Magazine - Year 1963 - Version 2
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Language: HINDI
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मनोमय कोश का परिष्कार
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मनोमय कोश की द्वितीय भूमिका का ऐसा परिशोधन करना आवश्यक है जिससे उसमें रचनात्मक, सद्भावना युक्त प्रगतिशील विचारों के उठने का ही क्रम बना रहे। स्वार्थ-संकीर्णता, छिद्रान्वेषण, निराशा के विघटनात्मक विचार मनुष्य की मनोभूमि को विकृत कर देते हैं और उसमें आध्यात्मिक विकास के बीजाँकुर जम नहीं पाते।
मन के द्वारा ही शरीर का नियंत्रण होता है। यदि मन कुमार्गगामी एवं असंयमी हुआ तो उसका प्रभाव शरीर पर बहुत ही घातक पड़ेगा, स्वास्थ्य नष्ट होगा और अनेकों प्रकट-अप्रकट रोग उठ खड़े होंगे। जिसका मन उद्विग्न रहता है उसका शरीर भी विपन्न स्थिति में ही पड़ा रहेगा। कुकर्म उसी शरीर से बन पड़ते हैं, जिसके मन में पाप-बुद्धि का निवास होता है। आलसी वही शरीर होता है, जिसका मन अवसाद की भावनाओं से ग्रस्त होता है। हमें लौकिक ही नहीं आध्यात्मिक पुरुषार्थ भी शरीर के द्वारा ही करने पड़ते है। यदि शरीर आये दिन गड़बड़ी पैदा करता रहता है तो साधना का क्रम कैसे ठीक चलेगा? शरीर घोड़ा है मन सवार। सवार की इच्छानुसार ही तो घोड़े को चलना पड़ता है। अन्नमय कोश के परिशोधन के लिए मनोनिग्रह की भी नितान्त आवश्यकता मानी गई है।
गायत्री की उच्च स्तरीय पंचकोशी साधना के साधकों को मनोमय कोश की शुद्धि के लिए गत वर्षों में यह बताया गया है कि वे नित्य प्रति स्वाध्याय किया करें। विचारशील लोगों का सत्संग अब सुलभ नहीं रहा। जो निठल्ले लोग चेला मूँड़ने के लिए सत्संग के नाम पर अंट-संट बकते रहते हैं, उसे सुनने से लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। इसलिए जीवन की समस्याओं का व्यावहारिक हल सुझाने वाले सत्साहित्य को श्रद्धा और भावनापूर्वक एकाग्र चित्त से पढ़ना ही आज की स्थिति में सत्संग की आवश्यकता को भी पूरा करता है। संसार के श्रेष्ठ महापुरुष अपने विचार और अनुभव सुनाने के लिए पुस्तकों के माध्यम से हमारे लिये हर घड़ी प्रस्तुत रहते हैं। सत्साहित्य को सत्पुरुषों का मूर्तिमान हृदय एवं मस्तिष्क कहा जा सकता है। उसके साथ यदि हम ठीक तरह संपर्क बना सकें तो स्वाध्याय का प्रतिफल पारस पत्थर जैसा होता है। पारस द्वारा लोहे को सोना बना सकना भले ही कठिन कार्य हो पर स्वाध्याय के माध्यम से निष्कृष्ट मनोभूमि का उत्कृष्ट बन सकना सर्वथा सरल और सम्भव है।
युग-निर्माण-योजना के अधिकृत सत्संकल्प में वे सभी सिद्धान्त और आदर्श बीज रूप से मौजूद हैं जिनके आधार पर आध्यात्मिक मनोभूमि का विकसित होना सम्भव है। इसलिये सब शास्त्रों के निचोड़ स्वरूप सरल हिन्दी भाषा में जो ‘सत्संकल्प’ विनिर्मित किया है वह सितम्बर 62 के अंक में छापा जा चुका है और उसकी आवश्यकता विवेचना भी उस अंक में की जा चुकी है। वह सत्संकल्प साधकों के लिये दैनिक पाठ की आवश्यक वस्तु है। जैसे धार्मिक व्यक्ति किन्हीं गीता रामायण आदि का पाठ करते हैं, उसी श्रद्धा से सत्संकल्प का नित्य पाठ किया जाना चाहिए, क्योंकि धर्म शास्त्रों के समस्त बीज सिद्धान्तों