Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात
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गुरुदेव का अवतरण और कार्यक्षेत्र
परम पूज्य गुरुदेव की विदाई हम सबको शूल की तरह चुभ रही है। जब तक वे साथ थे गहराई से देखने समझने का अवसर ही नहीं मिला। निकटवर्ती वस्तु सदा कम महत्व की लगती है और उसका सही मूल्याँकन करना सम्भव नहीं होता। जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं वह कितनी द्रुतगति से चलती घूमती है इसका पता ही नहीं चलता। अन्तरिक्ष यात्रियों ने जब दूर से उदय होती हुई, अस्त होती हुई नीलाभ पृथ्वी के सौंदर्य को देखा तो आश्चर्यचकित और भाव-विभोर हो गये। पर हम रोज उसी रूप राशि पृथ्वी पर रहते हुए भी न उसकी गति समझ पाते हैं और न प्रकाशवान् आभा देख पाते हैं। अपनी काया को ही देखें उसके अंग-प्रत्यंगों में जो अद्भुत यन्त्र लगे हुये है उनका न तो स्वरूप दीखता है और न कृत्य हाथ सीप घोंघे ही लगते हैं मोती तो वे ही ढूँढ़ पाते हैं जो गहराई तक प्रवेश करने का पुरुषार्थ कर सकने की क्षमता रख सकें। गाँधी जी को जिनने बाहर से देखा वे दर्शन करने मात्र का लाभ प्राप्त कर सके पर जिनने उनके अन्तरंग को परखा और प्रकाश ग्रहण किया वे नेहरू, पटेल, लाल बहादुर, राजेन्द्र बाबू, राधाकृष्णन जैसे इतिहास प्रसिद्ध महामानव बनने में सफल हो गये। हम में से बहुत कम ऐसे है जिन्होंने पू. आचार्य जी की हिमालय जैसी ऊंचाई और समुद्र जैसी गहराई को बारीकी से समझने का प्रयत्न किया हो।
आमतौर से उन्हें उतना ही समझा जाता रहा जितना कि उनके स्थूल क्रिया-कलाप चमड़े की आँखों से दीख पड़ते थे। उनकी एक लोक प्रसिद्ध आदत यह थी कि वे जो कुछ समझ में आता है पर विश्लेषण कर्ता जब उसका प्रत्यक्षीकरण विश्लेषण करते हैं तब पता चलता है कि यह देह जो मोटी दृष्टि से देखने पर तुच्छ और देय लगती है वस्तुतः कितने भारी आश्चर्य भाण्डागार के रूप में विनिर्मित हुई है।
धरती और काया की तरह ही परम पूज्य गुरुदेव का महान् अस्तित्व हम लोगों के बीच लम्बे अर्से से विद्यमान था। वे कितने अद्भुत और कितने महान् थे इसकी जानकारी का एक अंश ही हम अति निकटवर्ती सहचरों को मिल सका फिर जो थोड़ा दूर के फासले में रह रहे थे उनकी जानकारी और स्वल्प रही हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। चमड़े की आँख से वही देखा जा सकता है जो स्थूल या प्रत्यक्ष है जो समुद्र के किनारे खड़े रहते हैं उनके निज की पूजा, उपासना, साधना, तपश्चर्या करते थे उसका फल बालकों को मिठाई बाँटने में खर्च करने का आनन्द लेते रहते थे। फलस्वरूप उनके इर्द-गिर्द बालकों की भारी भीड़ लगी रहती थी। बालकों से मतलब भौतिक प्रगति के लिए लालायित और उलझनों से उद्विग्न उन व्यक्तियों से है जो अपने पुरुषार्थ से अपनी गुत्थी सुलझा सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे और किसी दूसरे की समर्थ सहायता की अपेक्षा करते थे। आत्मिक दृष्टि से प्रौढ़ व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से अपनी मंजिल आप पूरी करते हैं और प्रारब्ध की जटिलता को साहस और धैर्य पूर्वक सहन करते हैं। बालकों की मनःस्थिति उससे भिन्न होती है। वे अभिलाषा बहुत करते हैं पर उस उपलब्धि की क्षमता नहीं रखते। मिठाई देने का मतलब इस वर्ग की छोटी छोटी आवश्यकताओं को उपहार स्वरूप पूरी करके उन्हें प्रमुदित और उत्साहित