
योग-मनुष्य के विकास का सर्वोत्तम मार्ग
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(डॉ. रामचरण महेंन्द्र, एम. ए. पी. एच. डी.)
भारतीय दर्शन के छः विभागों में योग हिन्दुओं की और भारत की विश्व को एक महान देन है। संसार की और शुष्क विचारधाराओं से यह भिन्न है क्योंकि यह क्रियात्मक या (प्रैक्टिकल) है। योग अपने आप में एक विज्ञान है। इसे हम चाहें तो पूर्वात्य मनोविज्ञान भी कह सकते हैं। भारतीय संस्कृति में रुचि रखने वाले योग को बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि यह आध्यात्मिक चमत्कारों से परिपूर्ण है। योग का प्रारम्भ महर्षि पतंजलि ने किया था। उनके अनुसार योग वह विद्या है जिससे मनुष्य अपने मन को पूर्ण वश में कर ईश्वरीय आत्मा में अपने आपको लय कर सकता है।
‘योग‘ शब्द का अर्थ है “मिलन” या जुड़ना’। दो बिछड़े हुए व्यक्तियों का मिलन भी कितना सुखद होता है। परस्पर एक दूसरे से जुड़कर हम दृढ़ और मजबूत बनते हैं। आन्तरिक आह्लाद का अनुभव करते हैं। हमारी आत्मा को सुख मिलता है। मनुष्य के अन्तस्थल में जो शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, सत्, चित्त, आनन्द, शिव-सुन्दर, अजर-अमर है, वह आत्मा ही हैं। इस आत्मा का जगत्पिता ईश्वर की आत्मा-विश्वात्मा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। योग-साधना द्वारा आत्मा का जब परमात्मा से मिलन होता है, तो बिछुड़ी हुई माता और छोटी स्तनपान करने वाली कन्या के मिलने से मन की जो दशा होती है, वही आनंददायक अनुभूति हमें प्राप्त होती है।
आत्मा से परमात्मा के मिलन की जो अनुभूति होती है, वह सर्वाधिक आनन्द और शाश्वत शाँति देने वाली है। भक्त ईश्वर की आराधना और ततः मिलन के द्वारा जो सुख प्राप्त करते हैं, वह अनिर्वचनीय है। एक उदाहरण लीजिए।
मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए बालि से भगवान् राम ने पूछा कि तुम स्वर्ग, मुक्ति या जो सद्गति चाहो मुझसे इसी समय प्राप्त कर-सकते हो तो बालि ने उत्तर दिया-
‘जेहि योनि जन्मों कर्मवश,
तँह राम-पद अनुरागऊँ।”
“हे भगवन्! मुझे स्वर्ग या मुक्ति नहीं चाहिए, मुझे तो यह वरदान दीजिए कि कर्मवश जहाँ जिस योनि में मेरा जन्म हो, उस जन्म में मुझे राम के चरणों का अनुराग (या भक्ति) प्राप्त होती रहे। मुझे अपनी अक्षय भक्ति दीजिए।”
यही भावनाएं प्रायः अन्य सभी योगियों को अपनी आत्मा को ईश्वर में लय कर देने से प्राप्त होती हैं। योग वह विद्या है जिसके द्वारा स्वर्ग और मुक्ति का सुख यहीं प्राप्त हो जाता है। अनेक साधक अपनी भौतिक सम्पदाओं में लात मारकर आत्मिक साधनाओं (योगासन, प्राणायाम, ध्यान, यम-नियम) में तल्लीन होते हैं, क्योंकि भौतिक सुख की अपेक्षा आत्मिक सुख को ही वे प्रधानता देते हैं। योगियों ने विश्वात्मा से मिलन के अपने अनुभव लेखबद्ध किए हैं। अतः योग का चमत्कार जानने और अनुभव करने के लिए यह आवश्यक है कि जिज्ञासु स्वाध्याय या आत्मवादियों, योगियों एवं विद्वानों के सत्संग द्वारा योग विद्या को भली प्रकार समझें। आजकल तो केवल आसन और प्राणायाम मात्र ही करना योग हो गया है। ये तो शरीर के स्वास्थ्य के लिए गौण योगिक साधन हैं, प्रधान तो मनोयोग और आत्मयोग हैं। योगशास्त्र के अध्ययन में पर्याप्त उत्साह, सद्गुरु की भक्ति और दीर्घकालीन अभ्यास-ये आवश्यकताएं योग साधना के लिए जरूरी हैं।
योग के कई अंग हैं जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और राजयोग। यम-नियम वे आधार हैं जिनके बिना कोई योग-मार्ग पर प्रवृत्त नहीं हो सकता। योगी श्री अरविंद ने आत्म-समर्पण पर बहुत बल दिया है।
