Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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सच्ची वर्ण व्यवस्था ही हितकारी है।
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(श्री बुद्धदेव जी विद्यालंकर)
इस समय संसार में समाज संगठन की जो दो नवीन मुख्य प्रणालियाँ प्रचलित हुई हैं वे हैं पूँजीवाद और साम्यवाद। इन दोनों में घोर विरोध है, जिसके कारण समस्त संसार में भीषण संघर्ष उत्पन्न हो रहा है। पूँजीवाद का उद्देश्य है कि संसार की सम्पत्ति जनसाधारण के पास से निकल कर थोड़े से पूंजीपतियों के पास इकट्ठी हो जाय। उधर साम्यवाद कहता है कि किसी के पास पूँजी जमा न हो और सब में देश की संपत्ति का समान रूप से वितरण किया जाय। इन दोनों के विरोध और दोषों को मिटाने के लिए कितने ही विचारकों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था को पेश किया है। जिसका उद्देश्य है कि प्रत्येक मनुष्य से उसकी योग्यतानुसार काम लिया जाय तथा उसकी स्थिति तथा आवश्यकतानुसार भरण पोषण की सामग्री दी जाय। वर्ण व्यवस्था पर विचार करने से तीन मुख्य सिद्धान्तों की सृष्टि होती है। वे सिद्धान्त हैं (1) कौशल, (2) शक्ति-प्रतिमान और (3) यथायोग्य दक्षिणा।
कौशल- हर एक मनुष्य सब प्रकार के कामों में कुशल नहीं हो सकता। विधाता ने हर एक मनुष्य को कोई न कोई समाज के लिए उपयोगी काम करने की शक्ति दी है। यदि मनुष्य सब कुछ जानने का विफल प्रयास करने के बजाय अपनी शक्ति को किसी एक ही दिशा में केन्द्रित करे तो उसे अवश्य ही कम या ज्यादा सफलता मिलेगी और उसके द्वारा समाज का हित साधन होगा। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सामान्य विषयों का थोड़ा बहुत ज्ञान रखते हुए किसी एक विशेष पेशे में विशेष कौशल प्राप्त करना चाहिए। भारतीय समाज शास्त्रकारों ने यह कार्य तीन भागों में बाँट दिये थे :-
(1) प्राकृत पदार्थों को, शारीरिक श्रम तथा बुद्धिकौशल द्वारा मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी बनाकर मानव समाज की दरिद्रता दूर करना। इस दिशा में कौशल प्राप्त करने वाले वैश्य कहलाते हैं।
(2) काम, क्रोध लोभादि मानव कल्याण की दुर्बलताओं के कारण होने वाले अन्यायों को बलपूर्वक दूर करना तथा सद्व्यवहार को प्रचारित करना इस दिशा में कौशल प्राप्त करने वाले क्षत्रिय कहलाते हैं।
(3) मानव समाज के लिए हितकारी सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने तथा अविद्या को दूर करने में जीवन लगाना। इस दिशा में कौशल प्राप्त करने वाले ब्राह्मण कहलाते हैं।
इन तीनों प्रकार के कार्यों के लिए अलग-अलग तरह की योग्यता की आवश्यकता पड़ती है। यह बात तो ठीक है कि आहार, निद्रा आदि में सब लोग समान होते हैं। इसलिए वे किसी भी कार्य को करें उनको आवश्यकतानुसार भोजन, वस्त्र, मकान आदि तो मिलना ही चाहिए। तो भी इन लोगों में से जिसने जैसा सरल अथवा कठिन कार्य भार उठाया है उसके अनुसार मिलना ही चाहिए। इसके बिना समाज का कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए वर्ण व्यवस्था में सबसे पहले इसी बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक आदमी का कार्य का भार अपने ऊपर ले जिसे वह सबसे अच्छी तरह कर सकता है। इसके निर्णय चाहे तो वह स्वयं खूब सोच विचार कर करे अथवा अन्य विशेषज्ञों से इस सम्बन्ध में सहायता ले। और जब यह अपना कोई एक विशेष कार्य निश्चित कर ले तो उसमें अधिक से अधिक कौशल प्राप्त करे।
