Magazine - Year 1963 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रद्धा और विद्या
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ऋषि जरुत्कार के गुरुकुल में समित्पाणि होकर एक छात्र विद्रुध ने प्रवेश किया और साष्टाँग दंडवत् करते हुए विद्या प्राप्ति के लिए विनयपूर्वक प्रार्थना की।
महर्षि ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- सौम्य! अक्षर ज्ञान को विद्या नहीं कहते, सद्गुणों का विकास ही अध्ययन का वास्तविक फल है। इस गुरुकुल में शिक्षण कम और स्तर को विकसित करने वाले साधन क्रम को विशेष महत्वपूर्ण समझा जाता है। अनुशासन और श्रद्धा के अभाव में विद्या विपत्तिकारक ही होती है। इसलिए यदि तुम इन गुणों को विकसित करने वाले कठोर साधना क्रम को अपना सको तो ही मेरे गुरुकुल में प्रवेश करने की बात सोचो।
बालक ने दृढ़ता भरे शब्दों में कहा- भगवान! मैं पोथी-पंडित बनने नहीं, श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्राप्त करने को आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूँ। आपका आदेश पालूँगा और जो करने को कहेंगे वही करूंगा।
छात्र के वचनों से संतुष्ट हुए उपाध्याय ने बालक को गुरुकुल में प्रविष्ट कर लिया। उसे आश्रम की चार सौ गौएं सौंपी गईं और कहा गया कि वह तब तक उन्हें चराते रहने में ही लगा रहे जब तक गौओं की संख्या एक सहस्र न हो जाय। उसका प्रथम अध्ययन यही होगा।
आश्रम की गौएं लेकर विद्रुध तड़के ही उठ जाता, उन्हें दिन भर चराता और सन्ध्या समय वापिस लाता। वन्य प्रदेश में गौओं के पीछे-पीछे प्रयाण करना और प्रकृति का अध्ययन करना यही उसकी दिनचर्या रहती। धीरे-धीरे समय बीतता गया। गौओं की संख्या चार सौ से बढ़कर एक सहस्र हो गई।
जरुत्कार छात्र के पास पहुँचे और उससे पूछा -सौम्य! तुम्हारा मुख मंडल ब्रह्म तेज से प्रदीप्त हो रहा है, यह ज्ञानी के लिए ही संभव है। कहो, तुम्हें ज्ञान किसने दिया?
छात्र ने विनयपूर्वक कहा- भगवन्! आपके अतिरिक्त और कौन मुझे ज्ञान देगा? यदि कुछ मिला होगा तो उसमें आपकी ही कृपा प्रधान रही होगी।
गुरुदेव ने पुनः कहा- वत्स! तुम्हारी विनयशीलता सराहनीय है। पर ज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकने वाला यह ब्रह्म तेज तुम्हें कही से तो प्राप्त हुआ होगा? सो तुम्हें यह बताना ही चाहिये कि उपलब्ध ज्ञान कहाँ से, किस प्रकार प्राप्त हुआ?
नतमस्तक होकर विद्रुध ने कहा - तात! मैं वन प्रदेश में पशुओं, पक्षियों, कीट-पतंगों और वृक्ष वनस्पतियों के गुण कर्म स्वभाव को गंभीरतापूर्वक देखने और समझने का प्रयत्न करता रहा हूँ। जो देखा उसे समझा और यह निष्कर्ष निकाला कि संसार क्या है और इसमें किस प्रकार रहना और चलना- उचित है।
महर्षि पुलकित हो उठे, उनने शिष्य को छाती से लगा लिया और कहा- वत्स! ज्ञान का माध्यम यही है जो तुमने प्राप्त किया, पुस्तकों से नहीं, इस संसार के वास्तविक स्वरूप को समझने और उस जानकारी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ विनिर्मित करने से ही जीवन को विकसित करने वाला ज्ञान प्राप्त होता है। जो मिलता था सो तुम्हें मिल चुका, अब अक्षर ज्ञान शेष है सो कुछ ही दिन में तुम उसमें भी निष्णात बनोगे।
गौओं की सेना का परिपूर्ण प्रतिफल प्राप्त कर विद्रुध अध्ययन कक्षाओं में बैठने लगा। कुछ ही दिनों में सत्-शिक्षण प्राप्त कर अपने देश लौट गया।