Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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अग्नि परीक्षा की घड़ी सामने आ गई।
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अब पीछे हटना हम लोगों के लिए अशोभनीय होगा।
(श्रीराम शर्मा आचार्य)
दिन तेजी से बीतते जा रहे है और ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की पूर्णाहुति के दिन तीव्र गति से निकट खिंचते चले आ रहे हैं। कार्तिक सुदी 12 के अब मुश्किल से 8 महीने रहे हैं और काम के पहाड़ ज्यों के त्यों सामने पड़े हुए हैं। 1000 कुण्डों की 101 यज्ञशालाओं में 1 लाख होताओं द्वारा 240 लाख आहुतियाँ होने का संकल्प निस्संदेह अत्यन्त विशाल है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत छोटे-छोटे कार्य भी इतने बड़े हैं कि उनको निपटाने के लिए भारी व्यवस्थाएं करनी पड़ेंगी। यज्ञशालाओं का निर्माण उनके सजाने के लिए कपड़ों पर शिक्षाप्रद वाक्य लिखना, झण्डियाँ, झालरें, चित्र, ऊपर की छाया रेल के डिब्बों के डिब्बे भरकर बाँस बल्लियाँ यज्ञ में काम आने वाले यज्ञ पात्र पंच पात्र कलश चौकियाँ यह सरंजाम जुटाना हंसी खेल नहीं है। कुण्डों का निर्माण करने के लिए हजारों मजदूर लगेंगे। एक हजार मन सुगन्धित हवन सामग्री, सैकड़ों टीन घी, हजारों मन समिधाएं यज्ञ के लिए चाहिए। यज्ञशालाओं का एक साथ नियंत्रण करने, एक साथ यज्ञ कार्य चलाने के लिए सैकड़ों यूनिटों वाले लाउडस्पीकर आवश्यक होंगे। यज्ञशालाओं को सजाने एवं प्रकाश करने के लिए भारी मात्रा में बिजली, रोज यज्ञशालाओं का सामान उठाने, रोज रखने, रोज की सफाई आदि के लिए सैकड़ों व्यक्ति रोज लगेंगे तब यह व्यवस्था बन पाया करेगी।
ठहराने और नित्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का कार्य भी असाधारण रूप से कठिन है। लाखों व्यक्तियों को ठहरने की लिए तम्बू, रावटी, शामियाने, फूँस की झोपड़ी आदि की व्यवस्था मीलों के घेरे में करनी होगी। कई हजार तम्बू, रावटी तथा कुटियों में ही लाखों आदमियों को ठहराया जाना सम्भव होगा। मीलों लम्बी जमीनों की सफाई, हजारों तम्बू खड़े करना, महीनों का काम है। घण्टे भर के अंदर सबेरे और घण्टे भर के अंदर शाम को लाखों आदमियों का शौच जाने की सफाई व्यवस्था करने के लिए मेहतरों की एक फौज भर्ती करनी पड़ेगी। अन्यथा खुले स्थानों में लोग टट्टी करने लगे तो आस-पास का क्षेत्र गन्दगी से इतना भर जायेगा कि यज्ञ की सुगन्धि तो दूर मल मूत्र की दुर्गन्धि से हैजा फैलने के कारण अनेकों व्यक्तियों की मौत तथा बीमारी का कष्ट सहना पड़ेगा। पीने का पानी कैम्पों में पहुँचाना एवं स्नान की व्यवस्था का कार्य भी बहुत बड़ा है। कुओं में पम्प बिठाने पड़ेंगे तथा पानी पहुँचाने के कार्य की एक विशेष व्यवस्था करनी पड़ेगी।
