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Magazine - Year 1958 - Version 2

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मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये (Kavita)

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ये ठीक बात है कही नहीं प्रचार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

परोपकार - हीन व्यक्ति भूमि - हेतु भार है,

किसी बड़े विचारवान का बड़ा विचार है-

“कि जो परोपकारलीन है तथा उदार है,

वही महान है, बड़ा वही सभी प्रकार है।”

बड़े बनो, बनो न किन्तु भूमि-भार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

परोपकार के लिये शरीर त्याग चाव से,

गये अनेक वीर पार सृष्टि के बहाव से,

नदी न पार हो सकी तो क्या लगाव नाव से,

हुआ सदैव सृष्टि का विकास प्रेम-भाव से।

दया, उदारता, सहानुभूति, प्यार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

अनेक आज भी विहीन ज्ञान के प्रकाश से,

अनेक वस्त्र-भूमि-हीन दीखते हताश से,

अनेक भूख से वित्रस्त हैं अनेक प्यास से,

उठो, इन्हें अभी करो विमुक्त काल-प्रास से।

बनो सदा समर्थ ज्ञान के प्रसार के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

बुरा रहा न शत्रु का, न मित्र का भला रहा,

विकार हीन भाव से गृहस्थ को चला रहा,

परोपकार के लिये स्व-गात जो गला रहा,

कि यज्ञ-भाव से अखण्ड ज्योति जो जला रहा।

समस्त रिद्धि-सिद्धि हैं उसी उदास के लिये।

मनुष्य का शरीर है परोपकार के लिये॥

-रजेश

*समाप्त*

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