Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री की रहस्यमयी प्राण विद्या
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गायत्री मंत्र के द्वारा जिस प्राण विद्या की साधना की जाती है। वह ब्रह्म विद्या ही है। जप अनुष्ठान और पुरश्चरणों के द्वारा मनोभूमि को शुद्ध किया जाता है। जिस प्रकार किसान अपनी कृषि भूमि को हल चलाकर जोतता है और उसे इसे योग्य बनाता है कि बीज भली प्रकार उगे वैसे ही आत्म कल्याण का पथिक भी अपनी मनोभूमि को माला रूपी हल के आधार पर कुसंस्कारों से परिमार्जित करके इस योग्य बनाता है कि उसमें उपासना के बीज भली प्रकार उग सकें। प्राण ही वह बीज है जो आगे चलकर साधक के सामने शक्ति एवं सिद्धि के रूप में प्रकट होता है। गायत्री उपासक के लिए जप की प्रथम कक्षा पूर्ण कर लेने के बाद दूसरी कक्षा प्राण साधना को ही है। गायत्री शब्द का अर्थ ही-प्राण का उत्कर्ष करने वाली प्रक्रिया है।
गायत्री उपासक जिस प्राण विद्या का साधन करता है वह परब्रह्म सत्ता की प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति है। इसे ही ब्रह्म ऊष्मा (लेटेन्ट हीट) भी कहते हैं। उपासना के द्वारा साधक अपनी अन्तरात्मा में इस शक्ति जितना मात्रा में अपने अन्दर धारण कर लेता है उतना ही वह प्राणवान- आत्मबल सम्पन्न बनता जाता है।
मूर्ति में प्राण को प्रत्यक्ष ब्रह्म मानकर उसका अभिनन्दन किया गया है-
बायोत्वं प्रत्यक्ष ब्रहासि -ऋग्
“हे प्राण वायु आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं।”
प््राणयनमो यस्य सर्व मिंद वशे,
“उस प्राण को नमस्कार है जिसके वश में सब कुछ है, जो सब का स्वामी है, जिसमें सब समाये हुए हैं।”
प्राण को ही ऋषि माना गया है। मन्त्र दृष्टों ऋषियों का ऋषित्व उनके शरीर पर नहीं वरन् प्राण पर अवलम्बित है। इसलिए विभिन्न ऋषियों के नाम से उसका ही उल्लेख हुआ है। इन्द्रियों के नियंत्रण को कहते हैं गृत्स’। कामदेव को कहते है ‘मद’ । यह दोनों ही काय प्राण शक्ति के द्वारा सम्पन्न होते है इसलिए उसे ‘गृत्समद’ कहते हैं। ‘विश्वं मित्र’ यस्य असौ विश्वामित्र । प्राण का यह समस्त विश्व अवलम्बन होने से मित्र है, इसलिए उसे विश्वामित्र कहा गया है। बननीय, भजनीय, सेवनीय और श्रेष्ठ होने के कारण उस ही वाम वे कहा गया। ‘सर्वे पाप्मनोडबायत इति आत्रिः’। सब को पाप से बचाता है इसलिए वही अत्रि है। इस बाज रूप शरीर का भरण करने से भरद्वाज भी वही है। विश्व में, सबसे श्रेष्ठ विशिष्ट होने से वशिष्ठ भी वही हुआ। इसी प्रकार प्राण के अनेक नाम ऋषि बोधक हैं।
प्राण वा ऋषयः। इमौ एव गौतम भरद्वाजौ। अयमेय गौतमः अयं भरद्वाजः। इमौ एव विक्ष्वामित्र जमदग्न॥ अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः। इमौ एव वशिष्ठ कश्यपौ। अयमेव वशिष्ठः अयं कश्यपः। वागवात्रिः।
सत प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भरद्वाज हैं। दो आँखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और कश्यप हैं वाक् अत्रि है।
अर्वग् विलश्चमस ऊर्ध्ववुध्न
स्तस्मिन्यशो निहितं विश्व रुपम्।
तस्या सत ऋषयः सप्त तारे
वागष्टमी ब्राह्मणा संविदाना।
-वृहदारण्यक 2।2।3
ऊपर पैर और नीचे मुँह वाला चम्मच यह शिर ही है। इस में प्राण रूप में विश्व यज्ञ रखा हुआ है। इसके किनारों पर सातों ऋषि निवास करते हैं। और आठवीं संयनस वाक् ब्रह्म के साथ निवास करती है।
गायत्री के द्वारा जिस प्राण शक्ति की उपासना की जाती है, वह ही देख तत्त्व का केन्द्र हैं इस उपलब्ध करके मनुष्य देवत्व का-देव सत्ता का प्रत्यक्ष दर्शन अपने भीतर करता है। शिर में सहस्र दल कमल के स्थान पर जो सहस्र देवताओं का कोष है वह प्राण मन और अन्न के द्वारा ही आवृत हो जा रहा है। अभक्ष्य अन्न का त्याग कर मन का संयम करते हुए जो प्राण साधना की जाती है उससे वे सहस्र दल वाले देवतत्व जागृत होते और साधक पर शान्ति का वरदान बरसाते है।
