
मानवता का आदर्श (Kavita)
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रज-कणों के रूप मानव!
उसी में उत्पत्ति, और समाप्ति जग के भूप मानव!
पंच तत्वों से बनी काया न कंचन-सी रहेगी,
सिद्ध होगा साम्य का कटु सत्य जीव अनूप मानव!
रज-कणों के रूप मानव!
मोह, माया, लोभ, लिप्सा में गया जीवन का आता,
खोल अंतर्चक्षु, मानव! बन न दादुर कूप, मानव!
रज-कणों के रूप मानव!
क्या हुआ यदि भाग्य है विपरीत, किसका दोष? अपना!
छाँह शीतल कल द्रुमों की, आज मरु की धूप, मानव!
रज-कणों के रूप मानव!
क्रोध, निद्रा, काम, चिन्ता में पुरुष! भूला डगर क्यों?
वासुदेवमयी धरा है, चर-अचर तद्रूप, मानव!
रज-कणों के रूप मानव!
ढूँढ़ता तू चर्च, मस्जिद, मन्दिरों में मूर्ख! किसको?
मूक पशुओं, दीन-दुखियों में ‘प्रकाशस्वरूप’ मानव!
रज-कणों के रूप मानव!
प्रार्थनाएँ हैं अनाथों की पुकारें श्रवण के हित,
झोंपड़े असहाय के हैं वन्दना के स्तूप मानव!
रज-कणों के रूप मानव!