Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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अध्यात्म आदर्श के प्रतीक -शिव
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(श्री. पं. तोतारामजी एम. एस. सी.) पुराणादि ग्रंथों में अनेक देवियों और देवताओं के जो वर्णन पढ़ने को मिलते हैं उन पर मनन करने से निष्कर्ष निकलता है कि इनका विशेष आध्यात्मिक रहस्य है और ये मानव जीवन के किसी उच्च आदर्श के प्रतीक हैं। विभिन्न कवियों ने अपनी-अपनी योग्यता और भावना के अनुसार इनके वर्णन किये हैं। इन सभी वर्णनों को विशेष ध्यान से पढ़ने पर प्रतीत होता है कि आदि काल से दो भिन्न प्रकार के ‘आदर्श’ मनुष्य को आकर्षित करते रहे है। इन्हीं दो प्रकार के आदर्शों में से एक के प्रतीक शिव और दूसरे के विष्णु हैं। शिव उस आदर्श के प्रलक जो केवल ज्ञान से ही मनुष्य का परम कल्याण संभव समझता है। इसके विपरीत विष्णु उस दूसरे प्रकार के आदर्श के प्रतीक प्रतीत होते हैं जो केवल कर्म द्वारा, विशेष कर याज्ञिक अनुष्ठानों द्वारा, पूर्ण कल्याण संभव मानता है। जीवन के शैव आदर्श और वैष्णव आदर्श का एक भेद यह भी है कि जहाँ शैव आदर्श भौतिक संपत्ति को हेय मानता है और इसलिये पूर्ण वैराग्य को प्रश्रय देता हैं, वहाँ वैष्णव आदर्श भौतिक (लक्ष्मी) को श्रेय (श्री) मानता है। इसीलिये शिव का निवास श्मशान में और विष्णु का क्षीर सागर में बताया गया है। श्मशान में जीवन के भौतिक भाग (शरीर) का अन्त होता है और वहाँ लोगों को वैराग्य के प्रति आकर्षित होते देखा जाता है। इसी के साथ-साथ देखा जाता है कि जहाँ विष्णु की मूर्ति मनुष्य के आकार की और अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित होती हैं, वहाँ शिव की मूर्ति आकार और अलंकार विहीन होती है। शिव की गोल मटोल पिंडी आत्मा के निराधार होने का प्रतीक हैं। और इसका यही संकेत हैं कि ज्ञानी की दृष्टि साकार संसार से परे उसके आधार आत्मा पर रहती है। शिव के स्वरूप, अलंकार और जीवन संबंधी घटनाओं का जो वर्णन किया गया हैं उसको ध्यान पूर्वक पढ़ने से प्रतीत होता है कि वे सारी बातें एक पूर्ण ज्ञानी और सिद्ध योगी में घटती है। संक्षेप में इन वर्णनों का सार इस प्रकार है। शिव का स्वरूप शिव के स्वरूप के बारे में दो बातें विचारणीय है। (क) माथे पर चन्द्रमा - यहाँ चन्द्रमा शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ न लेकर उसका धार्त्वथ, चित-आहादे मुदित मन करने से स्पष्ट होगा कि शिव के मस्तिष्क में चंद्रमा के निवास का आशय यह है कि पूर्णज्ञानी और सिद्ध योगी का मन सदा मुदित रहता है और संसार की विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (ख) नीलकंठ - पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव के कंठ के नीला हो जाने का कारण अमृत मंथन के समय समुद्र से निकले विष पात्र को पीने तथा उसे कंठ में ही रोके रखना है। यह प्रसंग भी सिद्ध योगी की उस शक्ति का उदाहरण है जिसके कारण योगी के शरीर को भी सामान्य विष विशेष