Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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अदृश्य किन्तु प्रभावोत्पादक शक्ति-संगीत
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कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है तो वह संगीत ही है। संगीत से पीड़ित हृदय को शान्ति और सन्तोष मिलता है। संगीत से मनुष्य को सृजन-शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी-विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिये उपयुक्त संगीत-निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
शास्त्रकार कहते हैं-
“स्यरेल सल्लयेत योगी”
“स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते है” और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विचाराधीन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलतायें प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिये यह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवसायी किसान मजदूर स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रिया शक्ति बढ़ती और आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि-मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था-
“अभि स्वरन्ति बहवो मनीवियो राजा
नमस्य भुवनस्य निंसते”
-ऋग्वेद 9।85।3
अर्थात्- अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते है और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।
एक अन्य मन्त्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिये ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिये कठिन है। भक्ति भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल-करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र परमात्मा की अनुभूति कर सकता है। और उस प्रयोजन में-भक्ति भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है-
स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उकिथनः।
(ऋग्वेद 8।33।2)
हे शिष्य! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूँ तुम उसे प्राप्त करने के लिये संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।
पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छन्द प्रादुर्भूत हुआ-
गायत्रीमुखादुदपत दिति च ब्राह्मणम्।
(निसक्त)
मान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा है।
संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिये एक प्रण वेद की ही रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुये हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को-कितनी ही तुच्छ हों-भगवान् से मिला सकता है। अब इस सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यतायें भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं।
विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत् संगीत का अनुसन्धान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनंद को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की है दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ हैं, इन दोनों का ही प्रकृति जड़-तत्त्व ओर जीवन चेतन-तत्त्व दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।
लन्दन के कुछ अनुभवी डाक्टर गर्भस्थ शिशु के लिए संगीत की धुनें बजाकर यह पता लगाने की चेष्टा कर रहे है कि गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास किस प्रकार होता है और मधुर ध्वनियों से स्नायविक प्रणाली पर क्या प्रभाव होता है।
अनेक गर्भवती स्त्रियों को संगीत की ध्वनियाँ सुना कर परीक्षण किये गये। 290 में से 284 बच्चे ऐसे निकले जो सामान्य बच्चों से अधिक स्वस्थ, वजनदार और प्रसन्न मुख थे। जन्म लेने से 14 सप्ताह पूर्व गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास हो जाता है और तब वह संगीत ध्वनियों से अधिक तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये वहाँ के डाक्टरों का यह कथन है कि गर्भवती स्त्रियों को संगीत का अभ्यास अथवा रसास्वादन अवश्य करना चाहिये। जो गा-बजा नहीं सकती उन्हें अच्छे भजन-कीर्तन भक्ति, करुणा, प्रेम, दया और सेवा के प्रेरक गीत सुनने के लिए कोई साधन अवश्य बनाना चाहिये।
आजकल प्रातःकाल प्रायः सभी भारतीय रेडियो स्टेशनों से भक्ति-भावना से ओत-प्रोत भजन प्रसारित किये जाते हैं, जिन घरों में रेडियो, ट्रांजिस्टर हों, उन घरों में प्रातःकाल यह भजन अवश्य सुने जाने चाहिये। उससे कार्य क्षमता भी घटती नहीं एकाग्रचित्त होने के कारण दूसरे काम भी तेजी से होते हैं और कानों से स्वर लहरियों का आनन्द भी मिलता रहता है।
पूर्वी जर्मनी के गोटिंगन नगर के संगीत से इलाज करने वाले प्रो. डा० जोहोंस एन॰ शूमिलिन ने यह सिद्ध कर दिया है कि बीमार पशु भी मानव की भाँति संगीत से लाभ ही नहीं उठा सकते वरन् उन्हें रोग-मुक्त भी किया जा सकता है। उन पर संगीत का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। गोटिंगन से प्रकाशित एक पत्रिका में उन्होंने लिखा है-दुखती आँखों में संगीत प्रसन्नता की चमक पैदा कर देता है। मैंने ऐसे कुत्ते और बिल्ली देखे हैं, जो लोग-वाद्यों के साथ थिरकने लगे हैं, यदि मनुष्येत्तर प्राणियों के जीवन-स्पन्दन को संगीत की सामर्थ्य से मोड़ा जा सकता है तब तो मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी पर उसके प्रभाव का कहना ही क्या?”