योग साधना क्या है? मानव अन्तस्थल में जो शुद्ध-बुद्ध चैतन्य अमर सत्ता है,वही परमात्मा है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय को जीव कहते हैं। यह जीव आत्मा से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। इसे द्वैत भी कह सकते हैं, अद्वैत भी। अग्नि में लकड़ी जलने से धुआँ उत्पन्न होता है। धुएं को अग्नि से अलग कहा जा सकता है। पर अग्नि का ही अंग है, यह अद्वैत है। आत्मा अग्नि है और जीव धुआँ हैं। दोनों अलग भी हैं और एक भी। उपनिषदों में इसे वृक्ष पर बैठे हुए दो पक्षियों की उपमा दी गई है। गीता में इन दोनों का अस्तित्व स्वीकार करते हुए एक को क्षर (नाशवान्) एक को अक्षर (अविनाशी) कहा गया है।
भ्रम से, अज्ञान या माया से अथवा शैतान के जाना प्रलोभनों से दोनों की जीव और (परमात्मा) की एकता पृथकता में बदल जाती है। वहाँ दुख और शोक का कारण है। पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, सास-बहू में जब तक एकता रहती है, दोनों पक्ष आपस में प्रेम रखते हैं, एक दूसरे का हित चाहते हैं, सामंजस्य रखते हैं, तो घर में सुख रहता है। श्री वृद्धि होती है और सभी स्वर्ग का आनन्द लेते हैं। यही स्थिति मानव-जीवन की भी है। जहाँ मन और आत्मा का एकीकरण होता है, जहाँ जीव की इच्छा, रुचि एवं कार्य प्रणाली विश्वात्मा की इच्छा, रुचि, प्रणाली के अनुसार होती है, वहाँ अपार आनन्द का स्रोत उमड़ता रहता है, पर जहाँ दोनों में विरोध होता है, जहाँ नाना प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व चलते रहते हैं, वहाँ आत्मिक शांति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं।
मन और आत्मा का सम्बन्ध पति-पत्नि और पिता-पुत्र की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ है। इसलिए उन दोनों की एकता की और भी आवश्यकता है। दोनों का दृष्टिकोण एक होना चाहिए। दोनों की इच्छा, रुचि एवं कार्यप्रणाली एक होनी चाहिए। तभी जीवन में सच्ची शाँति के दर्शन हो सकते हैं। पर इस स्थिति को विरले ही प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार हमारे घर या परिवार में अनैक्य के कारण कलह, क्लेश और सन्तापों की भरमार है, वैसे ही आन्तरिक, आत्मिक एकता न होने से मनुष्य के मन क्षेत्र में घोर अशाँति मची रहती है। इस अव्यवस्था के सन्ताप से उसका अन्तःलोक दावानल की तरह जलता रहता है। मनुष्य के पास भौतिक सुख-साधन कितने ही क्यों न हों, उसके अन्तःकरण को तनिक भी शाँति उपलब्ध नहीं होती। अनेक धन-दौलत के स्वामी सेठ,पूँजीपति भाँति-भाँति की चिन्ताओं, आवेशों, और सन्तापों से घिरे रहते हैं। इससे प्रकट है कि धन-दौलत से कोई भी व्यक्ति जीवन का सच्चा और स्थाई आनन्द या सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
इसी प्रकार अनेक ऐसे भी व्यक्ति हैं, जिनके पास रुपया पैसा या अन्य भौतिक सम्पदाएं नहीं हैं, फिर भी वह खूब मस्त रहते हैं। सुख की नींद सोते हैं और अपने चारों ओर आनन्द देखते हैं। इससे प्रकट है कि धन-दौलत के या साधनों के न होने से सच्चे सुख में कोई कमी नहीं आती। अमीरों का भी दुखी रहना और गरीबों का भी सुखी होना इस बात का प्रमाण है कि सुख का वास्तविक स्थान बाहर नहीं है, बाहर की वस्तुओं में नहीं है।