हानि नहीं पहुँचा सकते। सिद्ध योगी का अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर पर पूर्ण अधिकार होने से वह अपने शरीर को विष आदि के कुप्रभाव से सुरक्षित रखने में समर्थ होता है। (ग) वस्त्रादि अलंकारों से रहित अंग में राख (भभूत) लपेटी हुई-अंग में राख या रेत रमाने का अर्थ यह है कि योगी ने अपने वीर्य को अपने शरीर में ही रमा लिया है और उसके फलस्वरूप वह इतना स्वस्थ और सुन्दर है कि उसे बाह्य अलंकारों द्वारा विकृत करने की आवश्यकता ही नहीं। शिव के स्वरूप का यह भाग मानव जीवन के उस आदर्श का प्रतीक समझना चाहिये जिसे इन शब्दों में कहा जा सकता है। ‘समस्त सुख और सौंदर्य का सार स्वस्थ शरीर है। और स्वास्थ्य का आधार संयमी जीवन है।’ (2) शिव के जीवन सम्बन्धी कुछ घटनाएँ- (क) शिव द्वारा गंगावतरण- पौराणिक कथा के अनुसार गंगा विष्णु का वह पादोदक है जिसे स्वर्ग में ब्रह्म ने वामन रूपी विष्णु के चरण धोकर अपने कमंडल में भर लिया था और जिसे भागीरथ के व्यापित पुरखाओ में भर लिया था और जिसे भागीरथ के व्यापित पुरखाओं को आप में मुक्त करने के लिए शिव द्वारा इस मर्त्यलोक में भेजा। इस प्रसंग के अनुसार गंगावतरण भागीरथ के शापित पुरखों के कल्याण के निमित्त हुआ था। भागीरथ के पुरखों उन मनुष्यों के प्रतीक है जो अपने दूषित संस्कारों के कारण इतने पतित हो चुके है कि उन्हें अपनी इस पतितावस्था से उठाने के लिए भागीरथ प्रयत्न आवश्यक हुआ। पतितावस्था से उठाने के लिए पहली आवश्यकता यह है कि उसको अपनी अवस्था का बोध हो और इसके लिए पश्चाताप भी हो। प्रायः यह देखा जाता है कि पतित अपने अहंकार में इतना डूबा होता है कि वह अपने आपको सर्वथा निर्दोष ही समझता है। कहावत है कि ऐसे को ब्रह्मा भी नहीं समझ सकते। यह ‘ब्रह्मा’ शब्द ऐसे विद्वानों का वाची है जिन्हें वेदादि शास्त्र कंठस्थ है और केवल शाब्दिक उपदेश दे सकते है। ब्रह्मा के कमंडल में सुरक्षित गंगा इस शाब्दिक ज्ञान का प्रतीत है जो सीधा सीधा छोड़ा हुआ लोक कल्याण कर सकने में असमर्थ है। परन्तु जो किसी सिद्ध योगी द्वारा लोक कल्याण करने में समर्थ हो सकता है। संसार में जितने युग प्रवर्तक संत महात्मा हुए है उन्होंने वे ही बातें कही है जो पहिले से जानी हुई थी और विद्वानों के मस्तिष्कों में सुरक्षित चली आती थी, परन्तु उनके द्वारा कहे जाने पर लोगों पर जो प्रभाव पड़ा है वह पंडितों द्वारा कहे जाने पर नहीं पड़ा। बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, स्वा0 दयानन्द और महात्मा गाँधी का जो भी प्रभाव जनता पर पड़ा, वह उनकी अपनी आत्मशक्ति के कारण पड़ा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ज्ञान की गंगा का अवतरण शिवों द्वारा प्रायः होता रहा है और होता रहेगा। (ख) शिव के तृतीय नेत्र को खोलते ही काम का दहन- शिव का तृतीय नेत्र वह मानव मेधा है जिसकी सहायता से हम संसार के पदार्थों का वह स्वरूप देख सकते है जिसका सम्बन्ध हमारे शारीरिक जीवन से न होकर आध्यात्मिक जीवन से है। हमारी समस्त कामनाओं का सम्बन्ध