देखना है। गुरुदेव को इसमें बड़ा आनन्द आता था। वे स्वभावतः खाने में बहुत उदासीन और खिलाने में बहुत रस लेने वाले ही थे। अपने भोजन को सस्ते से सस्ता और कम से कम रखने में उनकी जितनी अखरने वाली कंजूसी देखी जाति थी उतनी ही सराहनीय उदारता दूसरों को खिलाने में मिलती थी। उनके चौके में सदा दर्जनों अतिथि उपस्थित रहते थे। अकेले तो शायद ही उन्होंने कभी खाया हो। जब कभी बिना अतिथि का दिन आ जाता तो दुःख होकर उस श्रुति वचन की याद करते जिसमें कहा गया है कि -”जो अकेला खाता है सो पाप खाता है।”
उपासना के क्षेत्र में प्रवेश किया तो यह आदत दूसरे रूप में परिणत हो गई। अभाव ग्रस्त, शोक संतप्त उलझनों में जकड़ा हुआ कि कर्तव्य विमूढ़ जो भी सामने आया, उसकी मनोव्यथा समझने में देर न लगी। करुणा से भरा हुआ हृदय देखते देखते पिघल गया। नवनीत और हिम खण्ड तब गलते और पिघलते हैं जब धूप उन्हें सताती और तपाती हैं। सन्त पराई व्यथा को अपनी व्यथा मानकर अपनी सहज सम्वेदना से व्यथित होकर गलते पिघलते रहते हैं। गुरुदेव का रहन-सहन सम्वेदना से व्यथित होकर गलते पिघलते रहते हैं। गुरुदेव का रहन-सहन और वेष-भूषा देखकर उन्हें एक अति सामान्य व्यक्तित्व समझा जा सकता था पर वे वस्तुतः बहुत ऊँचे थे। उस ऊँचाई के आधार उनकी बालकों जैसी निर्मलता और बादलों जैसी उदारता मुख्य थे। यों न जाने कितने दैवी गुण लेकर वे जन्में और कितने साधु स्वभाव बढ़ाते संजोते चले गये पर उनकी माता जैसी ममता इतनी विस्तृत थी कि जो भी संपर्क में आया उनके सहज स्नेह में सराबोर होता चला गया। प्रथम बार अपरिचित के रूप में आने वाले ने भी यही समझा हम आचार्य जी के चिर–परिचितों और सघन आत्मीयजनों में हैं।
पवन को हर कोई यह समझता है कि वह हमारे ऊपर ही पंखा डुला रहा है, सूर्य को हर कोई यह पाता है कि उसी के घर रोशनी, गर्मी बखेरने आता है पर वस्तुतः पवन और सूर्य इतने विशाल और महान है कि एक नहीं असंख्यों को उनकी सहायता का लाभ समान रूप से मिलता रहता है। बाधित और प्रतिबन्धित तो वे होते हैं जो स्वार्थी और संकीर्ण हैं जिन्हें न मोह है न लोभ, उनके लिये राग−द्वेष का अपने पराये का प्रश्न ही नहीं उठता। करुणा और ममता से भरा स्नेह सिक्त अन्तःकरण हिंस्र पशुओं पर भी आत्मीयता बरसाता रहता है, फिर नर तनु धारियों की तो बात ही क्या? उनमें भी वे जो उनकी सहायता प्राप्त करने की आशा में सामने आये, ऐसे लोगों को अपनी सामर्थ्य रहते, निराश लौटना उनके जन्मजात स्वभाव के विपरीत ही पड़ता। वे ऐसा कभी कर भी न सके। और अमिट प्रारब्धों से ग्रस्त कुछेक चन्द लोगों को छोड़कर प्रायः उन सभी की उन्होंने भरपूर सहायता की जो तनिक भी सहयोग पाने की इच्छा से उनके संपर्क में आयें थे।
अपनी उपासना तपश्चर्या का जो पुण्य फल हो सकता था उसका एक कण भी उन्होंने अपने लिये किसी भौतिक एवं आत्मिक प्रतिफल के लिये बचाकर नहीं रखा। जितना वे कमा सके उसका राई रत्ती उन्हें मिलता रहा जो आशा लेकर उनके सामने आये। कभी सम्भव हुआ तो उनके द्वारा की हुई सहायता के कारण लाभान्वित हुये व्यक्तियों की कहानी उन्हीं की जवानी प्रकाश में लाई जायेगी इससे विदित होगा कि कितनों के अन्धकारमय वर्तमान को प्रकाश पूर्ण भविष्य में उन्होंने बदल दिया और कितने उनका साहाय्य सहयोग पाकर धन्य हो गये। गुरुदेव ने अपनी इस उदारता और समर्थता को सर्व साधारण के सामने प्रकट न होने देन में सदा कठोरता