तद्वा अथर्वणः शिरों देवकोशः समुब्जितः।
-अथर्व 10।2।27
यह शिर ही बन्द किया हुआ देवताओं का कोश है। प्राण, मन और अन्न इसकी रचा करते हैं।
प्रज्ञापतिश्चरति गर्भे त्वमेव प्रति जायसे। तुम्हें प्राण प्रजास्त्वि मा वर्लि हरन्ति यः प्राणैः प्रति निष्ठिता
-प्रश्नोपनिषद् 2।7
हे प्राण, आप ही प्रजापति हैं, आप ही गर्भ में विचरण करते है आप ही माता पिता के अनुरूप हो कर जन्म लेते है, यह सब प्राणी आप को ही आत्म समर्पण करते हैं। वह प्राणों के साथ ही प्रतिष्ठित हो रहा है।
मनुष्य की काया में जो कुछ है वह प्राण का हो खेल है। प्राण निकल जाने पर वह देह तुरन्त सड़कर गलने लगती है, तब उसे प्रियजन भी अपने पास नहीं रहने देते, जल्दी से जल्दी अन्त्येष्टि करने का प्रयत्न करते हैं। प्राण के बिना यह कंचर सी भूत सी डरावनी दीखती है। इस प्राण को शरीर का राजा और सर्वस्व माना गया है। इस विश्व में जो कुछ जीवन दृष्टि गोचर हो रहा है सब प्राण को ही विभूति है। शास्त्र ने कहा हैं -
काया नगर मध्ये तु मारुतः क्षितिपालक
काया नगरी में प्राण वायु ही राजा है।
प्राण देवा अनु प्राणन्ति। मनुष्याः पशरवचमे।
-तैत्तिरीय 2।3
देवता मनुष्य पशु और समस्त प्राणी प्राण से ही अनुप्राणित है। प्राण ही जीवन है। इसी से उसे आयु कहते है। यह ज्ञान कर जो प्राण स्वरूप ब्रह्म की उपासना करता है वह निश्चय ही सम्पूर्ण आयु को प्राप्त कर लेता हैं
सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणमेवा
-छाँदोग्य 1।11।5
यह सब प्राणी, प्राण में से ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।
प््राणाद्वये खस्विमनि भूतानि जायन्ते
-तैत्तरीय
प्राण से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं और जन्मने के बाद प्राण से ही जीवित रहते हैं।
यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तापवदायुः
-कौषीताकि उपनिषद्
जब तब इस शरीर में प्राण है तभी तक जीवन है।
प्राणो वे सुशमोसुप्रतिष्ठानः
-शतपथ 4।4।1।14
प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।
तेन संसार चक्रेस्मिन भ्रमतीत्वेव सर्वदा।
-गोरक्ष
प्राण की ही शक्ति से जीवधारी इस संसार में गतिवान् रहते हैं। प्राण से ही योगी लोग दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं। प्राण के कारण ही इन्द्रियाँ सशक्त और निरोग रहती हैं। प्राण के अभ्यास से ही नाड़ियाँ शुद्धि होती है और तभी कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती हैं।
इसलिये जीव कामना करता है कि हे प्राण आप हम से सदा अविच्छिन्न रहें।
संक्रामतं मा जहीतं शरीरं,
हे प्राण हे अपान, इस देह को तुम मत छोड़ना। मिल जुलकर इसी में रहना। तभी यह देह शतायु होगा।
इस प्राण शक्ति का एक अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण विज्ञान है। योग साधना से इस विज्ञान को प्रत्यक्ष किया जाता है। गायत्री की साधना से इस प्राण को ही जगाया जाता है। जिसने अपने सोते हुये प्राण को जगा लिया उसके लिये चारों ओर जागृति ही जागृति हैं, सब दिशाओं में प्रकाश ही प्रकाश है। सोता वही है जिसका प्राण सोता हैं, जिसकी प्राण शक्ति जग गई इस संसार में उसे ही जागृत माना जाता है। उसी के सामने इस विश्व का वह रहस्य प्रकट होता है जो सर्व साधारण के लिये छिपा हुआ ही है।
तदाहुः कोऽस्वप्नुमर्हति, यद्वाव
-ताण्डय. 10/4/4
कौन सोता है? कौन जागता हैं-जिसका प्राण जागता है वस्तुतः वही जागता है।
य एवं विद्वान्प्रणं वेद रहास्य प्रजा
-प्रश्नोपनिषद् 3/11
जो विद्वान् इस प्रण के रहस्य को जानता है उस की संतति कभी नष्ट नहीं होती। वह अमर हो जाता है।
इस रहस्यमय प्राण विद्या को जानना प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी का कर्तव्य हैं। क्योंकि इसी से उसकी परम्परा अविच्छिन्न रहती हैं, सन्तति नष्ट नहीं होती और इसी विद्या के कारण वह अमर पद को प्राप्त करता है।