Magazine - Year 1963 - Version 2
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Language: HINDI
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साधनहीन सत्य का शक्तिशाली असत्य से संघर्ष
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बाबुल के सम्राट नमरुद ने ऐलान कराया कि वही ईश्वर है, उसी की पूजा की जाय। भयभीत प्रजा ने उसकी मूर्तियाँ बनाई और पूजा आरम्भ कर दी।
एक दिन राज-ज्योतिषियों ने नमरुद को बताया कि इस वर्ष एक ऐसा बालक जन्मेगा जो उसके ईश्वरत्व को चुनौती देने लगेगा।
सम्राट को यह बात अखरी और उसने उस वर्ष जन्मने वाले सब बालकों को मार डालने की आज्ञा राजकर्मचारियों को दे दी। बालक ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारे जाने लगे।
नमरुद की मूर्तियाँ गढ़ने वाले कलाकार आजर की धर्म-पत्नी को भी प्रसव हुआ और सुँदर पुत्र जन्मा। मातृ-हृदय बालक की रक्षा के लिये व्याकुल हो गया। वह उसे लेकर पहाड़ की एक गुफा में गई और वहीं उसका लालन-पालन करने लेगी।
बालक बन्द गुफा में बढ़ने लगा। धीरे-धीरे वह पाँच वर्ष का हो गया। एक दिन उसने माता से पूछा- हम लोग जहाँ रहते हैं क्या उससे बड़ा इस दुनिया में और कुछ है ?
माता ने बालक को संसार के विस्तार के बारे में बहुत कुछ बताया और कहा इस सबका निर्माता एक ईश्वर है। बालक ईश्वर के दर्शन करने के लिये व्यग्र रहने लगा।
एक दिन अवसर पाकर बालक गुफा से बाहर निकला। सबसे पहले उसने उन्मुक्त आकाश को देखा। रात्रि का अंधकार छाया हुआ था। सबसे पहले एक चमकता हुआ तारा दिखाई दिया। बालक ने सोचा, हो न हो यही ईश्वर होगा।
थोड़ी देर में तारा अस्त हो गया और चाँद निकला। बालक सोचने लगा कम प्रकाश वाला तारा नहीं, अधिक चमकने वाला यह चाँद ईश्वर होना चाहिये। थोड़ी देर में रात समाप्त हुई, चन्द्रमा डूबा और सूरज निकल आया, और दिन गुजरते-गुजरते उसके भी डूबने की तैयारी होने लगी।
बालक इब्राहीम के मन में भारी उथल-पुथल मची। उसने सोचा जो बार-बार डूबता और उदय होता है ऐसा ईश्वर नहीं हो सकता। वह तो ऐसा होना चाहिए जो न जन्में और न मरे। विचार ने विश्वास का रूप धारण किया। ईश्वर का स्वरूप उसकी समझ में आ गया। इब्राहीम ने ईश्वर चिन्तन का व्रत लिया और साधुओं की तरह न जन्मने और न मरने वाले ईश्वर की उपासना करने के लिए प्रचार करने लगा।
नमरुद को पता चला कि उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई फकीर पैदा हो गया है तो उसने इब्राहीम को पकड़ बुलाया और अनेक यंत्रणाएं देने लगा। जब इब्राहीम के विचार नहीं बदले तो उसे जलती आग में पटक कर मार डालने का आदेश हुआ।
अग्नि प्रकोप से बचाने में सहायता करने के लिए जब देवता इब्राहीम के पास पहुँचे तो उन्होंने यह कहकर वह सहायता अस्वीकार कर दी कि सत्य की निष्ठा कष्ट सहने से ही परिपक्व होती है और आत्मा का तेज परीक्षा के बाद ही निखरता है। मुझे अपनी निष्ठा की परीक्षा कष्ट सहने के द्वारा देने दीजिए। मेरा आत्म-बल विचलित न हो, यदि ऐसी सहायता कर सकें तो आपका इतना अनुग्रह ही पर्याप्त है।
अंत में सत्य ही जीता। नमरुद का गर्व गल गया। इब्राहीम अपनी सत्यनिष्ठा के कारण और अधिक चमके। नमरुद नहीं रहा पर इब्राहीम की ईश्वर विवेचना आज भी बहु-संख्यक मनुष्यों के हृदय में स्थान प्राप्त किए हुए है।
बल नहीं जीतता और न आतंक ही अंत तक ठहरता है। असत्य कितना ही साधन सम्पन्न क्यों न हो वह सत्य के आगे ठहर नहीं पाता। साधन हीन होते हुए भी सत्य, सुसम्पन्न असत्य से कहीं अधिक सामर्थ्यवान होता है। विजय असत्य की नहीं सत्य की ही होती है। इब्राहीम की विजय और नमरुद की पराजय ने इसी तथ्य का उद्घाटन किया है।