का समावेश उसमें कर दिया गया है। मानसिक शुद्धि और उत्कर्ष के समस्त आधार उस थोड़ी-सी शब्दावली में सूत्र रूप से मौजूद हैं। इतना सरल और सुबोध, संक्षिप्त, और सारगर्भित, शास्त्र-स्वर दूसरा दृष्टिगोचर नहीं होता जितना कि अपना सत्संकल्प। इसलिये गत वर्ष मनोमय कोश के साधकों के लिए यह निर्देश किया गया था कि वे दैनिक स्वाध्याय के अतिरिक्त ‘सत्संकल्प’ का नित्य पाठ किया करें। उसका मनन और चिन्तन किया करें। यह विचार करें कि इन तथ्यों में से हमारे जीवन में कौन-कौन कितनी मात्रा में प्रयुक्त होता है। जो कमी रहती हो उसे कैसे पूरा किया जाय उसका उपाय सोचते रहना चाहिए। मनोभूमि को विधेयात्मक और परिष्कृत बनाने में यह दोनों ही साधन असाधारण रूप से उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
जिनने इन दोनों कार्यक्रमों को गत वर्षों में नियमित बना लिया हो, अपने स्वभाव को इस नियमितता का अभ्यस्त कर लिया हो वे ठीक प्रकार मनोभूमि को उत्कृष्ट बनाने में, मनोमय कोश के परिशोधन में सफल होते हुए आगे बढ़ रहे हैं। जिनने जप मात्र को ही पर्याप्त समझा है और जीवन शोधन ही अन्य आवश्यक प्रक्रियाओं की उपेक्षा की है, उनकी गाड़ी एक प्रकार से रुक ही गई है। इस लिये इस मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक नैष्ठिक साधक के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि इन दोनों साधनों को -स्वाध्याय और सत्संकल्प पाठ को अपने दैनिक जीवन में अनिवार्य रूप से स्थान देना आरम्भ कर दे। जैसे भोजन, मलशोधन और शयन शरीर संतुलन के लिये आवश्यक माना जाता है उसी प्रकार मानसिक प्रगति के लिये इन दोनों साधनाओं को पूरी तत्परता और निष्ठा के साथ कार्यान्वित करते ही रहना चाहिए।
इस तीसरे वर्ष में दो साधन और भी नये बढ़ने हैं। (1) आत्म-निरीक्षण, (2) ज्ञान-विस्तार। प्रत्येक साधक को प्रातःकाल आँख खुलते ही सब से पहले पाँच मिनट गायत्री महामंत्र का मन ही मन जप करना चाहिये और इसके पश्चात् दिन भर का कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिये कि कितने बजे क्या काम करना है। दिनचर्या निर्धारित करना समय के सदुपयोग की दृष्टि से आवश्यक है। क्रम-बद्ध काम करने से दूना काम होता है और अव्यवस्थापूर्वक कुछ न कुछ करते रहने से सब काम अधूरे रहते हैं और परिणाम भी बहुत स्वल्प मात्रा में हाथ लगता है। किन्तु निर्धारित प्रोग्राम बना कर दिन भर उसी के अनुसार चलते रहा जाय तो समय का आशाजनक सदुपयोग होता है और सफलता की ओर तेजी से बढ़ते चलने में भारी सहायता मिलती है।
हमें समय विभाजन तक ही सीमित नहीं रहना है, अपितु यह भी ध्यान रखना है कि उच्च भावनाओं और आदर्शों को कार्यान्वित करने की सुविधा भी हमारे दैनिक कार्यक्रमों में भरी रहे। साधारण कामकाज करते हुये भी उनके साथ उच्च भावनाओं को भी जोड़े रखें जिससे काम, साधारण काम मात्र न रह कर कर्मयोग जैसे बन जाय। अभ्यास करने से यह पूर्णतया सम्भव है। काम को बेगार भोगने, भार ढोने, विवशता अनुभव करने और झलाने के साथ यदि किया जायेगा तो वह थकान उत्पन्न करेगा और मन की खीज को भी बढ़ावेगा। पर यदि उसे ईश्वर पूजा, धर्म कर्तव्य का पालन एवं लोक-सेवा की मान्यता के साथ, हँसते, प्रसन्न होते पूरी ईमानदारी और दिलचस्पी के साथ किया जायेगा तो वही साधारण-सा काम हमारे लिये पुण्य और योगाभ्यास जैसा आध्यात्मिक सत्परिणाम उत्पन्न करेगा।