तम्बुओं में नीचे बिछाने के लिए घास की पुआल की या किसी बिछावट की व्यवस्था की जाय यह प्रश्न अभी विचार क्षेत्र में ही चल रहा है। रोशनी के लिए बिजली तथा गैस बत्तियों का भारी संख्या में निवास स्थानों में प्रबन्ध करना होगा। विभिन्न प्राँतों और जिलों के तम्बू ब्लाक अलग-अलग रहेंगे। कौन व्यक्ति कहाँ ठहरा है इसका रजिस्टर रखना पड़ेगा। ताकि उनका कोई पत्र तार आवे या कोई स्वजन सम्बन्धी आवे तो उन तक पहुँचाया जा सके। ठहराने के स्थानों में चोर, उठाईगीरों से रखवाली के लिए हजारों की संख्या में पहरेदार स्वयं सेवक चाहिएं। यज्ञशालाओं में हवन करते समय एवं तपोभूमि में दर्शन को आते समय जूते बाहर उतारे जाते हैं उनको चोरी से बचाने के लिए एक बड़ी संख्या जूते रक्षक नियुक्त करने पड़ेंगे। रोज की सफाई इतने लम्बे-चौड़े क्षेत्र में यथासमय होती रहे इसका प्रबन्ध भी एक बड़ा काम है। आगन्तुकों का सामान उनके ताँगे से उतरते ही यथा स्थान पहुँचाना और जाते समय उनकी सवारी में रखने के लिए मजदूरों की एक बड़ी संख्या रखनी पड़ेगी। ऐसे अवसरों पर ताँगा, रिक्शा आदि सवारी वाले दूने-चौगुने पैसे लेते हैं। उन पर कुछ रोकथाम रखी जा सके इसका प्रबन्ध करना होगा। आगन्तुकों में से कोई अस्वस्थ हो जाय तो उसके लिए चिकित्सा की सुव्यवस्था रखनी होगी। डाक तार का एक स्वतन्त्र प्रबन्ध करने की जरूरत होगी।
भोजन व्यवस्था सभी के लिए निःशुल्क रहेगी। याज्ञिकों के लिए सतोगुणी खाद्य आवश्यक है इसलिए रोटी, दाल, चावल, कढ़ी, शाक, दलिया, खिचड़ी, सत्तू, उबले हुए चने जैसे कच्चे कहे जाने वाले खाद्य पदार्थ ही रहेंगे। पक्का भोजन पूड़ी पकवान रजोगुण और तमोगुणी श्रेणी में आता है फिर आज के युग में उसका उपयोग बहुत खर्चीला जीभ चटोरापन बढ़ाने वाला एवं एक सामाजिक भेद-भाव का कारण भी बन गया है इसलिए तपोभूमि के खाद्य कार्यक्रमों में सदा कच्चा भोजन ही चलता है। कच्चा भोजन कुछ सस्ता पड़ सकता है पर उनके बनाने की व्यवस्था पक्के भोजन की व्यवस्था से अनेकों गुणी कठिन होती है। आगन्तुक, होता, यजमानों, याज्ञिकों एवं अतिथियों के लिए ही नहीं दर्शकों के लिए भी भोजन का प्रबन्ध रहेगा। लाखों व्यक्तियों को सुबह शाम एक-एक घण्टे के अंदर भोजन करा देने के लिए कितने बनाने वाले, कितने परोसरने या कितने सफाई वाले कितनी बिछावट, कितनी सफाई व्यवस्था चाहिए? यह प्रबन्ध काफी कठिनाई का है। खाद्य पदार्थों की कितनी मात्रा में जरूरत पड़ेगी यह हिसाब लगाना बाकी है। हर चीज सैंकड़ों और हजारों मन लगेगी। भोजन बनाने की लकड़ी तथा कोयला कई हजार मन चाहिए। नमक मसाले ही एक सौ मन से ऊपर लगेंगे। भोजन कच्चा अस्वास्थ्यकर न बन जाय अन्न की बरबादी न हो इसका पूरा-पूरा ध्यान रखे बिना काम न चलेगा।
जहाँ जरूरत अधिक हो और वस्तुएं कम हों तो वहाँ हर वस्तु के दाम कुछ महंगे हो जाते हैं। पिछले 108 हवन कुण्डों के यज्ञ में जो लोग मथुरा आये थे उन्हें पता है कि जरूरत को देखकर दुकानदारों ने तीन चार आने का नारियल बारह आने का कर दिया था दस आने सेर का दही डेढ़ रुपये सेर बेचा था। आगन्तुकों के दैनिक काम आने वाली चीजें खराब और महंगी न मिलें इसके लिए दुकानदारों पर निगाह रखनी होगी। साथ ही यज्ञ के लिए आवश्यक वस्तुओं का संग्रह अभी से आरम्भ करना होगा। पत्तलें, मिट्टी के सकोरे, कुल्हड़ उसी समय खरीदे जाय तो दूना-तिगुना मूल्य लगेगा इनका संग्रह अभी से करना है।
