
कला और सामाजिक कल्याण
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(श्री शचीकान्त शर्मा)
मनुष्य जो कार्य करता है इसके दो भेद हैं। एक काम किसी आवश्यकता पूर्ति के लिए अथवा जीवन निर्वाह के लिए अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। दूसरी तरह का काम हम आनन्द प्राप्त करने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए जब एक छात्र परीक्षा में शामिल होने के लिए पुस्तकों का अध्ययन करता है तो वह काम एक प्रयोजन अथवा आवश्यकता की दृष्टि से किया जाता है। पर वही छात्र परीक्षा दे लेने पर छुट्टियों के समय उपन्यास या कहानी की पुस्तकें पढ़ता हैं तो वह पढ़ना भार स्वरूप अथवा थकावट पैदा करने वाले परिश्रम की तरह न होकर चित्त को प्रसन्न करने का साधन होता है।
मनुष्य ने शिकार द्वारा भोजन प्राप्त करने के लिए धनुष-बाण का आविष्कार किया तब वह एक प्रयोजन ही था। पर जब फुरसत के समय वह उसके तरह-तरह के प्रयोग दिखलाकर इष्टमित्रों का मनोरंजन करने लगा तब उसने कला रूप धारण कर लिया। इस प्रकार यह कह सकना बड़ा कठिन है कि वास्तव में प्रयोजन की सीमा कहाँ तक है और कला कहाँ से मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध से हम इतना ही कह सकते हैं कि अनेक बातों में प्रयोजन की पूर्ति के साथ ही आनन्द भी प्राप्त होता है। वास्तविक कला उसी समय आरम्भ होती है जब हम आवश्यकता का ध्यान न करके निष्प्रयोजन ही किसी प्रकार की रचना करने लगते हैं।
यहाँ यह प्रश्न स्वभाविक उत्पन्न होता है कि क्या कला के साथ प्रयोजन या आवश्यकता का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इसके लिए हमको यह निश्चय करना पड़ता है कि किसी कलाकार की रचना के परिणामस्वरूप समाज प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ता है या किसी बुरे भाव को ग्रहण करके पतन के गर्त में गिरता हैं? इसमें सन्देह नहीं कि समाज के कल्याण के सामने और किसी प्रश्न का महत्व नहीं रह सकता। इसलिए कोई कलाकार कैसी भी कुशलता दिखाये अगर उसके द्वारा समाज कल्याण के पथ पर स्थिर नहीं रह सकता तो उस कला से हमारा कोई प्रयोजन नहीं हम उसे प्रोत्साहन नहीं दे सकते।