कोई 15 वर्ष पूर्व लखनऊ के एक वैज्ञानिक डाक्टर सी० टी० एम॰ सिंह ने स्लाइडों के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि गायें, भैंसें संगीत सुनकर अधिक दूध देने लगती हैं। कटक और दिल्ली के कृषि अनुसन्धान केन्द्रों में भी ऐसे प्रयोग और परीक्षण हुये हैं और यह देखा गया कि संगीत का प्रभाव पेड़-पौधों तक में उत्पादक शक्ति के रूप में होता है। कोयम्बटूर के सरकारी कालेज में भी इस प्रकार की परीक्षण चल रहे हैं। विदेशों से ऐसे समाचार मिल रहे, जिनमें दावा किया जाता है कि राग-रागनियों का प्रभाव गन्ने, धान, शकरकन्द, नारियल आदि पर भी पड़ता है। उत्तर भारत में अभी भी धान को रोपाई के लिये विशेष रूप से गाँव की उन स्त्रियों को ले जाया जाता है, जो अच्छे और मधुर-स्वरों में गीत गा सकती हों और फिर सामूहिक स्वरों में गीत गाते हुए, धान की रोपाई की जाती है। ऐसे खेतों में और खेतों की अपेक्षा फसल अच्छी तैयार होती है।
प्राचीनकाल में समीपवर्ती तीर्थ यात्राओं देव-दर्शनों और मेलों पर गाते हुये जाने की प्रथा थी। अभी भी गीत गाते हुए परिक्रमा आदि देने की प्रथा है, मथुरा यात्रा पर जाने वाले कुछ बुन्देलखण्डी तीर्थ-यात्री बिरहे गाते हुए और कुछ शिव उपासक ‘भोला तेरी बम’ गाते हुये निकलते हैं, उनका कहना है कि गीतों के माध्यम से वे यहाँ की धार्मिक भावनायें खींच ले जाते हैं। तीर्थ यात्राओं और पर्व-त्योहारों पर गाँव-गाँव संगीत और भजनों का प्रचलन था, उससे एक बार तमाम भारतवर्ष संगीत से मुखरित हो उठता था, उसी का फल था कि वृक्ष वनस्पति अधिक और मीठे फल देते थे। दूषित तत्त्वों का संहार होता था और उससे बीमारियाँ आदि कम फैलती थी।
गीत से जो उल्लास पैदा होता था, वह गन्दे स्थानों से गुजरने पर भी वहाँ की प्रतिक्रिया रोक देता था और संगीत के प्रणव से यात्री स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लौट आता था, उस पर किसी प्रकार की बीमारी का असर नहीं होता था। आज गाने का शोक कम होता जा रहा है, उसी कारण लोग तरह-तरह के दुर्गुणों में ग्रस्त होते, स्वास्थ्य सोते चले जा रहे हैं। संगीत जैसी उत्पादक सत्ता से सम्बन्ध-विच्छेद कर मनुष्य जाति ने अपनी ही हानि की है।
सामूहिक संगीत का महत्व और भी अधिक है, इस पर डाक्टरों का मत है कि जब कई व्यक्ति एक साथ गाते हैं, तो सब लोगों का स्वर प्रवाह एवं आन्तरिक उल्लास मिलकर एक ऐसी तरंग शृंखला उत्पन्न करता है, जो वातावरण में मिलकर सबको उल्लसित कर देता है, फाल्गुन के महीने में फाग की धूम होती है, तब बच्चे-बूढ़ों में भी उल्लास फूट पड़ता है और वे युवकों की तरह उत्फुल्ल दिखाई देने लगते हैं। सामूहिक गायनों में सभी को अपने प्रयत्न से अधिक ही लाभ मिलता है और वह लाभ इतने व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है कि प्रत्येक श्रोता चाहे वह गाने में भाग न भी ले रहा हो, उस आनंद सरोवर में डूब जाता है।
गाने की धुनों के साथ हाथ-पाँव अनायास ही गति करने लगते हैं, इसका तात्पर्य ही यह है कि संगीत का मनुष्य जीवन और आत्मा से सीधा सम्बन्ध है। आत्मा उसके बिना कुण्ठित हो जाती है, इसलिये आत्मिक प्रगति के प्रत्येक इच्छुक को गाने और संगीत सुनने का लाभ आवश्यक लेना चाहिये।
योग-शास्त्रों में संगीत की बड़ी चर्चा है। तत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि अदृश्य जगत् की सूक्ष्म कार्य प्रणाली पर जिधर भी दृष्टि डालते हैं, उधर ही वह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से सभी दिशायें और विश्व भुवन झंकृत हो रहा है। यह स्वर लहरियाँ वीणा, भ्रमर, झरना, नागरी भेरी, वंशी आदि की तरह सुनाई देती हैं। जिस तरह सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी तरह चित उन स्वर लहरियों में आसक्त होकर सभी प्रकार की चपलतायें भूल जाता है। नाद से संलग्न होने पर मन ज्योतिर्मय हो जाता है और जो स्थिति कठिन साधनाओं से भी कठिनाई से मिलती है, वह स्वर योग के साधक को अनायास ही मिल जाती है।
गीत परमात्मा के आशीर्वाद रूप में मनुष्य को मिला हैं, उस आशीर्वाद की वर्षा अपने ऊपर आप की जा सकती है। धन-सम्पत्ति न मिले न सही पर संगीत का आनन्द तो वायु, जल, सूर्य की ऊष्मा की तरह उन्मुक्त रूप से हर कोई प्राप्त कर सकता है। इस महाशक्ति से सम्बन्ध जोड़कर प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुणों और आत्मिक सम्पदा का विकास और दूषित तत्त्वों से देह, मन और आत्मा की रक्षा करनी चाहिये। साथ ही वह भी ध्यान रखना चाहिये कि इस महाशक्ति का दुरुपयोग कामुकता जैसी दुष्प्रवृत्तियों में न किया जाय, जैसा कि आजकल सिनेमा वाले कर रहे हैं। शृंगार-रस को कामुकता के सर्वभक्षी गर्त में गिराकर आज ऐसे ही संगीत का सृजन किया जा रहा है, जो हित के स्थान पर अहित ही अर्जित कर सकता है। संगीत का प्रवाह भावनाओं को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ने के लिये ही किया जाना चाहिये। इसी में उसकी सार्थकता है।