इतनी बड़ी भीड़ का नियंत्रण करना हंसी खेल नहीं है। गत इलाहाबाद कुम्भ के मेले में थोड़ी सी गड़बड़ी हो जाने से कई सौ व्यक्ति पैरों के तले कुचल गये थे। यहाँ भी यज्ञशालाओं की परिक्रमा करने वाली भीड़ लाखों की संख्या में होगी। यज्ञकुण्डों पर पालियाँ बदलने एक पालीयाँ बदलने एक पाली उठकर जाने और दूसरी आने के समय की भीड़-भाड़ पूर्णाहुति के समय सभी को अपने नारियल होमने की उत्सुकता में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति सभा पाँडाल में एक साथ प्रवेश एवं एक साथ उठने के अनेक अवसर ऐसे होंगे जबकि अनियन्त्रित भीड़ के कारण कोई दुर्घटना हो सकती है। उसे रोकने के लिए मजबूत स्वयं सेवक चाहिएं। जमुना स्नान को लोग प्रातःकाल जाया करेंगे उस समय नावों और डूबने की दुर्घटना न होने देने की पूरी सतर्कता रखनी होगी।
चूँकि यह इस युग का अभूतपूर्व अवसर है। साधना और श्रद्धा की कड़ी परीक्षा देकर आने वाले नैष्ठिक एवं संस्कृति पुनरुत्थान में सजीव दिलचस्पी रखने वालों एवं उस दिशा में कुछ ठोस काम करने के इच्छुक लोगों का यह एक ऐसा सजीव धार्मिक सम्मेलन है जैसा हजारों वर्षों से नहीं हुआ। यों अन्ध श्रद्धा वाली जनता की भीड़ तो हर सोमवती अमावस्या पर गंगा के किनारे इससे भी बड़ी संख्या में देखी जा सकती है। सावन के झूले तमाशे देखने मथुरा वृन्दावन में तथा गोवर्द्धन की परिक्रमा लगाने में इससे भी कहीं अधिक नरमुण्ड देखे जा सकते हैं। पर ऐसे लोग जो गायत्री और यज्ञ के तत्व ज्ञान को गहराई तक समझ चुके हैं और भारत भूमि में धार्मिक भावनाओं की प्रतिष्ठापना करने के लिए दिल में कुछ आग रखते हों कुछ कर मिटने और मर मिटने की चाह रखते हों ऐसे बीन-बीन कर संग्रह किये हुए लोग इतनी बड़ी संख्या में हजारों वर्षों से एक स्थान पर एकत्रित नहीं हुए। ऐसा महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित सम्मेलन केवल एक अनुष्ठान पूजा-पाठ का कार्य ही होकर नहीं रह जाना है वरन् इस अवसर पर राष्ट्र को प्रकाश देने वाली ज्योति भी जलानी है। रचनात्मक दिशा में कार्य करने वाली संस्थाओं एवं प्रवृत्तियों के सम्मेलन एवं विचार कक्ष भी तत्परतापूर्वक चलाने हैं, जिनसे आगन्तुक अपने मस्तिष्क में कुछ ठोस प्रेरणाप्रद विचारधारा एवं कार्य प्रणाली अपने साथ लेकर जाये।
हिन्दू धर्म के समस्त सम्प्रदायों का एक सम्मेलन होगा जिसमें विभिन्नता के बीच एकता के बीजों को तलाश किया जायेगा। सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए यह एक ऐसा सम्मेलन होगा जो कोई रचनात्मक कार्यशैली निर्धारित कर सके। नशेबाजी और माँसाहार की हानियों को जनता को समझाने और दुष्प्रवृत्तियों से उसे छुड़ाने का उपाय ढूँढ़ने के लिए अक्षमता विरोधी एक सम्मेलन किया जायेगा। वर्तमान काल की व्यापक अनैतिकता को दूर करने के उपायों पर विचार करने के लिए भी एक सम्मेलन किया जायगा। महिलाओं की जीवन प्रगति पर विचार करने के लिए महिला सम्मेलन की व्यवस्था की जायगी। साधु संत-पंडित पुरोहित कथावाचक अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझे इसलिए उनका एक सम्मेलन होगा। स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा एवं संयमी जीवन का प्रसार करने के लिए एक विचार गोष्ठी होगी। इस प्रकार मानव जाति की विभिन्न समस्याओं पर नैतिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण से विचार करने उपाय खोजने, वैसा कार्यक्रम बनाने तथा विचारों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए व्यवस्थित योजनाओं का संचालन करने के लिए उच्च कोटि के विचारक एवं प्रभावशाली कार्यकर्ता परस्पर मिलजुल कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करेंगे।
