Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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अन्तरात्मा की होली (Kavita)
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ये उड़े-उड़े-से रंग कि ये चेहरे उदास,
यह फीकी-सी मुसकान, मलिन अनमने गान।
क्या ऐसे भी त्यौहार मनाया जाता है?
तन डूब रहा सागर में, तट पर खड़े प्राण!
ऐसा भी कोई रंग घेल कर ले आओ;
जो तोड़ देह की दीवारें पहुँचे भीतर,
अन्तर की अनब्याही साधों को नहला दे-
जी उठे प्राण फिर जिसका गीलापन पी कर!
जो तिरे नहीं केवल काया की फिसलन पर,
रम कर शोणित में मुक्त शिराओं में लहरे,
जो पहुँचे आत्मा की अथाह गहराई तक-
जो सतह नहीं, छू सके हृदय के तल गहरे।
रंगों के सागर-बीच हमें जो डुबो रहे,
शायद उन को इस परम सत्य का ज्ञान नहीं,
तन से भी ज्यादा मलिन हमारा अन्तर है-
मैना है आँसू भी, केवल मुसकान नहीं।
रंगों की वह बरसात बाँध कर ले जाओ,
जीवन का सारा रूप नया-सा कर जाए,
उजलाए जिस में सिर्फ घुमैला गात नहीं-
जिस में घुल कर पूरा व्यक्तित्व निखर जाए।
वह रंग, एक-सी शक्ल सभी को जो कर दे,
वह रंग कि सब को एक सरीखा भिगो सके,
जो सूख न जाए नफरत की लपटें छू कर-
बन कर दुलार जीवन का कण-कण डुबो सके।
वह रंग, गुलाबी कर दे हर कुम्हलाया तन,
वह रंग, हृदय के मुरझे अंकुर को जल दे,
वह रंग, शुष्क मुसकानों को कर दे मधुमय-
वह रंग कि फीकी हँसियों पर शोखी मल दे।
अब धुँधले अन्धकारमय घर के द्वार खोल,
सब को प्रकाश में बाहर आना ही होगा,
अपना कालुष्य छिपा कर रख न सकोगे तुम-
यह तो होली है दोस्त, नहाना ही होगा।
*समाप्त*
-: श्री बालस्वरूप ‘राही’ :-
-: श्री बालस्वरूप ‘राही’ :-