
वेदान्त की सार्वभौमिकता तथा वैज्ञानिकता
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(स्वामी विवेकानन्दजी)
संसार में जितने प्रकार के धर्म हैं उनमें से प्रत्येक की श्रेष्ठता प्रतिपादन करने के लिए, उस धर्म के मानने वाले तरह-तरह की दलीलें पेश करते हैं। अभी थोड़े ही दिन पहले एक ईसाई विद्वान व्यारोज साहब ने इस बात को सिद्ध करने की बड़ी चेष्टा की थी कि “ईसाई धर्म ही एकमात्र सार्वभौम धर्म है।” पर मेरी निश्चित धारणा है कि ‘वेदान्त धर्म ही सार्वभौम धर्म हो सकता है। इस विचार की सचाई सिद्ध करने के लिए मेरी सबसे प्रमुख दलील यह है कि हमारे धर्म के अतिरिक्त संसार के जितने धर्म हैं वे अपने प्रवर्तकों (चलाने वालों) से जुड़े रहते हैं। उन प्रवर्तकों के वाक्य ही उन धर्मावलम्बियों के लिए प्रमाण स्वरूप हैं और उसके जीवन की ऐतिहासिकता पर उस धर्म की सारी बुनियाद होती है। यदि उनकी उक्त ऐतिहासिकता रूपी बुनियाद पर आघात किया जाय और उसे एक बार हिला दिया जाय तो वह धर्म रूपी इमारत बिलकुल ढह पड़ेगी और उसके पुनरुद्धार की जरा भी आशा नहीं रहेगी। सच पूछा जाय तो वर्तमान समय के सभी धर्मों के प्रवर्तकों के सम्बन्ध में ऐसी ही घटना घटित हो रही हैं। उनके जीवन की आधी घटनाओं पर तो लोगों को विश्वास ही नहीं होता और शेष आधी घटनाओं पर भी सन्देह होता है। इस प्रकार हमारे धर्म को छोड़कर संसार के सभी धर्म एक-एक व्यक्ति के जीवन की ऐतिहासिकता के ऊपर निर्भर रहते । पर हमारा धर्म कुछ तत्वों पर प्रतिष्ठित है, कोई पुरुष व स्त्री वेदों का रचयिता होने का दावा नहीं करता। वेदों में सनातन तत्व लिपिबद्ध हैं, ऋषि लोग उनके आविष्कर्ता मात्र हैं। स्थान-स्थान पर उन ऋषियों के नाम लिखे हुए अवश्य हैं, किन्तु नाम मात्र के लिए। वे कौन थे, क्या करते थे, यह भी हम नहीं जानते। कई स्थानों पर यह भी पता नहीं चलता कि उनके पिता कौन थे और इन सभी ऋषियों के जन्म-स्थान और जन्म-काल का तो हमको कुछ भी पता नहीं है। वास्तव में वे ऋषि लोग नाम के भूखे न थे। वे सनातन तत्वों के प्रचारक थे और अपने जीवन में उन तत्वों का प्रयोग करके आदर्श जीवन बिताने का प्रयत्न करते थे।
जिस प्रकार हम लोगों का ईश्वर निर्गुण और सगुण है, उसी प्रकार हम लोगों का धर्म भी बिलकुल निर्गुण है-अर्थात् हमारा धर्म किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर निर्भर नहीं करता और इसमें अनन्त अवतारों और महापुरुषों के लिए स्थान हो सकता है। हमारे धर्म में जितने अवतार, महापुरुष, ऋषि आदि हैं उतने किस धर्म में हैं? केवल यही नहीं, हमारा धर्म कहता है कि वर्तमान काल और भविष्य-काल में और भी अनेक महापुरुषों और अवतारों का अभ्युदय होगा। भागवत में लिखा है- “अवताराह्य-संख्येयाः” (3-26)। इसलिए हमारे धर्म में नये-नये धर्म-प्रवर्तक, अवतार आदि को ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं है। इसलिए भारत के इतिहास में जिन-जिन अवतारों और महापुरुषों का वर्णन किया गया है, अगर उनके सम्बन्ध में यह प्रमाणित कर दिया जाय कि वे ऐतिहासिक नहीं हैं, तो इससे हमारे धर्म को जरा भी धक्का नहीं लगेगा। वह पहले की तरह दृढ़ रहेगा, क्योंकि किसी व्यक्ति विशेष सत्य तत्वों के ऊपर ही यह स्थापित है हमारा धर्म व्यक्ति विशेष की बातों की प्रामाणिकता को बिलकुल अस्वीकार करता है।