साधना, उपासना, आस्तिकता, ईश्वर भक्ति, धर्म भावना, आध्यात्मिकता का वातावरण उत्पन्न करना इस यज्ञ का प्रधान उद्देश्य है। जप, तप, व्रत, उपवास करके आने वाले नैष्ठिक याज्ञिकों के द्वारा इतने विशाल परिमाण में गायत्री महामंत्र की आहुतियाँ दी जायेंगी। उनका प्रचण्ड आध्यात्मिक प्रभाव उत्पन्न होगा। यज्ञ में सम्मिलित होने वाले याज्ञिकों भागीदारों को तो उसका विशेष लाभ मिलेगा ही साथ ही विश्वव्यापी धर्म प्रवाह की शक्ति तरंगें भी इसके द्वारा प्रचुर परिमाण में उत्पन्न होंगी। यज्ञ लौकिक और पारलौकिक सुख शान्ति की श्रेष्ठ साधना है। देव तत्वों की तृप्ति और पुष्टि यज्ञ द्वारा होती है। आरोग्यवर्धक वातावरण तैयार करना, सूक्ष्म जगत में सदप्राण की मात्रा बढ़ाना और मानव जाति के मन क्षेत्र में सतोगुणी प्रेरणाएं उत्पन्न करना इस यज्ञ का उद्देश्य है। आध्यात्मिक विज्ञान के महान साधनों का कर्मकाण्डों का उपयोग इस यज्ञ में होगा और उन्हें सम्पन्न करने के लिए अनेकों उच्च कोटि के तपस्वी एवं सिद्ध पुरुष इस साधन को सुसम्पन्न करने के लिए कृपा-पूर्वक पधारने का अनुग्रह करेंगे।
गायत्री परिवार को एक नैतिकता आन्दोलन के लिए सुव्यवस्थित धर्म यन्त्र के रूप में भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान करने वाले सेवा सैनिकों के रूप में सुगठित करने का यह यज्ञ एक उत्तम अवसर है। ज्ञान ज्योति का प्रकाश करने के लिए जनता को धर्म शिक्षा देते रहने के लिए एक छोटे किन्तु महत्वपूर्ण धर्म संस्थान के रूप में पूर्णाहुति से पूर्व कम से कम 2400 गायत्री ज्ञान मन्दिर स्थापित किये जाने हैं। और धर्म प्रचारकों की सेना में कम से कम 2400 उपाध्याय भर्ती करने में यह ज्ञान मंदिर और उनके पुजारी उपाध्याय अपने-अपने क्षेत्र में दूर-दूर तक प्रकाश फैलाने लगें- ऐसी निश्चित योजना बनाई गई है। केवल 240 लाख आहुतियाँ ही यज्ञ में नहीं देनी है। वरन् यह सब काम भी करने हैं। गायत्री परिवार के सदस्यों की संख्या जो अभी 60 हजार के लगभग है- कार्तिक तक कम से कम दूनी सवालक्ष करनी है।
गायत्री तपोभूमि का क्रिया तन्त्र उपरोक्त कार्यों की व्यवस्था करने में लगा हुआ है। कार्य अत्यन्त कठिन और साधन अतीव स्वल्प हैं। ईश्वरीय प्रेरणा एवं प्रकाश किरणें ही इस अत्यन्त विशालकाय कार्य के पीछे एक-मात्र शक्ति है। सहयोगी कार्यकर्ता सभी शाखाओं के संचालक थोड़ा-थोड़ा प्रचार कार्य- होता यजमान बनाने का कार्य कर रहे हैं पर जिनके मन में इस युग के महानतम यज्ञ को सफल बनाने के लिए अटूट श्रद्धा भावना और सक्रियता प्रज्ज्वलित हो उठी हो ऐसे सहयोगियों की संख्या अभी अधिक नहीं है। इतने बड़े कार्य के लिए कितने प्रचुर धन की आवश्यकता पड़ेगी इसका हिसाब जोड़ने वाले लोग भौचक्के रह जाते हैं। जब उन्हें यह बताया जाता है कि अभी तक एक पैसे का भी कोई प्रबन्ध नहीं है