बरती। वे नहीं चाहते थे कि उनकी कोई प्रशंसा करे या अहसान माने अथवा उन्हें चमत्कारी, उदार दानी, तपस्वी एवं सेवाभावी माना जाय। वे इतने में ही संतुष्ट और प्रसन्न थे कि उन्हें सामान्य, सरल और सज्जन भर माना जाता रहे। सो उन्होंने कठोर प्रतिबन्ध लगाये थे कि कोई उनकी अलौकिक अनुभूतियों एवं सेवा सहायताओं की चर्चा न करें। करना ही हो तो उन घटनाओं को भगवान् की कृपा भर कहे, उनकी व्यक्तित्व को कोई श्रेय न दे। सो उस प्रतिबन्ध के कारण असंख्यों प्रसंग अभी अविज्ञात ही बने हुये हैं जिनको सुनने जानने पर कोई भी व्यक्ति आश्चर्यचकित रह सकता है।
अब जबकि गुरुदेव चले गये तब उनकी प्रशंसा के लिये नहीं वरन् इसलिये इन प्रसंगों की चर्चा आवश्यक अनुभव होती है कि सर्व साधारण को यह विदित हो सके कि आध्यात्मिक जीवन कितना समर्थ और उपयोगी सिद्ध हो सकता है और उसका अवलम्बन लेकर कोई व्यक्ति अपना और दूसरों का कितना भला कर सकता है। उन प्रसंगों के प्रकाश में आने से एक बड़ा लाभ यह होगा कि आत्म-साधना का प्रतिफल समझा ला सकेगा और उस मार्ग को अपनाने के लिये सर्व साधारण में उत्साह उत्पन्न किया जा सकेगा। कहना न होगा कि गुरुदेव की उपासना पद्धति में जप, तप का जितना स्थान था उससे हजार गुना महत्व वे जीवन साधना को देते थे और अपनी आत्मिक उपलब्धियों का श्रेय वे आन्तरिक काषाय कल्मषों के उन्मूलन और वाह्य जीवन की आदर्शवादिता को देते थे। उन्होंने जब भी कहा-यही कहा-मेरी उपासना को फलित करने का श्रेय उस जीवन साधना को ही दिया जाना चाहिये जिसमें अंतरंग की निर्मलता और बहिरंग की उत्कृष्टता को अविच्छिन्न रूप से जोड़ता संजोया जाता रहा। ऐसा अध्यात्म यदि सर्व साधारण की रुचि का विषय बन जाय और लोग उसे अपनाने में गुरुदेव जैसी सर्वतोमुखी प्रगति अनुभव करने लगें तो निस्सन्देह उत्कृष्टता की जीवन साधना अपनाने का आकर्षण असंख्यों को होगा और फलस्वरूप महान् व्यक्तित्वों के उपवन चारों ओर लहलहाने लगें। उस दृष्टि से अब जब कि गुरुदेव चले गये यह अनुभव करा ही दूँ कि उनके सहयोगी जिनने अपनी जीवन यात्रा में प्रकाश पाया, भौतिक एवं आन्तरिक कठिनाइयों से छूटे तथा प्रगति पथ पर चल सकने योग्य अनुदान उपलब्ध किया उनके अनुभवों का एक संकलन प्रकाशित करने की व्यवस्था जुटाने में हर्ज नहीं है। गुरुदेव होते तो वे अप्रसन्न होते और रोकते जैसा कि वे अब तक इस विचार को सदा निरुत्साहित करते रहे। पर अब जबकि उनकी प्रशंसा निन्दा का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है और इस परिधि से वे बहुत आगे निकल गये तो उसमें हर्ज नहीं दीखता कि वे प्रसंग इस उद्देश्य से प्रकाशित कर दिये जाय कि आत्म-साधना की समर्थता और सार्थकता क्या है और उसे प्राप्त करने के लिये साधक को किस प्रकार की गतिविधियाँ अपनानी होती हैं। इस प्रकाशवान से यदि गुरुदेव के चरण चिन्हों पर चलते हुए महामानव बनने की प्रेरणा कुछेक व्यक्तियों को भी मिल सके तो यह उपलब्धि निस्सन्देह एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना होगी। इन दिनों इस संदर्भ में जितना अधिक विचार किया है उतना ही यह लगा है कि उसमें अनुसूचित कुछ भी नहीं-उचित ही उचित है कि गुरुदेव के संपर्क में आने वालों की उत्साहवर्धक अनुभूतियों-भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियों का संग्रह करने एवं प्रकाशित करने के लिये कदम बढ़ाया जाय। अस्तु यह कार्य हाथ में लिया ही जा रहा है। इस प्रकार के प्रसंग चित्रों सहित मेरे पास हरिद्वार के पते पर भेजे जा सकते हैं। उनका सम्पादन करे यथा समय प्रकाशन की व्यवस्था की जायेगी।
