Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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जप और ध्यान सूक्ष्म ही नहीं स्थूल परिणाम
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अखण्ड-ज्योति के पिछले एक अंक में ध्यान की वैज्ञानिकता पर प्रकाश डालते हुए शिकागो के “टेड सेरियस” और उनके मित्र जोहन्स का उदाहरण दिया गया था। यह दोनों मित्र मिलकर इच्छा-शक्ति द्वारा हजारों मील दूर की फोटो कैमरे पर उतार देते हैं यही नहीं वे मानसिक एकाग्रता द्वारा युगों पूर्व घटित छोटी-सी छोटी घटना के कैमरा फोटो खींच देते हैं। कादम्बिनी के एक अंक में उनकी कल्पना द्वारा खींचा गया लाल किले का और फतेहपुर सीकरी के बुलन्द दरवाजे के चित्र छपे है जो लगभग हूबहू हैं। यहाँ एक ऐसा उदाहरण दिया जा रहा है जो भारतीय धर्म और दर्शन के नाम स्मरण, ध्यान और रूप-स्मरण द्वारा आन्तरिक क्षमताओं के विकास का प्रमाण प्रस्तुत करता है यदि मनुष्य तदाकार साधना में मन को इतना एकाग्र कर ले कि मन के एक बिन्दु पर इष्ट का कोई रूप ज्यों उतार दे तो भले ही वह चित्र, देवी देवता या काल्पनिक ही क्यों न हो मन में वह सामर्थ्य हैं कि वह शरीर रक्त, प्राण, बुद्धि और प्रज्ञा शक्तियों को ठीक उसी तरह का बना देता है जिस प्रकार का इष्ट होता है।
साधना काल में शिष्य गुरु का ध्यान करा है, साकार और सगुण उपासक भगवान् राम, भगवान् कृष्णा, नृसिंह, परशुराम, हनुमान, भैरव आदि की उपासना करते समय उनके रूप का ध्यान करते हुए जप और नाम संकीर्तन करते हैं देखने में समय गंवाने जैसी इस क्रिया में भी वैज्ञानिकता हो सकती है केवल मात्र ध्यान और स्मरण से जिसका ध्यान किया जा रहा है उसकी समस्त क्षमताओं का अपने अन्दर विकास किया जा सकता है किन्तु वैज्ञानिकों द्वारा पूर्ण परीक्षित निम्न उदाहरण यह बताता है कि ध्यान एक पूर्ण विज्ञान सम्मत विधान हैं जो सामान्य पंक्ति में भी इच्छित असामान्य गुणों और शक्तियों का विकास कर सकता है।
कोनेर सेरिथ (बेबेरिया) की थेरेसी न्यूमेन का जन्म 1998 में गुड फ्राइडे के दिन हुआ। 20 वर्ष की आयु में एकाएक एक दुर्घटना हुई जिसमें उनकी दोनों आँखें और दोनों हाथ-पाँव जाते रहे। मनुष्य जब तक साँसारिक सुखों के भोग की क्षमता रखता है तब तक कम ही लोग आध्यात्मिक सत्यों की शोध की ओर तत्पर होते हैं पर यह कैसे विडम्बना है कि कष्ट पड़ते ही मनुष्य भगवान् की, आध्यात्मिकता की शरण लेता है। यदि मनुष्य अशक्त होने से पहले ही अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित करले तो उसे मनुष्य शरीर सार्थक करने में असुविधा न हो समय की चूक अन्ततः पश्चाताप का ही कारण बनती हैं और जो जीव भगवान् के घर से असीम क्षमतायें लेकर जन्मता है वह सब कुछ यहाँ खोकर हाथ मलता हुआ चला जाता है।