प्रातःकाल शैया-त्याग से पूर्व हमें मानसिक जप और ध्यान के अनन्तर दिन भर का ऐसा ही कार्यक्रम बनाना चाहिये। समय-विभाजन के साथ-साथ यह भी विचारना चाहिये कि उन कार्यों को करते हुये हम क्या बुद्धि, क्या भावना, क्या आकांक्षा और क्या मान्यता रखेंगे? उच्च भावनाओं के साथ यदि छोटा-सा साधारण काम किया जाय तो वह यज्ञ रूप बन जाता है। शास्त्रकारों ने-आध्यात्मिक मनीषियों ने पग-पग पर यही प्रतिपादित किया है कि हमें अपने दैनिक कार्यों को कर्मयोग में बदल देने की योजना प्रतिदिन प्रातःकाल शैया त्याग से पूर्व ही बना लेनी चाहिये और उसी योजना के साथ दिन भर का क्रम चलाना चाहिये।
जिस प्रकार प्रातःकाल शैया त्याग से पूर्व दिन भर का कार्यक्रम बनाना और जप ध्यान करना आवश्यक है उसी प्रकार रात को सोते समय बिस्तर पर जाने के बाद पुनः दो काम करने चाहिये। आज का दिन प्रातःकाल के निर्धारित क्रम से बीता कि नहीं? कार्य निर्धारित व्यवस्था के अनुसार पूरे हुए या नहीं? उच्च भावनाओं का आवश्यक सम्मिश्रण रहा या नहीं? जितनी सफलता मिली हो उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये और जितनी गड़बड़ी हो उसके लिये यह देखना चाहिये कि उसमें अपना आलस्य, प्रमाद और संस्कार किस हद तक दोषी है? जो भूल अपनी हो उसे में आवश्यक सुधार करने की बात सोचनी चाहिये।
अन्त में सोते समय गायत्री माता का ध्यान और मंत्र का मानसिक जप करते हुए सोने का उपक्रम बनाना चाहिये। शैया पर जाने के बाद यदि कुछ अन्य कार्य करने हों तो इन दोनों कार्यों को अन्त में सोते समय के लिये ही रहना चाहिये। रात को निद्रा की गोद में जाते समय परमात्मा का ध्यान भजन करने का अभ्यास मृत्यु समय में उस स्थिति को प्राप्त करने का साधन है, जिसके लिए रामायण में कहा गया है कि “जन्म-जन्म मुनि-जतन कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीं।” निद्रा भी एक प्रकार की दैनिक मृत्यु ही है। सोते समय भगवान का स्मरण करने वाला अन्त समय भी प्रभु का स्मरण ही करता है और उसकी सद्गति सुनिश्चित हो जाती है।
इस वर्ष का दूसरा नया कार्य है-ज्ञान विस्तार। शिक्षा का, पढ़ाई-लिखाई का विस्तार करने के लिये स्कूल, कालेज बराबर खुलते चले जा रहे हैं। इससे शिक्षा की प्रगति होती है, वह उचित है और आवश्यक भी। पर धन की वृद्धि के समान शिक्षा की वृद्धि भी तब तक निरर्थक और हानिकारक ही सिद्ध होगी, जब तक कि लोगों का आन्तरिक भावनात्मक स्तर ऊँचा न उठे। दुर्बुद्धि लोगों के हाथ में पहुँचने पर धन भी दुष्परिणाम उत्पन्न करता है और शिक्षा भी। प्रगति के लिये सद्ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। खेद है कि आज सर्वत्र इसी तत्व की उपेक्षा हो रही है। फल-स्वरूप प्रगति के सारे कार्यक्रम उलटी उलझनें उत्पन्न करते चले जा रहे हैं।