मन और अन्तःकरण की एकता में, दोनों में मिलन में ही सुख है। इसी को योगिक शब्दावलि में आत्मा और परमात्मा का मिलन कह सकते हैं। इस मिलन का ही दूसरा नाम ‘योग‘ है। आत्मा और परमात्मा के मिलन से दोनों के योग से एक ऐसे आनन्द का आविर्भाव होता है, जिसकी तुलना संसार के अन्य किसी भी सुख से नहीं की जा सकती। इसी सुख को परमानन्द, जीवनमुक्ति, ब्रह्म-निर्वाह, आत्मोपलब्धि, प्रभुदर्शन आदि नामों से पुकारा जाता।
मनुष्य के मन का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है। वह आत्मा का ही एक उपकरण, औजार या यन्त्र है। आत्मा की कार्य-पद्धति को सुसंचालित करके चरितार्थ कर स्थूल रूप देने के लिए मन का अस्तित्व है। इसका वास्तविक कार्य यह है कि आत्मा की इच्छा एवं रुचि के अनुसार विचारधारा एवं कार्य-प्रणाली को अपनावे। इस उचित एवं स्वाभाविक मार्ग पर यदि मन की यात्रा चलती रहे, तो मानव प्राणी जीवन सच्चे सुख का रसास्वादन करता है। पर दुर्भाग्य की बात है कि आज हममें से अधिकाँश को वह स्थित उपलब्ध नहीं है। आत्मा सत् प्रधान है। उसकी इच्छा एवं रुचि सात्विकता की दिशा में होती है। जीवन की हर घड़ी सात्विकता में सराबोर हो, हर विचार और कार्य सात्विकता से परिपूर्ण हो, यह आत्मा की माँग है।
पर माया या अविद्या के कुचक्र में फँसकर वे दूसरी और चल देते हैं। रज और तम में उसकी प्रवृत्ति दौड़ती है। इस कार्य-विधि को निरन्तर प्रोत्साहन मिलने से वह इतनी प्रबल हो जाती है कि आत्मा की पुकार के स्थान पर मन की तृष्णा ही प्रधानता प्राप्त कर लेती है।
मन और अन्तःकरण के मेल अथवा एकता से ही आनन्द प्राप्त हो सकता है। इस मेल अथवा एकता को एवं उसकी कार्य-पद्धति को योग-साधना कहते हैं। यह योग-साधना प्रत्येक उच्च प्रवृत्तियों वाले साधक के जीवन का नित्य कर्म होना चाहिए। भारतीय संस्कृति के अनुसार सच्ची सुख-शाँति का आधार योग-साधना ही है। योग द्वारा साँसारिक संघर्षों से व्यथित मनुष्य अन्तर्मुखी होकर आत्मा के निकट बैठता है, तो उसे अमित शान्ति का अनुभव होता है।
उपर्युक्त पंक्तियों से भारतीय योग पद्धति की महत्ता पर कुछ प्रकाश पड़ता है योग पूर्वीय दृष्टिकोण का मनोविज्ञान है। इसके अनुसार मनुष्य को अपनी वासना को परमात्मा में लय कर देना और इस प्रकार ऊँचा उठना चाहिए। इसके विपरीत पाश्चात्य मनोविज्ञान यह कहता है कि वासना को खोल देना चाहिए। भारतीय मनोविज्ञान- यह योग पद्धति ही श्रेष्ठ है, क्योंकि इससे मनुष्य की रुचि और प्रवृत्ति ऊँची रहती है। सात्विकता, देवत्व को विकसित होने का प्रचुर अवसर मिलता है। योगसाधना का प्रथम लाभ तो यह होता है कि मन शान्त हो जाता है। अशाँत मन में योग का आधार नहीं हो जाता है। विचारों का तूफान आने पर भी योगी का मन स्थिर और अविचल बना रहता है। दूसरा लाभ एकाग्रता है। निरन्तर ध्यान और चिन्तन करने से एकाग्रता की वृद्धि होती है। आध्यात्मिक शक्तियाँ बढ़ती हैं। आजकल की पाश्चात्य मनोविज्ञान की प्रणालियाँ जैसे साइकोथैरेपी, मैस्मेरिज्म, थाटरीडिंग, क्लेरोंवेन्स आदि सभी योग द्वारा सम्भव हैं।
आज योग-विद्या के सही दृष्टिकोण को निखारने की अतीव आवश्यकता है। आसन और प्राणायाम मात्र ही करना आजकल योग हो गया है। पर वास्तविक महत्व आन्तरिक साधना का ही है। उस समय योगी मृगछाला इसलिए पहनते थे कि वह आसानी से मरे पड़े हुए मृगों से मिल जाती थी। आजकल बन्दूक की गोली से मरे हुए जानवर की खाल होती है, वह निन्दनीय है। अब चिमटे की आवश्यकता नहीं रह गई है। योगिराज अरविन्द, महात्मा गाँधी जी, स्वामी दयानन्दजी, स्वामी शिवानन्दजी आदि की तरह का सीधा साधा जीवन ही उपयुक्त है।