अन्धी और अपंग हो जाने पर थेरेसी न्यूमेन को याद आया कि बेबेरिया में कोर्ठ थेरेसी नाम के महान् सन्त है उन्होंने सन्त थेरेसी से संपर्क स्थापित किया और उन्हें आध्यात्मिक मार्ग-दर्शक के रूप में याद करने लगी। 1923 में पहली बार उनके जीवन में एक विलक्षण घटना घटी वह था उनका अन्धापन और अपंगता का दूर हो जाना। अब थेरेसी न्यूमैन को साँसारिकता से पूर्ण अरुचि हो गई और वे भगवान् ईसामसीह का ध्यान और जप करने लगी, उन्हें धीरे-धीरे स्वादयुक्त भोजन और पेय से भी अरुचि हो गई क्योंकि मन की चंचलता के वही सब से बड़े कारण थे। भगवान् में मन एकाग्र करने के लिये शुद्ध और सात्विक आहार की आवश्यकता थी। थेरेसी ने वही लिया। पूजा में चढ़ाई गई एक छोटी सा केक ही वह लेती और उठते बैठते महाप्रभु ईसा का ही ध्यान करती।
महाप्रभु ईसा की आत्मा से तदाकार के सूक्ष्म आत्मिक गुणों को समझना सम्भवतः शक्य न होता पर 1926 में ही जब उनके मस्तक छाती, हाथ, और पैरों में ईसा के से घाव पैदा होने शुरू हो गये तो लोग यहाँ तक कि वैज्ञानिक भी आर्श्चय चकित हुये बिना रह सके। भावनाओं का अस्तित्व विज्ञान सिद्ध हो जोन पर भी उसकी महत्ता और विज्ञान न जानने के कारण जो वैज्ञानिक भावनाओं की उपेक्षा करते रहते हैं ; उन्हीं वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की। 16 जुलाई 1627 को प्रोटेस्टेंट जर्मन समाचार पत्र के सम्पादक डॉ. फ्रिट्ज गैरलिक कोनेर सेरुथ जाकर थेरेसी से मिले। वे लम्बे अर्से से थेरेसी की-आलोचना करते आ रहे थे। उन्होंने थेरेसी के पास कई दिन रहकर बिताये। उन्होंने देखा कि वे कुल एक छोटी सी केक पर दिनभर बिताती है-पूछने पर उन्होंने बताया-मैं अपने लिये प्रकाश से सारे जीवनःतत्व ग्रहण कर लेती हूँ। उन्होंने बताया मैं हर शुक्रवार को ईसा के कथित स्वरूप का ध्यान करती हूँ, उस समय उनकी अनुभूतियाँ एकाकार हो उठती है। डॉ. फ्रिट्ज गैरलिक लिखते है-”मैंने देखा कि उन्हें शुक्रवार के दिन प्रातःकाल से ही अचेतनता बढ़ने लगी, उसी अवस्था में उनके हाथ, मस्तक और पाँवों के घावों से अनायास बिना किसी दबाव के रक्त रिसने लगा सामान्यतः वे 121 पौण्ड वजन की थीं पर उस दिन उनका भार 10 पौण्ड कम हो गया। गुरुवार की रात बारह बजे से दर्द बढ़ना शुरू होता है और शुक्रवार के अपराह्न एक बजे तक बड़ी ही व्यथापूर्ण स्थिति रहती है। उस कष्ट के बीच थेरेसी के मुख मण्डल पर अपूर्व कान्ति दिखाई देती थी। कई बार तो मुझे यह भ्रम हो जाता था कि थेरेसी की मुखाकृति में ईसा की मुखाकृति प्रतिबिंबित हो उठी है। इसके बाद स्थिति सुधरने लगती है। और दूसरे दिन तक घाव ठीक हो जाता है। उस दिन उनकी मानसिक चेता विक्षुब्ध हो जाती और एक दिव्य जगत में प्रवेश कर जाती। तब वे हिब्रू भाषा में प्रवचन प्रारम्भ करती और यह प्रवचन कई बार तो अक्षर ब अक्षर ईसा मसीह के प्रवचन होते। आत्मिक साहचर्य और सायुज्य द्वारा कोई व्यक्ति किसी दैवी शक्ति या महान् आत्मा के गुणों से परिपूर्ण हो सकता है यह देखकर मैं दंग रह गया और आज भी उसका कारण जानने के लिये लालायित हूँ पर लगता है कि उसका उत्तर देने में विज्ञान नितान्त असहाय और असमर्थ है।”
यह विवरण उन्होंने अपने अखबार में छापा था। स्वामी योगानन्द ने भी थेरेसी से भेंट की थी और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “आटोबाईग्राफी ऑफ ए योगी” में इस घटना का ऐसा ही उल्लेख किया है।