हमें समाज सेवा की दृष्टि से भी और आत्म कल्याण की दृष्टि से भी ज्ञान-विस्तार को अत्यन्त पवित्र और आवश्यक धर्म कर्त्तव्य मानना चाहिये और उसके लिये नित्य ही कुछ न कुछ करना चाहिये। स्वाध्याय, संकल्प पाठ और चिन्तन, मनन द्वारा अपने लिये जो प्रकाश प्राप्त किया गया है, उसे दूसरों को भी देने का क्रम बनाना चाहिये। जो पढ़ा समझा है उसे लिखने सुनने से परिपक्वता आती है, इसे सभी छात्र और शिक्षक जानते हैं। जो कुछ हम समझते और सोचते हैं उसे दूसरों को ध्यान अध्यापक या परीक्षक मान कर सुनाने, समझाने लगें तो उससे अपना अभ्यास परिपक्व होगा और वह विचार गहराई तक मनोभूमि में प्रवेश करके संस्कार के रूप में सुदृढ़ भी होते चलेंगे। ज्ञान दान का पुण्य इस संसार के सबसे बड़े दान धर्मों में गिना गया है। उसे एकत्रित करते रहने से दैवी सम्पदाओं की पूँजी बढ़ती है और मनुष्य सच्चे अर्थों में अमीर बनता चला जाता है।
दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा करने वाले को लोकलाजवश भी अपने को अपेक्षाकृत श्रेष्ठ बनाना पड़ता है और बुराइयों से बचते रहना पड़ता है। यह लोकलाज भी आत्मोन्नति की दृष्टि से बहुत उपयोगी एवं आवश्यक है।
दैनिक परिवार गोष्ठी का इस वर्ष आवश्यक रूप से हमें आरम्भ कर देना चाहिए। अपने परिवार को-स्त्री-बच्चों को-पास बिठा कर उन्हें उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन को ढालने की शिक्षा देनी चाहिए और उसके लिये घर में आवश्यक वातावरण भी बनाना चाहिए। प्रत्येक गायत्री उपासक को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि उसकी धर्मपत्नी सुशिक्षित बने। इसके लिए साक्षरता के साथ-साथ सद्ज्ञान भी उसे उपलब्ध होने लगे ऐसा प्रयत्न किया जाना चाहिए। मनोमय कोश की साधना करने वालों को अपने सम्बन्धी स्वजनों की मनोभूमि भी परिष्कृत करनी चाहिए ताकि उनकी दुर्बलताएँ अपनी मानसिक प्रगति में बाधक न बनें।
अपने निजी परिवार के अतिरिक्त स्वजन-सम्बन्धी, मित्र, परिचित एवं दूर भी रहने वाले सुहृदय सज्जनों को मौखिक रूप से अथवा पत्र-व्यवहार से प्रगतिशील जीवन बनाने का आवश्यक प्रेरणा देते रहना चाहिए। जिन लोगों से परिचय है उन्हें अपने घरेलू गायत्री ज्ञान मन्दिर, पुस्तकें तथा “अखण्ड-ज्योति” पढ़ने के लिए देते रहना चाहिए। पुस्तकें देने और फिर वापिस लेने के बहाने धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के घर जाना और उनके साथ धर्म-चर्चा का अवसर निकालते रहना, ज्ञान विस्तार का एक श्रेष्ठ तरीका है। शिक्षा प्रसार के लिये स्कूल मौजूद हैं। पर ज्ञान तो चरित्र के द्वारा दिया जाता है। लेखनी और वाणी से ज्ञान का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है। पंचकोशी गायत्री उपासना का प्रत्येक साधक दूसरों की अपेक्षा आत्मिक दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट होगा, इसलिए ज्ञान विस्तार का उत्तर-दायित्व भी स्वभावतः उसके कन्धे पर पड़ेगा। इस धर्म कर्तव्य से किसी को इन्कार नहीं करना चाहिए और न आलस, उपेक्षा ही दिखानी चाहिए।
मन शक्तियों का पुँज है। मन के शुद्ध, एकाग्र और सन्मार्गगामी बन जाने से मनुष्य शरीर में रहता हुआ भी जीव देवताओं के समान महान बन जाता है। इसकी शक्तियाँ इस शोधन के साथ ही असीम बनती चलती हैं। मनोमय कोश की साधना करते हुए प्रत्येक साधक को यही लक्ष्य ध्यान में रखना है कि मन हर घड़ी सत् चिन्तन करें। कुविचारों के अशुभ चिंतन के विरुद्ध तो निरन्तर संघर्ष ही जारी रखना चाहिए।