और भविष्य में अपील करने की चन्दा माँगने की कोई योजना नहीं है और न किसी धनीमानी व्यक्ति का पीठ पर कोई हाथ ही है तो लोगों को बड़ी निराशा होती है और कई लोग हमारा मस्तिष्क सही होने में सन्देह करते हैं कई व्यक्ति इस योजना का पूरा पड़ना असंभव बताते हैं। पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। आर्थिक प्रबन्ध के प्रश्न को हमने ईश्वरीय प्रेरणा के प्रमाण की, अपने विनम्र संकल्प बल की और अपने स्वजनों की अन्तः श्रद्धा की कसौटी बना लिया है। इन तीनों की ही वास्तविकता की अग्नि परीक्षा करने के लिए हजार कुण्डों की यह भट्टी बनाई गई है। तीनों ही पक्षों के खरे खोटे होने की परीक्षा इस यज्ञ में भली प्रकार हो जायगी। हमारा विश्वास है कि तीनों ही पक्ष कसौटी पर खरे उतरेंगे।
तपोभूमि में जो प्रवृत्तियां स्थायी रूप से आगे चलती रहने वाली हैं उसकी सुव्यवस्था करने का कार्य भी संयोगवश इन्हीं दिनों आ पड़ा है अब और उपयोगिता की कमी सभी को खटकती थी अब उसका नये सिरे से पुनःनिर्माण कराया जा रहा है। गायत्री परिवार के अस्वस्थ परिजनों की चिकित्सा एवं स्वास्थ्य की सुव्यवस्था रखने एवं सुधारने की शिक्षा व्यवस्था के लिए जो कल्प चिकित्सालय तपोभूमि में चलाया जाने वाला है उसके लिए स्थान का अभाव था सो मन्दिर के पीछे वाले 6 कमरों को दुमंजिला में बरामदे भी रहेंगे। यह निर्माण कार्य भी इन्हीं दिनों चल रहा है। कल्प चिकित्सा के लिए आवश्यक उपकरण जुटाने एवं सेवाभावी सुयोग्य व्यक्तियों के इस कार्य के लिए ढूँढ़ने का कार्य भी साथ ही हो रहा है।
पूर्णाहुति के बाद धर्म प्रचार तैयार करने वाला संस्कृति विद्यालय तपोभूमि में फिर सुव्यवस्थित रीति से चलने लगे इसकी चिन्ता भुलाये नहीं भूलती। यह इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि जिसके बिना राष्ट्र को धार्मिक भावना से ओत-प्रोत करना संभव न हो सकेगा। पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त जिन पर कमाने और बच्चों को खर्च भेजने का बोझ नहीं है। ऐसे सेवाभावी उज्ज्वल चरित्र लोकसेवी धर्म प्रचार का जब तक बड़ी संख्या में प्राप्त न होंगे वह प्रवृत्तियां देश में न फैलेंगी जिन्हें गायत्री माता फैलाना चाहती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को ढूंढ़ने के लिए वैसी ही प्यास रहती है जैसा पपीहा को स्वाति बूँदों की। गत महायज्ञ में कुछ व्यक्तियों ने आजीवन धर्म प्रचार का व्रत लेकर आत्म दान किया था। इस बड़े यज्ञ की पूर्णाहुति में भी वैसी आत्माएं फिर मिले यह खोजबीन की जा रही है। यों बेकार घर में पड़े-पड़े सड़ने वाले अपमानित और निकम्मे जीवन व्यतीत करने वाले गृहस्थिओं की भारतवर्ष में कमी नहीं। 56 लाख साधु सन्त पंडित पुजारी मुफ्त में स्वर्ग और मुक्ति की लूट मचाने के लिए जगह जगह गिरोह बाँधे घूम रहे हैं पर धर्म एवं अध्यात्म के वास्तविक रूप से स्वयं समझने एवं संसार में विशुद्ध धर्म एवं आध्यात्म का प्रचार करने का कष्टसाध्य उत्तरदायित्व लेने के लिए उनमें से भी कोई तैयार नहीं होता। ऐसी दशा में सच्चे धर्म प्रचारक ढूँढ़ना और उन्हें सुयोग्य बनाना बड़ा आवश्यक साथ ही कठिन कार्य है। पूर्णाहुति की अन्य आवश्यकताओं के साथ-साथ हमारा मस्तिष्क निरन्तर इस भारी आवश्यकता की पूर्ति की ओर लगा रहता है।
