Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मा का वास
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ब्रह्म-मुहूर्त का समय था। जगद्गुरु शंकराचार्य गंगा-स्नान करके लौट रहे थे। वेद-मंत्र बोलते हुए जल्दी-जल्दी अपने आश्रम की तरफ बढ़ रहे थे।
एक भंगी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। वह बाहर से देखने में मैला-कुचैला था। जनता-जनार्दन की सेवा पूरे निष्ठा के साथ करता था, इसे वह भगवान् की सेवा ही मानता था। जो कर्म उसे मिल गया था, उसे करने में न तो उसके मन में घृणा थी और न कोई उदासीनता। वह कर्म में ही भगवान् के दर्शन जो करता था।
सबेरे ही गन्दगी को सामने देखकर जगद्गुरु नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोले-अरे दूर हट! मेरा गंगा-स्नान व्यर्थ कर देगा क्या?” अद्वैतवाद के प्रतिपादक जगद्गुरु कहलाने वाले की ऐसी बात सुनकर उस आश्चर्य हो उठा। जीव-जीव में, प्राणि-मात्र में एक ही ईश्वर के प्रतिपादन करने वाले में इतना दृष्टि-दोष भंगी ने भाव भरे नम्र शब्दों में पूछा-भगवन् क्या शरीर से शरीर दूर हटाने को कह रहे हैं अथवा आत्मा से आत्मा को भी। मैं उलझन में हूँ, बात समझ में नहीं आ रही है। देह से देह दूर हो तो क्या? समीप हो क्या? क्योंकि यह तो जड़ है। आत्मा से आत्मा कैसे दूर हटाई जाय, जबकि सबमें एक ही आत्मा का वास है।”
विवेक भरे प्रश्न ने शंकराचार्य को झकझोर डाला। उनसे कुछ कहते न बना। अपने अज्ञान पर लज्जित होकर उन्होंने कहा-देव मुझे विद्वान् समझे जाने वाले अज्ञानी को कृपा कर क्षमा कर दें।”