं द्वारा हमारे पूजनीय ऋषियों ने उस अमृत की खोज की है, ढूँढ़ा है और ढूँढ़कर हमारे सामने उपस्थित कर दिया है। इसे सब कोई सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है और यह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है कि मैं अमर हूँ। अमर होने पर जो संतोष, शाँति, प्रसन्नता और साहस प्राप्त होने को था वह सब का सब इस ऋषि कल्प-अमृत द्वारा प्राप्त हो सकता है। इसका दूसरा नाम है- ‘ब्रह्म ज्ञान’।
ब्रह्म विद्या वह मानसिक शिक्षा है जो शरीर की सीमा से उठाकर मनुष्य को आत्मा भाव में ले जाती है। नश्वरता की सीमा से उठा अमरता की भूमिका में जाग्रत करती है। ब्रह्म विद्या यह सिखाती है कि मनुष्य शरीर नहीं वरन् आत्मा है। शरीर के साथ उसकी मृत्यु नहीं होती पीछे भी वह अनन्त काल तक जीवित रहता है। गीता ब्रह्म विद्या का महाग्रंथ है। उसमें मानव वाणी से कहा गया है कि- ‘तुम ऐसा विश्वास करो मैं आत्मा हूँ, अमर हूँ, अविनाशी हूँ, शरीर मरने से मेरी मृत्यु नहीं होती। देह एक प्रकार का कपड़ा है। जिसे समय-समय पर बदलने की आवश्यकता होती है। जैसे कपड़े को बदलने में दुख शोक नहीं किया जाता वैसे ही शरीर बदलने में भी नहीं होना चाहिए।’ आत्मा की अमरता के इस सिद्धाँत को साधारणतः सभी आदमी कहते और सुनते हैं, परन्तु जो कोई गंभीरतापूर्वक इस ओर ध्यान देता और दृढ़ता-पूर्वक यह विश्वास कर लेता है कि- ‘मैं वास्तव में आत्मा हूँ वास्तव में अविनाशी हूँ’ तो उसके समस्त दृष्टिकोण और कार्यक्रम में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो जाता है। उसे लगता है कि मैं प्रत्यक्षतः अमृत पिये हुए हूँ। मरने का, नष्ट होने का, जीवन से हाथ धोने का, उसके सामने कभी प्रश्न ही नहीं उठता, कपड़े के पुराने होने या फटने से कोई आदमी बेचैन नहीं होता। कपड़ा बदलते समय कोई मनुष्य न तो डरता है और न रोता पीटता है। क्यों? इसलिए कि उसका दृढ़ विश्वास है कि कपड़ा एक मामूली वस्तु है, यह फटती और बदलती जाती रहती है, कपड़ा फटने या बदलने से शरीर का कुछ अनिष्ट नहीं होता वरन् पुराने की अपेक्षा नया, मजबूत और सुन्दर कपड़ा मिल जाता है। शरीर और कपड़े बदलने के सिद्धान्त को जिस भली प्रकार पूर्ण विश्वास के साथ मनुष्य ने अपना लिया है यदि वह ठीक उसी प्रकार उतनी ही दृढ़ता, निष्ठा और गंभीरता के साथ मन में जमा ले तो निश्चय समझिये उसकी मनोभूमि ठीक वैसी ही हो जायेगी जैसी वास्तविक अमृत पीने वाले की हो सकती है। मृत्यु का डर जो कि मानव जीवन में सबसे बड़ा डर है, ब्रह्म विद्या के द्वारा आध्यात्म निष्ठा द्वारा मिट सकता है। और कोई उपाय ऐसा नहीं है जो इस कलेजे में काँटे की तरह सदा चुभते रहने वाले भय से छुटकारा दिला सके।
ब्रह्म विद्या- अमर आत्मा का विश्वास सचमुच भूलोक का अमृत है। इसे पान करने के उपराँत मनुष्य की दिव्य दृष्टि खुलती है। वह कल्पना करता है कि मैं अतीत काल से, सृष्टि के आरंभ से, एक अविचल जीवन जीता चला आ रहा हूँ। अब तक लाखों करोड़ों शरीर बदल चुका हूँ। पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, जलचर, थलचर, नभचरों के लाखों मृत शरीरों की कल्पना करता है और अंतःदृष्टि से देखता है कि ये इतने शरीर समूह मेरे द्वारा पिछले जन्मों में काम में लाये एवं त्यागे जा चुके हैं। उसकी कल्पना भविष्य की ओर भी दौड़ती है, अनेक नवीन, सुन्दर, ताजे, शक्ति सम्पन्न शरीर सुसज्जित रूप से सुरक्षित रखे हुए उसे दिखाई पड़ते हैं, जो निकट भविष्य में उसे पहनने हैं। यह कल्पना-यह धारणा- ब्रह्मविद्या के विद्यार्थी के मानस लोक में सदैव उठती, फैलती और पुष्ट होती रहती है। यह विचारधारा धीरे-धीरे निष्ठा और श्रद्धा का रूप धारण करती जाती है, जब पूर्ण रूप से समस्त श्रद्धा के साथ साधक यह विश्वास करता है कि यह वर्तमान जीवन मेरे महान अनन्त जीवन का एक छोटा सा परमाणु मात्र है तो उसके समस्त मृत्यु जन्य शोक की समाप्ति हो जाती है। उसे बिल्कुल ठीक वही आनन्द उपलब्ध होता है, जो किसी अमृत का घट पीने वाले को होना चाहिए।