शक्ति प्रतिमान इस प्रकार कौशल प्राप्त करने वाले मनुष्य समाज में रहकर परस्पर किस प्रकार व्यवहार करें इसके लिए नियम बनाये जाने अनिवार्य हैं। जो तीन कार्य ऊपर बतलाये गये हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य है अज्ञान का दूर करना। क्योंकि अन्याय के विरुद्ध शस्त्र उठाने वाले तथा प्रकृति पदार्थों से सम्पत्ति उत्पन्न करने वाले दोनों ही अपना कार्य बिना ज्ञान के भली प्रकार कदापि नहीं कर सकते। पर ये दोनों ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसलिये ज्ञान तथा आत्मसंयम का मेल रखने वाले जितने व्यक्ति राष्ट्र में मिल सकते हैं वे इस पहले वर्ग में आने चाहिए। अगर किसी राष्ट्र के सभी व्यक्ति एक से प्रतिभाशाली और संयमी हैं तब तो बड़ा भाग्यशाली है और वह स्वयमेव उन्नति के शिखर पर पहुंच जायगा। परन्तु जब तक ऐसा समय नहीं आता और मनुष्य आत्मसंयम के अभ्यासी नहीं है तब तक हमको कोई ऐसी व्यवस्था करनी ही होगी जिससे प्रेरित होकर मानव समाज के श्रेष्ठतम मनुष्य इस ओर झुकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि इस वर्ग वालों को ज्ञान वृद्धि की सुविधा में और सामाजिक आदर अधिक से अधिक मात्रा में दिया जाय। यह ठीक है कि आत्मसंयम के अभ्यास में आदर की इच्छा का जीतना भी एक आवश्यक अंग है, पर ऐसी स्थिति बाद में आ सकती है। आरम्भ में तो राष्ट्र के सबसे अधिक प्रतिभाशाली और योग्य बालकों को इस कार्य के लिए प्रेरित करने के निमित्त यह आवश्यक है कि इस वर्ग का स्थान सबसे अधिक सम्मान का रखा जाय। चाहे ऐसे श्रेष्ठ स्वभाव वालों को लौकिकमान की भूख न हो, पर राष्ट्र का कर्तव्य है कि जो लोग योग्य होते हुए भी अपनी प्रतिष्ठा नहीं चाहते। उनकी और भी अधिक प्रतिष्ठा की जाय जिससे हर एक व्यक्ति को इस गुण को धारण करने की प्रेरणा मिल सके।
परन्तु यह भी याद रखना चाहिए कि आत्म संयम की भी सीमा है। जिस प्रकार प्रत्येक कार्य में उच्च कोटि का कौशल प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों का वर्गीकरण आवश्यक है और प्रत्येक वर्ग की सफलता के लिए उसके साथ यथोचित व्यवहार किया जाना भी जरूरी है। उसी प्रकार यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी एक वर्ग के हाथ में इतनी शक्ति न दे दी जाय जिससे वह निरंकुश बन कर समाज हित की अवहेलना कर सके। क्योंकि मर्यादा से अधिक शक्ति किसी भी वर्ग के हाथ आ जाने से वह पतित हुए बिना रह नहीं सकता। इस लिए भारतीय समाज शास्त्र वेत्ताओं ने ऐसे नियम बनाये थे कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण एक दूसरे को मर्यादा के भीतर रखने में समर्थ हो सके। इसी का नाम शक्ति प्रतिमान है।
यथायोग्य दक्षिणा- संसार में इस समय जितनी सामाजिक व्यवस्थाएं प्रचलित हैं उनमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके कार्य के उपलक्ष में पारिश्रमिक अथवा दक्षिणा धन के रूप में ही दी जाती है। योग्यतानुसार धन की मात्रा कम या अधिक देकर हम सन्तुष्ट हो जाते हैं कि हमने यथायोग्य दक्षिणा दे दी। पर वर्ण व्यवस्था के अनुसार हम यह भी विचार करते हैं कि जिस व्यक्ति के लिए जो वस्तुतः उपयोगी है वही उसे दी जाय। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि धन के द्वारा प्रत्येक पदार्थ और सब तरह की सेवाएं खरीदी जा सकती हैं फिर क्यों न धन को दक्षिणा का माध्यम बनाया जाय? पर ऐसा करने से एक बहुत बड़ा दोष यह पैदा होता है कि धन का गौरव सबसे अधिक बढ़ जाता है और शक्ति प्रतिमान में बाधा पड़ जाती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार ब्राह्मण को ज्ञान वृद्धि के साधन तथा पूजा दी गई। क्षत्रिय को शासनाधिकार दिया गया। वैश्य को साँसारिक वैभव दिया गया। यही उनकी यथायोग्य दक्षिणा है और इसी के द्वारा समाज में सन्तुलन ठीक रह कर सुख और शान्ति का विस्तार हो सकता है।