Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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ग्रीष्म शिविरों में आने का सादर आमन्त्रण
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जिनके लिये सम्भव हो यह अलभ्य अवसर चूकें नहीं
जीवन विकास की महत्त्वपूर्ण दिशायें देने की दृष्टि से ज्येष्ठ और आश्विन मास में हर वर्ष गायत्री तपोभूमि में शिक्षण शिविरों की व्यवस्था होती चली आई है। अब चूँकि हमारा कार्यकाल समाप्त हो रहा है इस लिये शिक्षण का स्तर बहुत आगे बढ़ा दिया गया है और आवाहन किया गया है कि जिनके लिये सम्भव हो वे इन शिविरों में अवश्य सम्मिलित हों।
हमने जीवन के कई क्षेत्रों में कतिपय प्रकार के संघर्षों से जूझते हुए आशाजनक सफलतायें पाई हैं और कितने ही महत्त्वपूर्ण अनुभव एकत्रित किये हैं। इन शिविरों में अपने इन्हीं रहस्यमय अनुभवों को बताना, सिखाना है, ताकि वैसी ही प्रगति दूसरों के लिये भी सम्भव और सरल हो सके। पत्र-व्यवहार और साहित्य द्वारा हमारे विचार तो दूरवर्ती लोगों को प्राप्त होते रहे हैं पर प्राण शक्ति का लाभ उठा सकना समीपता से ही सम्भव है। गर्मी का लाभ आग की समीपता से ही मिलता है। सत्संग एवं सान्निध्य का भी उतना महत्व है। इससे जो मिलता है वह दूर रहने पर मिल सकना कठिन है। पारस्परिक सद्भावना, घनिष्ठता एवं आत्मीयता के अभिवर्द्धन के अतिरिक्त प्राण शक्ति का पारस्परिक प्रत्यावर्तन भी इस शिविर शृंखला का विशेष प्रयोजन है। जिनके लिये सम्भव हो उन्हें शिविरों में आने के लिये आग्रहपूर्वक इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रित किया जा रहा है। हर वर्ष ज्येष्ठ में नौ-नौ दिन के दो शिविर किये जाने से वे चार किये जायेंगे। (1) नौ दिनों में 24 हजार का एक गायत्री अनुष्ठान इस पुनीत सिद्धपीठ में हमारे समीप और संरक्षण में रह कर करना, घर पर किये हुए 24 लाख पुरश्चरण के बराबर फलप्रद होता है। सभी शिविरार्थी प्रायः 55555 एक अनुष्ठान उन दिनों करेंगे, जिससे उन्हें नया आत्म-प्रकाश प्राप्त हो। (2) हमारे जीवन निष्कर्ष एवं अनुभवों को प्रतिदिन दो प्रवचनों के रूप में सुनना एक अनुपम लाभ है। 18 प्रवचनों में हमारी अनुभव गीता के 18 अध्याय सुनने का एक अनोखा महत्व है। (3) व्यक्तिगत समस्याओं एवं कठिनाइयों पर आवश्यक विचार विनिमय, परामर्श तथा उन्हें सरल बनाने में सम्भव सहयोग। (4) ब्रज के लगभग सभी तीर्थों की सामूहिक यात्रा। यह चार लाभ ऐसे हैं, जिनसे इन शिविरों में आना एक अविस्मरणीय जीवन घटना की तरह सदा याद रहती है।
इस बार एक अन्य अनोखा कार्यक्रम भी है, जो कभी पहले नहीं हुआ और न आये होने की सम्भावना है। वह है अपनी कार्य पद्धति पर एक रंगीन फिल्म का निर्माण। युग-निर्माण योजना का आरम्भ और अन्त तथा बीच में हो चुके और होने वाले कार्यक्रमों का स्वरूप, यह सभी बातें एक कथानक के रूप में प्रस्तुत की जायेगी। इन्हीं पर एक पूरी फिल्म बनेगी। उसमें अभिनय कर्ता अपने शिविरार्थी हो होंगे। प्रयत्न यह किया जाएगा कि चारों शिविरों में आने वाले प्रायः सभी सदस्यों को उसमें किसी रूप में भाग लेने का अवसर मिल जाय। ताकि इन सभी की छवियाँ चित्र-बद्ध होकर एक चिरस्थायी स्मृति के रूप में विद्यमान् रहें। यह फिल्म समय-समय पर अपनी ही सिनेमा मशीनों से शाखाओं में दिखाने के लिये भेजे जाते रहें थे और परिवार के दूरगामी सदस्य भी इस माध्यम से परस्पर एक दूसरे के दर्शन का लाभ लेते रह सकेंगे। नव-निर्माण के कार्यक्रमों की जानकारी और प्रेरणा सर्वसाधारण को देने के लिये तथा परिजनों का परिचय एक दूसरे तक कराये रखने की दृष्टि से यह फिल्म व्यवस्था उपयोगी समझी गई और उसका प्रबन्ध किया गया।
