Magazine - Year 1963 - Version 2
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Language: HINDI
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बुढ़ापे में हीनता न आने दें
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बुढ़ापा जीवन का परिपक्व फल है जिसमें पूर्णता, मिठास, उपयोगिता और अपनी एक विशिष्ट महत्ता होती है। वृद्धावस्था में ही मनुष्य स्वयं और संसार के अनुभव ज्ञान में समृद्ध होकर शत-शत प्रकाश किरणों से युक्त ज्योतिर्मय बन जाता है, जिससे अनेकों को मार्ग दर्शन की प्रकाश किरण, प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। बर्नार्डशा ने कहा “बुढ़ापा एक सिद्धि है, पूर्णता की मंजिल है। वह एक सामाजिक धरोहर है। कल्पना कीजिए सभी वृद्ध लोगों को किसी ग्रह में भेज दिया जाए तो फुटबाल के खिलाड़ियों के सिवा दुनिया में बचेगा ही क्या ?” ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधान मंत्री चर्चिल ने एक बार कहा था “बुढ़ापा पके हुए फल की तरह है। उसका अपना एक महत्व है।” “जिन्दगी चालीस वर्ष से शुरू होती है” इस कहावत के अनुसार वृद्धावस्था जीवन का नवनीत है- सार भाग है। वस्तुतः संसार के अधिकाँश महान कार्य महापुरुषों के जीवन में चालीस वर्ष की उम्र के बाद ही प्रकाश में आया। बुढ़ापा मानव जीवन के विकास का अंतिम चरण है, जहाँ पहुँच कर प्रत्येक व्यक्ति गौरव, प्रतिष्ठा, समृद्धि, ज्ञान, सुलझे हुए प्रौढ़ विचारों से युक्त हो जीवन का वास्तविक लाभ ले सकता है।
किंतु अधिकांश लोग बुढ़ापे को मौत का पैगाम, जीवन की अनुपयोगिता का अवसर, अक्षमता अशक्ति का सूचक मानकर जिन्दगी के दिन गिन-गिन कर काटने लगते हैं। उन्हें अपनी शक्तियाँ धीरे-धीरे क्षीण होती जान पड़ती हैं। कोई महत्वपूर्ण कार्य करने का उत्साह मन में नहीं रहता। वरन् बुढ़ापे की पराधीनता, अंग शैथिल्य, बीमारी, रोग, क्लान्ति, असमर्थता आदि की कल्पनायें कुछ कम भयावह नहीं होती। इस रूप में बुढ़ापे की कल्पना करने वाले व्यक्ति के लिए सचमुच वृद्धावस्था एक अभिशाप और नारकीय यन्त्रणा ही सिद्ध होती हैं।
वृद्धावस्था अपने आप में इतनी नीरस और कटु नहीं है जितना लोग समझते हैं। बुढ़ापे में संसार के महापुरुषों ने महान् कार्यों का सूत्रपात किया है जीवन की महत्वपूर्ण सफलतायें अर्जित की हैं, अपने आप में नई प्रफुल्लता, सुख, संतोष, प्रसन्नता अनुभव की है। दूसरी ओर वृद्धावस्था को जीवन का अभिशाप, अशक्ति, पराधीनता का अवसर मान लेना मनुष्य के गलत दृष्टिकोण का ही परिणाम है।
मनुष्य की मनोभूमि का उसके जीवनक्रम पर भारी प्रभाव पड़ता है। चालीस वर्ष की उम्र के बाद जब लोग सोचने लगते हैं कि उनका बुढ़ापा शुरू हो गया है तो सचमुच ही वे वृद्ध होने लगते हैं। दूसरों को देखकर, पुरानी धारणाओं, मान्यताओं के आधार पर, निराशावादी जीवन-दर्शन की प्रेरणा से जब मनुष्य में यह विश्वास जम जाता है कि चालीस वर्ष के बाद मेरी शक्तियाँ घटने लग जायेंगी और बुढ़ापे का आरम्भ होकर साठ-सत्तर की उम्र तक जीवन का अंत हो जाएगा तो इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बुढ़ापा मनुष्य के लिए मौत का पैगाम ही बन जाता है।
ऐसी अनेकों घटनायें घटित होती रहती हैं इतना ही नहीं असंख्यों लोग अपना इसी तरह की धारणाओं के कारण वृद्धावस्था में सड़ी-गली जिंदगी बिताते हैं। उनके विश्वास और निष्कर्षों के अनुसार शक्तियाँ नष्ट होने लगती हैं। दाँत गिरना, बालों की सफेदी, आंखों का जवाब दे जाना, इन्द्रियाँ निर्बल अशक्त होना, क्लान्ति के भार से दब जाना- ये सब उपद्रव मनुष्य की बुढ़ापे सम्बन्धी धारणा और विश्वास का ही परिणाम है। मनुष्य जितनी गिरती हुई बातें सोचेगा उतनी ही तीव्रता से वह गिरता चला जाएगा। जितना ही अपने को सामर्थ्य सम्पन्न समझेगा उतना ही वह सशक्त बना रहेगा, चाहे उसकी उमर कितनी ही क्यों न हो, महापुरुषों की अदम्य शक्ति का आधार उनकी प्रौढ़, प्रबल, पुरोगामी मानसिक शक्ति का होना ही है।