गुरुदेव का जीवन आध्यात्मिकता और मानवता का एक समग्र एवं व्यावहारिक दर्शन है, जिसे उनकी गरिमा व्यक्त करने के लिये नहीं मानव तत्व की महानतम उपलब्धि “दिव्यता” को लोक रुचि का विषय बनाने के लिये प्रकाश में लाया जाना चाहिए। आज तो उसकी उपयोगिता इस दृष्टि से भी अत्यधिक है कि धर्म और अध्यात्म का विकृत ओर अवाँछनीय स्वरूप ही सर्वत्र फैला पड़ा हैं और उस विडम्बना के फलस्वरूप उस मार्ग पर चलने वाले दम्भ एवं छद्म के शिकार होते चले जाते हैं। कोल्हू के बैल की तरह चिरकाल तक चक्कर काटते रहने और कठोर श्रम करने एवं कष्ट सहने पर भी किसी के हाथ कुछ लगता नहीं। असफलता की लज्जा छिपाने के लिये लोग कपोल कल्पित कुछ मिलने की चर्चा तो करते रहते हैं पर वस्तुतः यदि उनका अन्तरंग पढ़ा जाय तो खाली हाथ ही पाये जायेंगे। वास्तविकता छिपी कहाँ रहती है, वह मनुष्य के रोम-रोम से फूटती है और अन्ततः पकड़ में आ ही जाती है। असफल अध्यात्मवादी दूसरों पर बुरा असर छोड़ते हैं। इस दिशा में निराशा और उपेक्षा की छाप छोड़ते हैं शिक्षित और समझदार लोगों में जब इस प्रसंग की चर्चा होती है तो उपहास और व्यंग ही व्यक्त होता है। अशिक्षित और अविकसित लोगों तक यदि यह आत्मवाद सीमित रहे, केवल अन्ध विश्वास ही यदि मात्र श्रद्धा का आधार रह जाय और परीक्षा की कसौटी पर खरा साबित न हो तो ऐसे दुर्बल आधार को कब तक जीवित रखा जा सकेगा ठहरती वही चीज है जिसमें वास्तविकता हो और जिसे परीक्षा की हर कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सकता हो। आज सर्वत्र आत्म विद्या का उपहास उड़ाते देखा जा सकता है, इसका प्रधान कारण यह है कि उसकी उपयोगिता और यथार्थता सिद्ध नहीं की जा सकी। यों तर्क ओर प्रमाण को सदैव मान्यता मिलती रही है पर यह तो विशेष रूप से बुद्धिवाद का युग है इसमें उन्हीं तथ्यों को मान्यता मिल सकती है जिन्हें प्रामाणिक सिद्ध किया जा सके। विज्ञान, शिल्प, शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, कला, चिकित्सा आदि तथ्यों का कोई मजाक नहीं उड़ाता क्योंकि उनकी यथार्थता प्रत्यक्ष है। यदि अध्यात्म भी अपनी प्रामाणिकता और उपयोगिता प्राचीन काल की तरह आज भी सिद्ध कर सका होता तो कोई कारण नहीं कि इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य को अपनाने के लिये लोग लालायित न होते और उसे प्राप्त करने के लिये समुचित पुरुषार्थ न करते।
आज आत्म-विद्या एक प्रकार से अप्रमाणिक, उपेक्षित और उपहासास्पद बनी हुई है और इस अवसाद के कारण व्यक्ति तथा समाज को महती क्षति उठानी पड़ रही है। ऐसी परिस्थिति में यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि आत्म विज्ञान को उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता के साथ सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय और साथ ही यह भी बताया जाय कि अध्यात्मवाद का जो ढाँचा इन दिनों खड़ा दीखता है वह अवास्तविक, भ्रान्त एवं विकृत है। इसमें प्राचीन काल के आत्मवेत्ताओं के स्थूल क्रिया-कलाप की भोंड़ी मकल मात्र है, वास्तविकता उसमें नहीं के बराबर शेष रह गई है। अस्तु उसका कोई प्रतिफल परिलक्षित न हो रहा हो तो इसमें अचरज की बात ही क्या है ?