गायत्री तपोभूमि में स्थान बहुत सीमित है। प्रवचन-हाल भी बहुत बड़ा नहीं है। इसलिये शिविरार्थियों की संख्या सीमित रखी जाती है। यह इसलिये भी आवश्यक है कि आगन्तुकों के साथ समुचित संपर्क रख सकने एवं विचार विनिमय कर सकने में सुविधा हो एक बार ही बहुत अधिक लोगों को बुला लेने पर व्यक्तिगत संपर्क की सुविधा नहीं रहती, जो नितान्त आवश्यक है। हर शिविर में एक नियत निर्धारित संख्या के लिये ही स्वीकृति देना और जिन्हें स्वीकृति है, उनके अतिरिक्त अन्यों को न आने की रोक रखने का यही कारण है।
पिछले दिनों कई सज्जन कई शिविरों में भी विशेष छूट प्राप्त कर लेते थे पर इस बार कड़ाई के साथ यह प्रतिबन्ध रखा गया है कि केवल एक ही शिविर में रहा जा सकेगा। पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चे जिनकी गोदी में हैं, ऐसी महिलाओं को आने की भी इस बार रोक रहेगी। भोजन स्वयं बनाने में जिन्हें असुविधा है, उनके लिये सस्ते होटलों की व्यवस्था की जा रही है, ताकि उन तेज गर्मी के दिनों में भोजन बनाने की कठिनाई जिन्हें अखरती है, उन्हें भी सुविधा मिल सके।
इस बार क्षेत्र के विभाजन का भी क्रम रखा गया है ताकि एक प्रान्त के लोग एक समय एक साथ इकट्ठे होकर परस्पर परिचय प्राप्त कर सकें और अपने क्षेत्र में काम करने के लिये एक दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सकें। कोई अनिवार्य कठिनाई न हो तो अपने प्रान्त की दृष्टि से ही शिविर का चुनाव करना चाहिये और उसी में आने की स्वीकृति माँगनी चाहिये। चार शिविरों का क्रम इस प्रकार है-
(1) पहला शिविर- दिनाँक 22 से 30 मई 1969 तक। प्रान्त गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, मद्रास।
(2) दूसरा शिविर- दिनाँक 1 से 9 जून तक। प्रान्त- मध्यप्रदेश, आन्ध्र, मैसूर।
(3) तीसरा शिविर- दिनाँक 11 से 19 जून तक। प्रान्त-राजस्थान पंजाब, हरियाणा, हिमांचल-प्रदेश दिल्ली, जम्मू-काश्मीर
(4) चौथा शिविर- दिनाँक 21 से 29 जून तक। प्रान्त- उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, उड़ीसा, नेपाल, भूटान, नागालैण्ड, बंगाल, त्रिपुरा, मणिपुर।
इस बीच 31 मई और 10 तथा 20 जून के तीन दिन इसलिये खाली रखे गये हैं कि शिविर में एक दिन पहले तथा एक दिन बाद में जाने की हलचल उस दिन पूरी होती रहे और किसी कार्यक्रम में बाधा न पड़े।
आगन्तुकों को अपना तथा अपने साथियों का पूर्ण परिचय लिखते हुए यथा सम्भव शीघ्र ही स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिये और उस स्वीकृति पत्र को साथ ही लेकर आना चाहिये। अच्छा तो यह है कि मार्च मास में ही स्वीकृति प्राप्त कर ली जाय, 20 अप्रैल अन्तिम तिथि रखी गई हैं पर यदि निर्धारित संख्या पहले ही पूरी हो गई तो बीच में भी प्रवेश बन्द किया जा सकता है। अतएव जिन्हें आना हो यथासम्भव शीघ्रता कर लें तो ही अच्छा हैं।