जिस सुरलोक के अमृत की कल्पना की गई है उसका आरंभिक छोर कुछ आकर्षक मालूम होता है, परन्तु अंतिम छोर बहुत ही रूखा और कर्कश है। मुसलमानी धर्म ग्रंथों में एक कथा है कि- ख्वाजा खिजर की कृपा से सिकन्दर आवेहयात (अमृत) के चश्मे तक पहुँचा। सिकन्दर उस अमृत को पीने को ही था कि पास में बैठे हुए एक कौए ने चिल्लाकर कहा- ऐ बदनसीब! खुदा के लिए इस पानी को न पीना। सिकन्दर ने हैरान होकर पूछा- क्यों? कौए ने उत्तर दिया- मैंने एक बार बदनसीबी से इस पानी की एक बूँद पी ली। अब मैं बुड्ढा और कमजोर हूँ। साथी संगी सब मर गये पर मैं अकेला उनकी याद करता हुआ रात-दिन बैठा-बैठा रोया करता हूँ। अकेला भटकता हूँ, नये पैदा होने वाले बच्चों के उल्लास को देख-देखकर मन मसोस कर रहा जाता हूँ। जीने से मेरा दिल भर गया है, पर प्राण नहीं निकलते। सो ऐ बादशाह! अगर तुम भी इस पानी को पी लोगों तो तुम्हारा भी यही हाल होगा। सिकन्दर कुछ देर स्तब्ध खड़ा हुआ कौए की बातों पर गौर करता रहा और आवेहयात (अमृत) को बिना पिये ही उलटे पाँवों वापिस लौट आया।
यदि मनुष्य शरीर से अमर हो भी जाय तो यह बात उसके लिए अनन्तः दुख का कारण ही बनेगी। वह अमरता जो मनुष्य को संतोष और शाँति प्रदान करने की क्षमता रखती है- आध्यात्मिक अमरता ही है। ब्रह्मज्ञान का अमृत ऐसा अनुपम है जिसके आगे देवताओं वाला अमृत अत्यन्त तुच्छ है। ब्रह्म विद्या से मनुष्य को निर्भयता, स्वतंत्रता, प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता प्राप्त होती है। जीवन के दृष्टिकोण में एक ब्रह्म तेज भर जाता है, वह शारीरिक भोगों को, भौतिक वस्तुओं के परिग्रह को महत्व नहीं देता। वरन् आत्मा को ऊँचा उठाने वाले, जीवन को सरस, निर्मल एवं पवित्र बनाने वाले, हृदय को सन्तोष देने वाले कार्यों को महत्व देता है। उच्च, सात्विक और परमार्थिक कार्यों में उसकी रुचि होती है, उन्हीं में मन लगता है और उन्हीं में उसे रस आता है। ऐसे शुभ विचार और शुभ कर्म करने वाले मनुष्य को इसी जीवन में स्वर्ग है क्योंकि उसकी हर एक क्रिया स्वर्गीय होती है।
अमृत पीकर अमर होने वाले मनुष्य की चिन्ताएं और तृष्णाएं अधिक बढ़ेंगी क्योंकि जब सौ पचास वर्ष के जीवन के लिए मनुष्य इतने-इतने सरंजाम इकट्ठे करता है तो अमर जीवन के लिए वह असंख्य गुने सरंजाम जोड़ने और जमा करने की फिक्रें करेगा, और वे फिक्रें ही उसे खाने लगेंगी। इसके विपरीत ब्रह्मज्ञान का अमृत समस्त चिन्ता और तृष्णाओं को समाप्त कर देता है। मृत्यु और जीवन को एक ही जुए में जोत देता है दोनों का यह जोड़ा कितना भला मालूम पड़ता है? मृत्यु और जीवन को जो समान दृष्टि से देखता है वह धन्य है। शोक, मोह, चिन्ता, क्लेश, पश्चात्ताप, तृष्णा, पाप, आदि की छाया भी ऐसे मनुष्यों तक नहीं पहुँच पाती। ब्रह्मज्ञान का अमृत पीकर तृप्त हुए स्थिति प्रज्ञ ही वास्तव में अमर है। आध्यात्म ज्ञान की वह धारा जो आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाती हुई जीवन को उच्च एवं उत्तम बनाने की प्रेरणा करती है वास्तव में वही अमृत की निर्झरिणी है। पाठको! इस सुधा धारा का पान करो और अमृतत्व का आस्वादन करो।