‘इष्ट-निष्ठा’ के रूप में जो अपूर्व मत हमारे देश में प्रचलित है, उसमें इन सब अवतारों में से जिसे हमारी इच्छा हो आदर्श रूप में स्वीकार-करने की स्वाधीनता दी गई है। तुम किसी भी अवतार को अपने जीवन के लिए आदर्श मानकर विशेष उपासना के लिए ग्रहण कर सकते हो, इतना ही नहीं, तुम उसे सभी अवतारों में श्रेष्ठ स्थान भी दे सकते हो इसमें कोई हानि नहीं, क्योंकि तुम्हारे धर्म-साधन का मूल आधार तो सनातन तत्व समूह ही रहेगा। इस बात पर विशेष विचार करने से जान पड़ेगा कि चाहे कोई अवतार क्यों न हो, वैदिक सनातन तत्वों का जीता-जागता नमूना होने के कारण ही वह हमारे लिए मान्य होता है। श्रीकृष्ण की यही महानता है कि वे इस तत्वात्मक सनातन धर्म के श्रेष्ठ प्रचारक और वेदान्त के सब से बढ़कर व्याख्याता हैं।
संसार के सभी लोगों के लिए वेदान्त की चर्चा करना क्यों उचित है, इसका पहला कारण तो यह है कि वेदान्त ही एक मात्र सार्वभौम धर्म है। दूसरा कारण यह है कि संसार के जितने शास्त्र हैं उनमें से केवल यही एक ऐसा है जिसका वैज्ञानिक अनुसन्धानों के साथ पूर्ण रूप से सामंजस्य हो सकता है। अत्यन्त प्राचीन काल में आकृति, वंश और भाव में बिलकुल मिलती-जुलती दो भिन्न जातियाँ भिन्न-भिन्न मार्गों से संसार के तत्वानुसंधान में प्रवृत्त हुई। मेरा आशय प्राचीन हिन्दू और प्राचीन ग्रीक यूनानी जाति से है इनमें से पहली जाति तो अंतर्जगत का विश्लेषण करते हुए इस दिशा में अग्रसर हुई और दूसरी बाहरी जगत के अनुसन्धान में प्रवृत्त हुई। इन दोनों के इतिहास की आलोचना करने से विदित होता है कि इन विभिन्न प्रकार की विचार प्रणालियों से उस चरम लक्ष्य के सम्बन्ध में एक ही परिणाम निकला है। इससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि आधुनिक जड़ विज्ञान के सिद्धान्तों को वेदान्ती ही- जो अपने को हिन्दू नाम से पुकारते हैं-अपने धर्म के साथ सामंजस्य करके ग्रहण कर सकते हैं। इससे यह भी प्रकट होता है कि वर्तमान जड़वाद (विज्ञान) अपने सिद्धान्तों को बिना छोड़े, वेदांत के सिद्धान्तों को ग्रहण करके आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो सकता है। हम लोगों को तथा जिन्होंने इस विषय की अच्छी तरह से आलोचना की है, उनको यह स्पष्ट जान पड़ता है कि आधुनिक विज्ञान जिन सिद्धान्तों को कायम कर रहा है, उन्हें कई शताब्दियों पहले ही वेदान्त स्वीकार कर चुका है, केवल आधुनिक विज्ञान में उनका उल्लेख जड़ शक्ति के रूप में किया गया है।
सभी धर्मों की तुलनात्मक समालोचना करने से दो वैज्ञानिक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। उनमें से प्रथम यह है कि सभी धर्म सत्य हैं और दूसरा यह कि संसार की सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष में विभिन्न जान पड़ने पर भी एक ही वस्तु का विकास मात्र हैं। प्राचीन युग में बैबिलोनिया और यहूदी जातियों के अनेक देवता थे, पर उन्होंने आपस में संघर्ष करते-करते अन्त में एक ही देवता को मानना आरम्भ कर दिया। भारत में भी इस प्रकार के धार्मिक झगड़े हुये पर यहाँ उनके कारण विदेशों का सा रक्तपात अधिक नहीं हुआ, क्योंकि यहाँ के एक महापुरुष ने अति प्राचीन काल में ही उस सत्य तत्व को प्राप्त करके घोषित कर दिया था- “एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।” अर्थात् जगत में वास्तविक वस्तु एक ही है, विप्र अर्थात् साधु-पुरुष उसे भिन्न-भिन्न रूपों में वर्णन करते हैं। ऐसी चिरस्मरणीय वाणी और कभी उच्चारित नहीं हुई और न ऐसा महान सत्य ही कभी अधिष्कृत हुआ। यह सत्य ही हमारी हिन्दू जाति का मेरुदण्ड होकर रहा। हम लोग इस सत्य को प्राणों से बढ़कर चाहते हैं- इसी से हमारा देश दूसरों से द्वेष रहित होने का दृष्टान्त उपस्थित कर रहा है। यहीं पर--केवल इसी देश में लोग अपने धर्म के कट्टर विद्वेषी धर्मावलम्बियों के लिए देश में मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर आदि बनवा देते हैं। संसार को हम लोगों से इस धर्म द्वेष रहित के गुण को सीखना होगा। ऐसा होने पर ही वे वास्तविक धर्म-तत्व को समझना और स्वीकार आरम्भ कर सकते हैं।