प्रत्यक्ष के परोक्ष रूप से शरीर से है। जिस काम का दहन शिव के तीसरे नेत्र के खुलने से होता है वह हमारी स्वादेन्द्रिय है जिसके वशीभूत हो हम ऐसे अनेक व्यवहार करने का बाध्य होते रहते है जो हमारे जीवन की अनेक प्रकार की व्याधियों के कारण है। महात्मा गाँधी ने ‘अस्वाद’ को एक महाव्रत इसीलिए कहा है कि इसके धारण करने से हमारे समस्त शारीरिक और अधिकांश सामाजिक रोग दूर हो सकते है। अपनी विवेक बुद्धि (तृतीय नेत्र) से ही हम रुचिकर और हितकर अथवा प्रेय और श्रेय में भेद कर हितकर या श्रेय को अपना कर अपने और समाज के जीवन को निरापद कर सकते है और इस प्रकार उस काम या प्रेम को परास्त कर सकते है जो अनेक प्रकार से हमें त्रस्त कर रहा है। शिव के इस तृतीय नेत्र को वैज्ञानिक दृष्टि भी कहा जा सकता है। क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि भी हमें उपयोगी-अनुपयोगी या हितकर-अहितकर में पहचान कराने में समर्थ होती है। इसका एक उदाहरण पदार्थों का मूल्यांकन है। आदिकाल से हम सुवर्ण आदि उत्तम धातुओं और हीरा; मोती आदि रत्नों को लोहे और कोयले से अधिक मूल्यवान समझते रहे है। परन्तु विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि सोने की अपेक्षा लोहा कही अधिक उपयोगी है। सोने के प्रति इतना आकर्षण ही मनुष्य को पारस की खोज में पागल बनाता रहा है और आज भी भारतीय सबसे अधिक पागल प्रतीत हो रहे है। क्योंकि भारत में सोने का मूल्य सबसे अधिक है। साथ ही विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि हीरा और कोयला एक ही मूलतत्त्व कार्बन के भेद मात्र है। आज से हम यदि अपने तृतीय शिवनेत्र को खोलकर संसार के पदार्थों और समाज में प्रचलित परम्पराओं का मूल्यांकन करना सीख लें तो निःसंदेह हमारा शारीरिक और सामाजिक जीवन अधिकाधिक निरापद होता चला जाएगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिव मानव जीवन की उस विशेषता के प्रतीक है जिसके बिना मनुष्य पशु बन जाता है। मनुष्य का यह धर्म उसकी विवेक बुद्धि है जिसके सहारे वह पशुओं से मनुष्य और मनुष्य से देव या महादेव बनने में समर्थ होता है। ऐसे ही मेधावी मनुष्यों को हंस या परमहंस कहा जाता रहा है। हंस पक्षी के जब मुख्य लक्षण कहे जाते है वे तीनों पूर्ण ज्ञानी और सिद्ध योगी शिव में घटते है। हंस में नीर-क्षीर को अलग अलग कर देने की क्षमता है। यह ज्ञानी योगी की सदामद्-विवेक की क्षमता का प्रतीक है। हंस मान सरोवर पर ही रहता है, इसका आशय यह है कि ज्ञानी योगी की प्रत्येक कार्य मनन शीतलता या विचार से निश्चित होता है, भावनाओं या परंपराओं से नहीं। उसका तीसरा लक्षण उसका मुक्ता चुनना है, कहावत प्रसिद्ध है- ‘कै हंसा मोती चुगे कै लघंन कर जाय।’ ज्ञानी योगी के जीवन का लक्ष भी मुक्ति या अनासक्ति है। उसे जो आनन्द प्यार में, व्रत या उपवास में आता है वह भोग में नहीं आता। इस प्रकार शिव मानवीय जीवन के उच्चतम आदर्श के प्रतीक है जिसकी प्राप्ति के लिए पूर्ण निभ्राँत ज्ञान, योग की उच्चतम सिद्धि और तप की आवश्यकता है।