बुढ़ापे को दुखद और क्लेशमय बनाने का एक कारण है संसार और यहाँ के पदार्थों में आसक्ति का होना। 40-50 की उम्र तक पहुँचने पर मनुष्य के कई नाते रिश्ते जुड़ जाते हैं उसका सम्बन्ध व्यापक हो जाता है, कई नाती-पोते बेटों के बड़े परिवार का वह मुखिया बन जाता है। व्यापक क्षेत्र में संयोग-वियोग, सुख-दुःख, हानि-लाभ, अनुकूलता, प्रतिकूलताओं मोह की प्रेरणा से मनुष्य इनसे प्रभावित होने लगता है। सुखद परिस्थितियाँ कम ही आती हैं और आती हैं तो उन्हें बीतने में समय नहीं लगता। फलतः मोहग्रस्त आसक्त मनुष्य के मानस पर दुःखद स्मृतियाँ ही शेष रहती हैं। इनके कारण वह दुःखी होता है, रोता है, खिन्न होता है और जीवन के पुण्य अवसर बुढ़ापे को क्लेश एवं अशान्ति का आगार बना लेता है।
बहुत से लोग बुढ़ापे को अतीत की स्मृतियों और भविष्य की चिन्ता का अखाड़ा बना लेते हैं। वृद्धावस्था में अधिकाँश लोग भारी कार्यभार से मुक्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में बैठे-बैठे अतीत की स्मृतियों पर खेद पश्चाताप करने में और भविष्य की चिन्ता में उलझ जाते हैं और इसी उधेड़बुन में बुढ़ापे को कटु क्लेशपूर्ण, भार स्वरूप बना लेते हैं।
बहुत से लोग अपने बच्चों के बड़े हो जाने पर भी उनकी चिंता में उसी तरह परेशान रहते हैं जैसे उनके बचपन में रहा करते थे। फलस्वरूप ,वे बच्चों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगते हैं जब कि स्वातन्त्र्यप्रिय युवक स्वच्छन्दता-पूर्वक जीवन जीना चाहतें हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें वृद्धजनों का हस्तक्षेप और अत्यधिक चिन्ता, भार लगने लगती है वे स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने में वृद्धजनों को बाधा समझने लगते हैं जो परस्पर संघर्ष एवं गलत व्यवहार का कारण बनता है और इससे वृद्धजनों को ही उल्टा परिणाम मिलता है जिससे उन्हें दुखी होना पड़ता है। इसके अर्थ यह भी नहीं कि बच्चों के जीवन में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए किन्तु यह आवश्यकतानुसार और उतनी ही हो जो बच्चों के लिए सुपाच्य एवं पोषक रहे। देखा जाता है कि प्रौढ़ और सक्षम हो जाने पर पशु पक्षी भी अपने बच्चों के प्रति निश्चिन्त हो जाते है किन्तु मनुष्य ऐसा न करने के कारण उनके प्रति अधिक आसक्ति रहने से दुखी सन्तप्त एवं परेशान होता है।
बहुत से लोग वृद्धावस्था में मृत्यु के भय से त्रस्त रहते हैं। किन्तु यह अविवेक और अज्ञान का फल है। पका हुआ फल समय पर यदि डाली से अलग होने के बजाय डाल पर ही सड़ा गला जीवन बिताये जो क्या अच्छा रहेगा? मनुष्य भी आसक्ति और मोहवश असमर्थ सड़े गले, जीर्ण-शीर्ण, शरीर में चिपका रहे तो यह बुद्धिमानी नहीं होगी। जिसने बुढ़ापे में पहुँच करके जीवन के सुख दुःखों का मर्म जान लिया हो, जीवन में अनेकों सफलताएं अर्जित करली हों उसके लिए मौत से भयभीत होना अज्ञान ही माना जायेगा। नई जिन्दगी धारण करने के लिए, भावी जीवन यात्रा प्रारम्भ करने में जुट जाना ही वृद्धावस्था का सदुपयोग करना है।
वृद्धावस्था का सबसे सुन्दर सदुपयोग इसी में है कि जन कल्याणकारी परमार्थिक प्रवृत्तियों में अपनी समस्त शक्तियों को लगा दिया जाय। अपनी परमार्थिक रुचियों और प्रवृत्तियों का क्षेत्र व्यापक और विभिन्नताओं से युक्त बना लेना और उनमें निमग्न हो जाना चाहिए। इससे न तो मनुष्य को अपनी आयु के आँकड़े गिनने का अवसर रहता है न अतीत की स्मृतियों में डूबने का, न भविष्य की चिन्ताओं में खीजने का। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भारतीय जीवन व्यवस्था में अन्तिम समय को वानप्रस्थ, संन्यासी के रूप में बिताने का विधान है।
