Magazine - Year 1969 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ब्रह्मचर्य, शारीरिक और मानसिक स्वस्थता का आधार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
साँसारिक भोगों में एक विचित्र आकर्षण होता है। यही कारण है वे मनुष्य को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं। किन्तु इससे भी अद्भुत बात यह है कि यह जितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते जाते हैं, मनुष्य का आकर्षण उतना ही उनकी ओर बढ़ता जाता है और शीघ्र ही वह दिन आ जाता है, जब मनुष्य आकण्ठ डूबकर नष्ट हो जाता है। साँसारिक भोगों की और अशक्त की भाँति विवश होकर खिंचते रहना ठीक नहीं। मनुष्य को अपना स्वामी होना चाहिये, इस प्रकार यंत्रवत प्रवृत्तियों से संकेत पर परिचालित होते रहना चाहिए। संयम मनुष्य की शोभा ही नहीं शक्ति भी है। अपनी इस शक्ति को काम में लाकर, विनाशकारी भोगों के चंगुल से उसे अपनी रक्षा करनी ही चाहिये। मनुष्य जीवन अनुपम उपलब्धि है। इस प्रकार सस्ते रूप में उसका ह्रास कर डालना न उचित है और न कल्याणकारी।
मानव -जीवन का यदि ठीक-ठीक उपयोग किया जाये तो आशातीत उन्नति की जा सकती है। इसके सदुपयोग से ही तो मनुष्य देवकोटि में पहुँच जाता है, आत्म-साक्षात्कार कर लेता और ईश्वर तक को प्राप्त कर लेता है। संयम पूर्वक मानवीय मूल्यों के साथ जीवन-यापन करते रहना ही उसका सदुपयोग है। जो सबके लिए साध्य भी और उचित भी।
किन्तु खेद का विषय है कि आज लोग संयम की महत्ता भूलते जा रहे हैं। यही नहीं कि यह गलती अशिक्षित अथवा अल्पबुद्धि वाले लोग ही करते हो, शिक्षित समाज भी इस गलती का अभ्यस्त बनता जा रहा है। वह संयम के प्रति उदासीन ही हो ऐसा नहीं, वरन् उनकी ऐसी धारणा बन गई है कि संयम अथवा ब्रह्मचर्य जैसे आदर्शों की शिक्षा निरर्थक बात है। इसकी जीवन में कोई विशेषता अथवा उपयोगिता नहीं है। यह सब कहने सुनने की बातें हैं। जीवन में इस व्रत का पालन कर सकना कठिन ही नहीं असम्भव है। खाने-पीने मल-मूत्र त्याग करने की तरह संभोग वृत्ति भी स्वाभाविक है। इस पर हठपूर्वक अंकुश लगाना अप्राकृतिक क्रिया है, इससे लाभ के स्थान पर हानि की ही अधिक सम्भावना रहती है।
कहना न होगा कि यह एक भयानक धारणा है। किसी बुराई को, किन्हीं विवशताओं के वश करते रहने पर भी जब तक वह बुराई ही मानी जाती है, तब तक देर-सबेर उसके सुधार की आशा की जा सकती है। किन्तु जब किसी विकृति अथवा दुर्बलता को स्वाभाविक मान लिया जाता है, तब उसके सुधार की आशा धूमिल हो जाती है, लोग उसे निरंकुश तथा निर्द्वन्द्व होकर करने लगते हैं ओर दुर्बुद्धिता के कारण उसमें उसके कुफल भागी बनते हैं।
यह निर्विवाद सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का ह्रास कर देती है। भोग, जिनमें विष रूपी ही होते हैं। यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता है। यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्तियों का बाहुल्य होता है, साथ ही कुछ न कुछ जीवन तत्त्व का नव निर्माता होता रहता है, इसलिये उस समय उसका कुप्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु अवस्था का उत्थान रुकते ही इसके कुपरिणाम सामने आने लगते हैं। लोग अकाल में वृद्ध हो जाते हैं। नाना प्रकार की कमजोरियों और व्याधियों के शिकार बन जाते हैं। चालीस तक पहुँचते-पहुँचते सहारा खोजने लगते हैं, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती है और जीवन का भार बन जाता है। शरीर का तत्त्व वीर्य, जोकि मनुष्य की शक्ति और वास्तविक जीवन कहा गया है, अपव्यय हो जाता है। जिससे सारा शरीर एकदम खोखला हो जाता है।