गुरुदेव एक व्यक्ति के रूप में नहीं एक दर्शन के रूप में जिये। उन्हें चर्म चक्षुओं से जिन्होंने देखा उन्होंने उन्हें देहधारी मानव प्राणी समझा पर जिसने उन्हें बारीकी से परखा और गहराई तक प्रवेश करके जाँचा उसने उन्हें युग प्रवाह की मूर्तिमान प्रेरणा के रूप में पाया। आत्म-विद्या इस संसार की सबसे बड़ी विद्या और विश्व मानव की सुख-शान्ति के साथ प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहने की सर्वश्रेष्ठ विधि व्यवस्था है; किन्तु दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस संसार के प्राण-दर्शन की ऐसी दुर्गति हो रही है और इस विडम्बना के कारण समस्त मानव जाति को कितनी क्षति उठानी पड़ी रही है इस अवाँछनीय परिस्थिति को वाँछनीयता में परिणत करने के लिये-अवास्तविक के स्थान पर वास्तविकता को प्रतिष्ठापित करने के लिये यदि गुरुदेव आये या भेजें हों तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि वे एक आदर्श मानव का-एक सच्चे अध्यात्मवादी का क्या स्वरूप हो सकता है और क्या होना चाहिये इसका उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये अवतरित हुये। वाणी और लेखनी से बहुत कुछ कहा और लिखा जाता रहा है। एक दूसरे को उपदेश देने का ढर्रा मुद्दतों से चल रहा है पर उसका तब तक कोई स्थिर प्रभाव नहीं पड़ सकता जब तक कि उन आदर्शों उपदेशों पर चलकर यह न बताया जाय कि इस आधार को अपनाने में किस प्रकार लाभान्वित हुआ जा सकता है। प्रत्यक्ष से ही प्रेरणा मिलती है। आदर्श सम्मुख होने पर ही उसके अनुकरण या अनुगमन की इच्छा उत्पन्न होती है। जीभ से कुछ भी कहा जा सकता है और कान से कुछ भी सुना जा सकता है पर जब तक प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत न किया जाय तब तक उस मार्ग पर चलने का साहस सर्वसाधारण को नहीं हो सकता। इस आवश्यकता की पूर्ति करने के लिये वे आये और उनकी समस्त गतिविधियाँ लोक मंगल के लिये अध्यात्मवाद की उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध करने के इर्द-गिर्द घूमती रहीं।
सौभाग्य से मुझे उनके अति समीपवर्ती साथी के रूप में रहने का अवसर लम्बे समय तक मिला है। यों सारा संसार उनका घर था और सभी प्राणी उनके आत्मीय थे। चूँकि वे सबके थे इसलिये कोई एक उन पर अपना अधिकार जमाने की धृष्टता नहीं कर सकता। सूरज पर, समुद्र पर, पवन पर, आकाश पर कोई अपना अधिकार नहीं जताता, पर लाभ सभी उठाते हैं। मैं उनकी धर्म पत्नी हूँ, इसलिये कुछ अधिकार तो नहीं जताती पर अपने इस सौभाग्य को, पुण्य प्रारब्ध को भरपूर सराहती हूँ कि मुझे दूसरोँ की अपेक्षा उनके साथ अधिक समय और अधिक निकट रहने का अवसर मिला। वे चले गये इसका दुख कितना है और उसे अपने दुर्बल नारी हृदय में कितनी कठिनाई से छिपाने का असफल प्रयत्न कर रही हूँ इसकी यहाँ चर्चा न करना ही उचित होगा। उनके लिये मेरी ही तरह न जाने कितनों की आँखें बरसी है, और कितनों के कलेजे फटे हैं। उनके चले जाने से