वृद्धावस्था में मनुष्य के जीवन का प्रवाह एक नदी की तरह होना चाहिए जो हिमशिखरों से पतली धारा के रूप में तीव्र वेग से निकलती है, अनेकों धाराओं को अपनी अंक में समेटती है। सामने आये रोड़ों को टक्कर मारकर हटाती है तो कभी नया रास्ता ग्रहण करती है। फिर मैदान में बहती है, धरती की प्यास बुझाती है। अन्त में शत-शत धाराओं में विभक्त हो गंभीरता के साथ विराट समुद्र में प्रवेश करती है। मनुष्य वृद्धावस्था में पहुँचने तक पूर्ण रूपेण “स्वः” से मुक्त हो परमार्थ को जीवन का अंग बना लें और निस्पृह भाव से सर्वजन हिताय कार्य करें तो वृद्धावस्था सचमुच ही जीवन का स्वर्ण अवसर सिद्ध हो सकती है।
बुढ़ापा और यौवन की स्थिति का सम्बन्ध मनुष्य के मन से है, शरीर से नहीं। बुढ़ापे में भी कई लोग जवानों से अधिक सक्षम होते हैं तो कई लोग जवानी में वृद्ध जनों से गये-बीते निकलते हैं। मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और फिर आत्मा न कभी वृद्ध होते न मरते हैं। “न जायते म्रियते वा कदाचन्” मनुष्य का मूल अस्तित्व अजर अमर अविनाशी है। यह आध्यात्मिक दर्शन हमारे जीवन का केन्द्र बन जाये तो बुढ़ापा नाम ही न रहे। योगी इच्छा-आयु प्राप्त करते हैं। लम्बी उम्र पाकर भी वे सदैव जवान दिखाई देते हैं, वह इसी रहस्य का परिणाम होता है। वे शरीर के घटने-बढ़ने शिथिल होने को महत्व न देकर अजर अमर आत्मा में ही रमण करते हैं।
किन्हीं अंशों में बुढ़ापे में मनुष्य की शारीरिक शक्तियों का विकास रुक जाता है किन्तु मनुष्य की मानसिक शक्तियाँ इतनी प्रौढ़ और पुष्ट हो जाती हैं कि वह शारीरिक शक्तियों के कम हो जाने पर अपने ज्ञान अनुभव मानसिक सन्तुलन, आत्मिक स्थिरता के आधार पर अधिक सुखी, शान्त, सन्तोष का जीवन बिता सकता है।
बुढ़ापा संसार और जीवन के अनुभव, ज्ञान, संघर्षों का सार भाग-नवनीत है। बुढ़ापा जीवन दीप का परिपुष्ट, प्रौढ़, धूम्र, रहित, पुण्य प्रकाश है जो शत-शत किरणों में छिटक कर अनेकों को ज्योति दे सकता है। बुढ़ापा जीवन विद्या का परिपक्व फल है जिसके रस की एक-एक बूँद असंख्य लोगों को नव जीवन प्रदान कर सकती है। बुढ़ापा श्रद्धा, सम्मान का धवल पुँज है जिसकी छाया में बैठकर नई पीढ़ी नई राह पा सकती है।
एक चोर किन्हीं संत के पास जाया करता था और रोज ही उनसे ईश्वर दर्शन का उपाय पूछा करता था। महात्मा जी कभी अवसर आने पर बताने की बात कह कर उसे टाल दिया करते थे।
एक दिन चोर ने बहुत आग्रह किया तो महात्मा जी ने पहाड़ की ऊँची चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा तुम वहाँ तक मेरे साथ छह पत्थर सिर पर रखकर चल सको तो वहाँ पहुँचकर मैं तुम्हें उपाय बता सकता हूँ!
चोर तैयार हो गया। संत जी ने छह पत्थर उसके शिर पर रख दिये और पीछे-पीछे चले आने का इशारा करके वे आगे चलने लगे।
कुछ ही दूर चला कि चोर हाँफने लगा, उसने महात्मा जी से कहा -भगवन्! बोझा बहुत है। इतने भार को लेकर मैं आगे नहीं चल सकता। संत ने एक पत्थर उतार दिया। चोर चलने लगा। पर कुछ दूर जाकर वह फिर लड़खड़ाने लगा। एक पत्थर और उतारना पड़ा। यही क्रम आगे भी चला। कुछ दूर चलने पर चोर थक जाता और संत जी को एक पत्थर उतारना पड़ता । अन्त में सभी पत्थर उतार देने पड़े तब कही वह चोटी तक साथ चल सकने में सफल हो सका।
चोटी पर पहुंच कर संत ने कहा भाई ! जिस प्रकार तुम छह पत्थर सिर पर रखकर चोटी तक पहुँच सकने में समर्थ न हुए उसी प्रकार जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के छह मनो विकारों का भार ढोता हुआ ईश्वर दर्शन में सफल नहीं हो सकता। यदि ईश्वर तक पहुँचना हो तो यह मनोविकारों के पत्थर उतार कर फेंकने ही पड़ेंगे, इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं।