Magazine - Year 1961 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विचारणीय और मननीय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वचन का पालन दरभंगा में एक शंकर मिश्र नामक विद्वान् हो गये हैं। वे छोटे थे तब उनकी माँ को दूध नहीं उतरता था तो गाय रखनी पड़ी। दाई ने माता के समान प्रेम से बालक को अपना दूध पिलाया। शंकर मिश्र की माता दाई से कहा करती थी कि बच्चा जो पहली कमाई लावेगा सो तेरी होगी। बालक बड़ा होने पर किशोर अवस्था में ही संस्कृत का उद्भत विद्वान् हो गया। राजा ने उसकी प्रशंसा सुनकर दरबार में बुलाया और उसकी काव्य रचना पर प्रसन्न होकर अत्यन्त मूल्यवान हार उपहार में दिया। शंकर मिश्र हार लेकर माता के पास पहुँचे। माता ने उसे तुरन्त ही दाई को दे दिया। दाई ने उसका मूल्य जँचवाया तो वह लाखों रुपए का था। इतनी कीमती चीज लेकर वह क्या करती? लौटाने आई। पर शंकर मिश्र और उसकी माता अपने वचन से लौटने का तैयार न हुए। पहली कमाई के लिए जब दाई को वचन दिया जा चुका था तो फिर उसे पलटने में उनका गौरव जाता था। बहुत दिन देने लौटाने का झंझट पड़ा रहा। अन्त में दाई ने उस धन से एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो दरभंगा में “दाई का तालाब” नाम से अब भी मौजूद हैं। वचन का पालन करने वाले शंकर मिश्र और बिना परिश्रम के धन को न छूने वाली दाई दोनों ही प्रशंसनीय हैं। सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है एकबार सिकन्दर ने अपने एक सेनापति से रुष्ट होकर उसे छोटा सूबेदार बना दिया। कुछ समय बाद उसे सिकन्दर ने बुलाकर पूछा-तुम पहले के समान ही प्रसन्न हो, इसका कारण सूबेदार ने कहा-श्रीमान् पहले तो सेना के छोटे अधिकारी और सैनिक मुझसे डरते थे इस लिये संकोचवश बात करना क्या मिलना भी उनके लिये कठिन था। अब बात-बात में वे मेरी सम्मति लेते और मेरा सम्मान करते हैं। मानवता की सेवा का अवसर तो मुझे अब मिला है।’ सिकन्दर ने पूछा-तुम्हें पदच्युत होने का दुःख या अपमान प्रतीत नहीं होता?’ सूबेदार बोला-सम्मान पद में नहीं, मानवता में है। उच्च पद पाकर भी अन्य को सताना, गर्व करना, घूस लेना निन्दनीय और अपमानजनक हैं, परंतु मनुष्यता पूर्वक सेवा, कर्तव्य पालन, नम्र व्यवहार गौरव की बात है, चाहे वह एक छोटा सा चौकीदार ही क्यों न हो।’ सिकन्दर उससे बड़ा प्रभावित हुआ और वह पुनः सेनापति बना दिया गया। वेश की लाज एक बहरूपिया राजा के दरबार में वेश बदल-बदल कर कई बार गया, परन्तु राजा ने उसे हर बार पहचान लिया और कहा कि जब तक तुम हमें ऐसा रूप न दिखाएँगे जो पहचानने में न आवे तब तक इनाम न मिलेगा। यह सुन वह चला गया और कुछ समय पश्चात् साधु का रूप बन, महल के पास ही धूनी रमा दी। न खाना, न पीना, भेंट की ओर देखना भी नहीं। राजा ने भी उस महात्मा की प्रशंसा सुनी तो वह भी भेंट लेकर उपस्थित हुआ। उसने भेंट के सच्चे मोती आग में झोंक दिये। राजा उसकी त्याग वृत्ति देख भक्ति भाव से प्रशंसा करते हुए चले गये। दूसरे दिन बहरूपिया राज सभा में उपस्थित हुआ और अपने साधु बनकर राजा को धोखा देने की चर्चा करते हुए अपना इनाम माँगा। राजा ने प्रसन्न हो, इनाम दिया और पूछा-तुमने वे मोती, जो इनाम के मूल्य से भी अधिक मूल्यवान थे, आग में क्यों झोंक दिये। यदि उन्हें ही लेकर चले जाते तो बहुत लाभ में रहते? उसने उत्तर दिया-यदि मैं ऐसा करता तो इससे साधु-वेश कलंकित होता। साधुवेश को कलंकित करके धन लेने का अनैतिक कार्य कोई आस्तिक भला कैसे कर सकता हैं?” ऐश्वर्य का अभिमान निरर्थक एक धनिक ने एक संन्यासी को निमन्त्रण दिया। संन्यासी आये तो धनिक ज्ञान चर्चा करना तो भूल गया, उन्हें बैठा कर अपने वैभव की बात कहने लगा-मेरे इतने मकान हैं, बम्बई में मैंने एक विशाल भवन और धर्मशाला बनवाई हैं, शीघ्र ही तुम्हारे जैसे भूखों के लिए अन्न क्षेत्र खोलने वाला हूँ, अब भी आधे सेर खिचड़ी तो हर भिखारी को मेरे घर से मिल जाती है। मेरे लड़के विलायत घूमने जा रहे है।’ संन्यासी उसकी सभी बात चुपचाप सुनते रहे। जब वह चुप हो गया तो दीवार पर टँगे एक नक्शे को देखकर बोले-यह कहाँ का नक्शा हैं?’ धनिक ने कहा-दुनिया का?’ संन्यासी बोले-इसमें हिन्दुस्तान कहाँ हैं?’ धनिक ने उँगली रख कर बताया तो उन्होंने फिर पूछा-और बम्बई?’ धनिक ने उँगली रखकर बम्बई भी बता दी। संन्यासी बोले-इसमें तेरा भवन और धर्मशाला कहाँ हैं?” धनिक बोला-संसार के नक्शे में यह सब चीजें कहाँ से आतीं?’ संन्यासी ने कहा-जब संसार के नक्शे में तुम्हारे वैभव का नाम निशान भी नहीं तो उसका अभिमान ही क्या करना? धनिक ने सिर झुका लिया और अभिमान की बातें सदा को त्याग दीं। पर-निंदा का परिणाम दो संस्कृतज्ञ विद्वान् एक गृहस्थ के यहाँ अतिथि बने। गृहस्थ ने उनका बड़ा सत्कार किया। जब एक विद्वान् स्नान घर में गए, तब गृहस्थ ने दूसरे विद्वान् से स्नान करने को गये हुए विद्वान् के संबंध में पूछा। उसने उत्तर दिया कि ‘वह मूर्ख बैल हैं।’ जब वह स्नान करके आया तो दूसरा स्नान करने गया। गृहस्थ ने स्नान करके आए हुए विद्वान् से दूसरे विद्वान् के संबंध में पूछा तो वह बोला-यह क्या जानता है-पूरा गधा है।’ जब भोजन का समय हुआ तो गृहस्थ ने एक गट्ठर घास और एक डलिया भूसा उनके सामने ला रखा और बोला-लीजिये महाराज! बैल के लिए भूसा और गधे के लिए घास उपस्थित है। यह देख सुनकर दोनों ही बड़े लज्जित हुए। विद्वान् होकर भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या द्वेष के भाव रखना बड़ी घृणित प्रवृत्ति है। ऐसा विद्वान् भी निःसन्देह पशु श्रेणी में रखे जाने योग्य है। “जो लोग अन्य लोगों से अपने विचारों की पुष्टि और समर्थन करा चुके हैं, वे प्रायः ऐसे ही लोग हुए हैं जिन्होंने स्वयं स्वतन्त्र विचार करने का साहस किया था।” “केवल मूर्ख और मृतक, ये दो ही अपने विचारों को कभी नहीं बदलते।” भगवान तो परोपकार से प्रसन्न होते हैं एकबार एकनाथ जी अन्य सन्तों के साथ प्रयाग से गंगाजी का जल काँवर में लेकर रामेश्वर जा रहे थे। रास्ते में एक रेतीला मैदान आया। गधा प्यास के मारे छटपटा रहा था। एकनाथ जी ने तुरन्त काँवर से लेकर गंगा जल गधे के मुख में डाला। गधा प्यास से तृप्त, स्वस्थ होकर वहाँ से चल दिया। एकनाथ के साथी संत प्रयाग के गंगाजल का इस प्रकार उपयोग होते देख क्रुद्ध हुए। एकनाथ ने उन्हें समझाया, “अरे सज्जनवृन्द! आप लोगों ने तो बार-बार सुना है कि भगवान् घट-घट-वासी है। तब भी ऐसे भोले बनते हो। जो वस्तु या ज्ञान समय पर काम न आवे वह व्यर्थ है। काँवर का जो जल गधे ने पिया, वह सीधे श्रीरामेश्वर पर चढ़ गया।’