हमारी धर्मपत्नी- माता भगवती देवी- बहुत दिनों से अपना कार्य क्षेत्र नारी समाज को बनाना चाहती हैं। जहाँ अन्यान्य प्रवृत्तियां हमारी चलती रहती हैं वह दबी जबान से किन्तु व्यथापूर्वक यह शिकायत करती रहती हैं कि “हमें चौका चूल्हें तक ही काम दिया गया है नारी जाति की सेवा करने के लिए अवसरों से वंचित रखा जा रहा है।” उसकी उत्कट भावनाओं को देखते हुए साथ ही नारी जाति के बौद्धिक उत्कर्ष के भारी महत्व को समझते हुए यह विचार उठता है कि क्यों न उसे भी सेवा क्षेत्र में प्रवेश करने दिया जाय? गृहस्थ सम्बन्धी दांपत्ति जीवन के झंझटों से हम लोग छुटकारा पा चुके फिर क्यों न उसकी शक्ति योग्यता एवं भावना का उपयोग नारी उत्कर्ष में होने दिया जाय? वह चाहती है कि नारी समाज के लिए मासिक पत्रिका निकालें। नारी जीवन की समस्याओं को सुलझाने वाला साहित्य लिखें। परिवार की 10 से 14 वर्ष तक की कन्याओं के लिए एक ऐसा गुरुकुल चलाएं जिसमें पढ़ने के बाद कन्याएं लेडी नहीं गृह लक्ष्मी बनकर निकलें। नारी चिकित्सा का एक केन्द्रीय चिकित्सालय चलाने की भी उसकी बड़ी रुचि है विवाहित महिलाओं के लिए प्रतिवर्ष श्रावण महीने में एक शिक्षण शिविर मथुरा में हुआ करे जिसमें परिवार की लड़कियाँ ससुराल से अपनी माता के घर श्रावण में जाने की जो लोकप्रथा है उसे भी पूरा कर लिया करें। मथुरा वृन्दावन के झूले तथा जन्माष्टमी का मेला भी देख लिया करें साथ ही गृहस्थ जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा भी प्राप्त कर लिया करें। इसके अतिरिक्त गायत्री परिवारों की शाखाओं में तपोभूमि की धर्म प्रचारिकाएं भेजने और वहाँ नारियों के शिक्षण शिविर चलाने की योजना भी बड़ी उपयुक्त लगती है। ऐसी-ऐसी वह अनेक योजनाएं बनाकर रोज ही सामने रखती हैं। यों हमारे प्रति अपनी असाधारण श्रद्धा एवं पूज्य भावना के कारण वह हमें दबाती तो नहीं कि उसे चौका चूल्हे से कुछ छुट्टी दी जाय- चाहती वह अवश्य है कि उसको भी राष्ट्र माता की कुछ ठोस सेवा का अवसर मिले। उसकी इच्छा पूर्ति के लिए भी कुछ करने, कोई व्यवस्था बनाने का जी करता रहता है। इन दिनों हम सभी में भारी उत्साह और भावना प्रवाह कार्य कर रहा है। रोकते-रोकते उस बेचारी की भावना कली कहीं निराशा से झुलस न जाय इसलिए अधिक नहीं तो कुछ थोड़ा आरम्भ श्रीगणेश तो उसका भी करा देने की बात दिमाग में काम कर रही है।
एक ओर जहाँ धर्म युग लाने के बाद दैवी प्रयत्न पूरी तत्परता से चल रहे हैं। दूसरी ओर आसुरी शक्तियां इन्हें विफल करने के लिए प्राण−पण से जुट गई हैं। इस दिशा में विघ्न और असफलता उत्पन्न करने के लिए इनने कमर कसली है। परिस्थितियों के घटनाक्रम को इस प्रकार उल्टा देना जिससे प्रगति में भारी अड़चन उत्पन्न हो जाय उनका प्रधान कार्य है। जिन्हें इस अवसर पर पूरा सहयोग करना चाहिए था उनके मन में उदासीनता, आलस्य, अकर्मण्यता एवं थोड़ी बहुत कठिनाई उत्पन्न कर देना जिससे वे कुछ अधिक कार्य न कर सकें। इस असुरता का एक जबरदस्त हथियार है। इतने विशालकाय कार्यक्रम की योजना जहाँ सतोगुणी आत्माओं की