जवानी का उन्माद मनुष्य को भोगों के प्रति मदान्ध बना देता है। जबकि यही वह आयु होती, जिसमें शुद्ध और स्वस्थ वीर्य प्रचुर मात्रा में बनता ओर अंगों को आवश्यक एवं पुष्टि प्रदान करता है। इस आयु का संचय ही, आगे चलकर जब वीर्य का निर्माण बन्द हो जाता है, उसी प्रकार आजीवन काम आता है, जिस प्रकार आय कालिक बचत निवृत्ति स्थिति में सहायक होती है। ठीक है कि युवावस्था ही गृहस्थाश्रम और सृष्टि सम्पादन की आयु होती है, किन्तु उसे भी अधिकाधिक ब्रह्मचर्यपूर्वक ही पालन करने का परामर्श दिया गया है। गृहस्थ भार के समय तो मनुष्य की और भी अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता होती है, अस्तु गृहस्थ के लिए संयम और भी आवश्यक हो जाता है। गृहस्थ पालन अथवा सृष्टि संचालन का अर्थ भोग-जीवन अथवा वीर्य का अपव्यय तो नहीं होता।
भारतीय शिक्षित समाज की यह धारणा कि ब्रह्मचर्य का व्रत अस्वाभाविक अथवा अप्राकृतिक प्रक्रिया है, भारतीय जीवन दर्शन, पद्धति विचारधारा अथवा संस्कृति की भावना के सर्वथा प्रतिकूल है। उनकी यह धारणा निश्चित रूप से पाश्चात्य विचार पद्धति की देन है, जिससे कि आज वे अधिकाधिक प्रभावित भारतीयों को अपनी इस भ्रान्त धारणा पर गहराई से विचार करना चाहिये और उसकी हानियों को खुली दृष्टि से देखना और स्वीकार कर लेना चाहिये।
इस प्रकार अविचारपूर्ण विपरीत प्रवाह में बह जाना उचित नहीं, संयम भारतीयों का वास्तविक धन है, भोगवादी जीवन दर्शन से उसकी कोई संगति नहीं। जहाँ पाश्चात्यों का वास्तविक रूप भौतिकता में मूर्तिमान है, वहाँ भारतीयों का सच्चा स्वरूप आध्यात्मिकता में सन्निहित है। अपना धर्म, अपनी संस्कृति अथवा अपनी सभ्यता छोड़कर दूसरों की नकल करने में कल्याण की सम्भावनायें समाप्त हो जाती है।
मनुष्य का अपना जीवन मौलिक अस्तित्व नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार अपना निश्चित पथ छोड़कर दूसरों के रास्ते चल पड़ना भी निरापद नहीं होता। क्योंकि उस पथ पर उसका लक्ष्य स्थित नहीं होता। अपना लक्ष्य से भटक कर इधर-उधर भागे फिरने से जीवन की सारी वाँछित सुख-सुविधायें नष्ट हो जाती है।
फिर, वह बात भी नहीं कि भोगवादी पाश्चात्यों का संयम सम्बन्धी कोई दृष्टिकोण ही न हो। इस संस्कृति में ब्रह्मचर्य जैसा कोई शब्द आवश्यक नहीं है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनमें कोई संयमी होता ही नहीं अथवा संयम के प्रति उनकी कोई आस्था ही नहीं होती है। ईसामसीह जीवन भर ब्रह्मचारी रहे। साथ ही वहाँ भी अच्छे-अच्छे तथा बुद्धिजीवी लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं। यदि वे लोग पशुओं की तरह असंयमी अथवा अविचारी जीवन में लिप्त रहते रहे तो इस प्रकार की क्राँतिकारी परिवर्तन किस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार की अपरिमेय शक्ति संयमित जीवन के अतिरिक्त भोग प्रधान जीवन में सम्भव ही नहीं। उधर भी खाओ-पियो और ऐश करो को जीवन-दर्शन मानने वाले लोगों को ऊँची दृष्टि से नहीं देखा जाता। ऐसे सर्व-सामान्य लोगों के साथ विचारशील व्यक्तियों की सहमति नहीं रहती। संयमित जीवन में ही जीवन जीवन का सच्चा उत्कर्ष तथा सच्ची शांति सन्निहित हे यह शाश्वत एवं सार्वभौम सिद्धान्त है। इसमें अपवाद की कोई गुँजाइश नहीं है।
गृहस्थ आश्रम में सन्तानोत्पादन का बहाना लेकर भोगपूर्ण जीवन बिताने वाले गृहस्थाश्रम का सही मन्तव्य नहीं समझते। सृष्टि क्रम को स्थिर रखने के लिए दाम्पत्य जीवन की अनिवार्यता स्वीकार अवश्य की गई है तथापि उसमें भी संयम का महत्व कम नहीं किया गया है। धर्म कर्तव्य के रूप में सन्तान सृजन और बात है और कामुकता के वशीभूत होकर दाम्पत्य जीवन को भोग के आचरण को संसार के सभी विद्वान् तथा विवेकशील व्यक्तियों के अनुचित तथा मानव-जीवन को नष्ट करने वाला बतलाया है। वेद भगवान् ने तो यहाँ तक कहा है कि- ‘‘ब्रह्मवर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाहनत” ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मनुष्य स्वस्थ तथा शक्तिवान ही नहीं बनता वरन मृत्यु तक को जीत सकता है।
ब्रह्मचर्य की महिमा बतलाते हुए छांदोग्योपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया है -” एक तरफ वेदों का उपदेश और दूसरी तरफ ब्रह्मचर्य - यदि दोनों को तौला जाय तो ब्रह्मचर्य का पलड़ा वेदों के उपदेश के पलड़े के बराबर रहता है।”