प्रसन्नता का हेतु है वहाँ असुरता प्रधान लोगों के ईर्ष्या द्वेष जलन-कुढ़न का भारी कारण है वे अपनी ईर्ष्या को वाणी से नहीं निकालते वरन् कार्यक्रम को नष्ट करने के लिए वैसा ही प्रयत्न करते हैं जैसा सुबाहु, मारीच एवं ताड़का ने किया था। त्रेता में विश्वामित्र जी ने इतना ही बड़ा यज्ञ किया था उनमें निज का पराक्रम एवं तपोबल भी बहुत था किन्तु स्थिति लगभग असफलता तक पहुँच गई थी। तब विवश होकर उन्हें दशरथ के द्वार पर संरक्षण व्यवस्था की याचना के लिए जाना पड़ा था। हमारी शक्ति बहुत स्वल्प है त्रेता की अपेक्षा असुरता भी अब बड़ी प्रबल है उस युग से असुर शरीर बनाकर प्रत्यक्ष सामने आते थे, आँखों से दिखाई देने के कारण वे धनुषबाण से मारे जा सकते थे। पर आज तो वे लोगों के मनों में ईर्ष्या, द्वेष, छल, विश्वासघात, षडयन्त्र, विरोध, छिद्रान्वेषण, मिथ्या दोषारोपण आदि के रूप में गुप्त चोरों की भाँति चुपचाप आते हैं और मित्र जैसा रूप बनाकर शत्रु का काम करते हैं। यह आसुरी माया बड़ी प्रबल है। इससे निपटना हंसी खेल नहीं हैं इस प्रकार असुरता के वे सभी हथियार जो धर्म सेवा करने वालों पर भूतकाल में चले हैं। विक्रमादित्य, हरिश्चंद्र, शिवि, मोरध्वज, पूरनमल आदि को सहने पड़े हैं सहने के अवसर आये दिन सामने खड़े रहते हैं। परिश्रम के दबाव से आयु के ढलने से एवं असुरता के आक्रमणों से हारे शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लग जाता है और कई बार ऐसा संदेह होने लगता है कि यह कहीं बीच में ही पैर न पसार दे।
यह सब परिस्थितियाँ स्वजनों को भली प्रकार जान लेने की है। समय की पुकार ने, ईश्वरीय प्रेरणा ने यह उत्तरदायित्व हम लोगों के कंधे पर डाला है इस श्रेय को हम लोग अपना सौभाग्य मानें। कठिनाई तो इतने बड़े कार्यों में आनी ही चाहिए। परीक्षा तो ऐसे अवसरों पर होनी ही चाहिए। इसमें डरने, घबराने, चिन्तित या निराश होने जैसी कोई बात तो नहीं है पर सावधानी सतर्कता और तत्परता पूरी-पूरी रखनी है। असुरता के प्रत्यक्ष आक्रमण जो दुख दे सकते हैं, जो संकट उत्पन्न कर सकते हैं उससे कहीं अधिक हानि अप्रत्यक्ष आक्रमणों के द्वारा होगी। वह अप्रत्यक्ष आक्रमण होंगे। आलस्य, उदासीनता, अकर्मण्यता, कृपणता, उपेक्षा एवं असहयोग। हम चाहते हैं कि असुरता के प्रत्यक्ष आक्रमण हो उनकी शक्ति अधिक से अधिक प्राण हानि तक सीमित है पर अप्रत्यक्ष आक्रमण जो हमारे स्वजनों के शरीर में घुसकर करेंगे हमारे लिए चिन्ता का कारण है। युग परिवर्तन के इस अपूर्व अवसर पर हमारे पीठ दिखाने को भगोड़ी सेना के कप्तान की जो दुर्गति होती वही अपनी भी होनी है। ईश्वर की सौंपी हुई और सीना खोलकर स्वीकार की हुई जिम्मेदारी को छोड़कर भागना यह अपने बस की बात नहीं। ईश्वरीय इच्छा की अपेक्षा करके अपनी सुविधा की चिन्ता करना यह हम लोगों के लिए सब प्रकार अशोभनीय होगा। ऐसे अशोभनीय जीवन से तो मरना अच्छा ऐसे अवसर युगों के बाद कभी आते हैं। बार-बार किसके सामने ऐसे अवसर आवेंगे? अब हमारे सामने एकमात्र कर्तव्य यही है कि इस पूर्णाहुति के साथ-साथ धर्म युग लाने की महान प्रक्रिया के पूर्ण करने के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दें।