विषयों का निषेध करते हुये भगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है-
“ये हि संर्स्पशजा भोगा दुःखमानयः एव ते।
आद्यनतवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥”
जो इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब सुख हैं, यद्यपि वे विषयी पुरुष को सुख रूप प्रतीत होते हैं, किन्तु, वास्तव में होते वे दुःख के ही हेतु हैं और नाशवान् भी। इसलिए हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! बुद्धिमान् व्यक्ति उनमें आसक्त और लिप्त नहीं होते।
न केवल धर्म शास्त्रों में ही, अपितु लौकिक शास्त्रों में भी ब्रह्मचर्य की महिमा का बखान किया गया है। आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थ चरक संहिता में कहा गया है-
“सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम्।
ब्रह्मचर्योपवासश्च नियमाश्च पृथग्विधा॥
सज्जनों की सेवा, दुर्जनों का त्याग ब्रह्मचर्य, उपवास, धर्मशास्त्र के नियमों का ज्ञान और अभ्यास के नियमों का ज्ञान और अभ्यास आत्म कल्याण का मार्ग है-
यहीं नहीं कि भारतीय मनीषियों ने ही जीवन में ब्रह्मचर्य संयम का गुण गाया हो, विदेशी विचारकों ने भी इसकी कम प्रशंसा नहीं की है- प्रसिद्ध जीवशास्त्री डा. क्राउन एम०डी० ने लिखा-
ब्रह्मचारी यह नहीं जानता कि व्याधि ग्रस्त दिन कैसा होता है। उसकी पाचन शक्ति सदा नियंत्रित रहती है और उसको वृद्धावस्था में भी बाल्यावस्था जैसा आनन्द आता है।”
अमेरिका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डा. बेनीडिक्ट लुस्टा का कथन है-” जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा करता है, उतने अंशों तक वह विशेष महत्व का कार्य कर सकता है।”
सिद्ध सन्त स्वामी रामतीर्थ और योगी अरविन्द ने वीर्य का वैज्ञानिक महत्व प्रकट करते हुए, अपने अनुभव इस प्रकार व्यक्त किये है- जैसे दीपक का तेल बत्ती के द्वारा ऊपर चढ़कर प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिणत हो जाता है।” “रेतस (वीर्य) का जो तत्त्व रति करने के समय काम में लगता है, जितेन्द्रिय होने से वह तत्त्व, प्राण, मन और शरीर की शक्तियों को पोषण देने वाले एक महत्व के दूसरे तत्त्व में बदल जाता है। इस प्रकार आर्यों का आदर्श रेतस का ओजस में रूपान्तर होने के फलस्वरूप उसकी ऊर्ध्व गति करने का करने का आदर्श सर्वोच्च है”।
इस प्रकार क्या भारतीय और क्या पाश्चात्य सभी विचारकों और धर्म ग्रन्थों से लेकर लौकिक शास्त्रों तक में ब्रह्मचर्य व्रत, वीर्य रक्षा को लौकिक और पारलौकिक सभी उच्चताओं के लिए महत्त्वपूर्ण बतलाया गया है। संसार में आरोग्यप्रद दीर्घजीवन जीना एक प्रशंसनीय उपलब्धि है। और कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जा इसकी कामना न करता हो। इस उपलब्धि का आधार शास्त्रों तथा मनीषियों ने आहार, श्रम तथा संयम ही बतलाया है। आहार द्वारा प्राणियों की देह का निर्माण तथा पोषण होता है। श्रम के बिना न तो भोजन की प्राप्ति होती है और न वह पचाकर आत्मसात् ही किया जा सकता है। किन्तु शक्ति के अभाव में न तो श्रम किया जा सकता है और न भोजन की उपलब्धि अथवा पाचन। इसलिये इनमें भी इन्द्रिय संयम ही सबसे महत्त्वपूर्ण आधार है।
ब्रह्मचर्य का पालन किये बिना न तो स्वस्थ रहा जा सकता है और न काई महत्त्वपूर्ण कार्य। इसलिये जीवन की सार्थकता के लिए इस व्रत का पालन किया जाना चाहिये। आलस्य, प्रमाद, शृंगार-प्रियता अप्राकृतिक जीवन, कामुक-चिन्तन तथा वासनापूर्ण वार्तालाप आदि ब्रह्मचर्य में बाधक होते हैं। सदाचार एवं आहार स्वाध्याय, सत्संग, श्रम, ईश्वर -चिन्तन तथा दृढ़ संकल्प आदि के साधन अभ्यास करते रहने से कठिन कहा जाने वाला ब्रह्मचर्य का व्रत सरल तथा सुखदायक बन जाता है। जीवन की सफलता तथा स्वास्थ्य के लिए ब्रह्मचारी होकर रहना ही श्रेयस्कर तथा कल्याणकारी है।