कितनों ने अपने को अनाथ असहाय समझा है उन्हीं में से एक मैं भी हूँ अधिक समीप रहने का अधिक सौभाग्य मिलने से विछोह की अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही अन्तर्व्यथा मुझे सहनी पड़ रही है। उस कसक को छिपाना इसलिये पड़ रहा है कि 50 लाख अपनी धर्म सन्तानों की देखभाल रखने और स्नेह से सींचते रहने की जिम्मेदारी मेरे दुर्बल कन्धों पर छोड़ कर गये हैं उसमें त्रुटि न आने पावे। इन दिनों उनकी याद जब आती है तो पेट बुरी तरह इठता है और लगता है इतनी तड़पन सह सकना इस शरीर में रहते शक्य न होगा। फिर भी चूँकि कर्तव्य ही है उस महा मानव के आरोपित उद्यान के 50 लाख पेड़ पौधों को जिनमें अभी समर्थता नहीं आई हैं उन्हें स्नेह सिंचित रखने को अभी जीना भी पड़ेगा और कुछ करते रहना भी पड़ेगा। इसलिये शरीर और मन को संभाले भी रहना है। आत्म नियन्त्रण की यह परीक्षा मुझे सीता की अग्नि-परीक्षा सी इन दिनों भारी पड़ रही है। शरीर को आग में झोंकना उतना कठिन नहीं जितना हर घड़ी अन्तर की जलन में गलना। समीपता का जितना अमृत पिया उसका बदला इस बिछोह विष के रूप में पीना पड़ रहा है। अति के इन दानों सिरों का ताल-मेल बिठा सकना और संतुलन कायम रख सकना इन दिनों बहुत भारी पड़ रहा है फिर भी इतना धैर्य ओर विवेक तो मिल ही रहा है जिसके आधार पर कन्धों पर लदे हुये उत्तरदायित्वों का वहन करने के लिये गिर पड़ने की स्थिति से अपने को बचाये रख सकूँ।
गुरुदेव की यों मैं धर्मपत्नी समझी जाती हूँ पर वस्तुतः उनकी एक सौभाग्यशालिनी शिष्या ही हूँ उन्हें पति के रूप में नहीं देवता के रूप में ही देखा वस्तुतः वे थे भी इसी योग्य। उन्हें इसके अतिरिक्त और कुछ समझा भी नहीं जा सकता। कोई अपनी गन्दी आँखों से उन पर भी गन्दगी थोपे यह बात दूसरी है पर जब भी कोई निष्पक्ष समीक्षक की दृष्टि से उनका अन्वेषण विश्लेषण करेगा तब उन्हें मनुष्य शरीर में विचरण करने वाला एक देवता ही पायेगा। मनुष्य में देवत्व का उदय करना यही तो अध्यात्म है इस तत्वज्ञान का व्यावहारिक दर्शन क्या हो सकता है इसका प्रत्यक्ष स्वरूप सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिये ही वे आये और जिये-इसी के लिये उनकी हर साँस हर विचारणा, हर क्रिया और हर उपलब्धि नियोजित रहीं। उन्हें समझना वस्तुतः आत्म दर्शन को समझने के बराबर ही है। उनका जीवन एक खुली पुस्तक है जिसे यदि युग गीता का नाम दिया जाय तो उचित ही होगा। आज के तमसाच्छन्न वातावरण को हटाने घटाने के लिये क्या किया जाना चाहिए उसका उद्घोष उद्बोधन करना ही उनके क्रिया कलाप का एक महत्वपूर्ण पक्ष था। उन्हीं पृष्ठों का आवरण उनकी अनुपस्थिति में-अपनों में अपनी बात-स्तम्भ के अंतर्गत करते रहने का मैंने निश्चय किया है।
इस अंक में उनके उस प्रत्यक्ष स्वरूप की थोड़ी सी चर्चा की गई है जिससे सर्व साधारण का मोटे तौर पर परिचय रहा है। उन्हें एक सहृदय, सज्जन और तप साधना संलग्न ब्रह्मवेत्ता समझा जाता रहा और लोग यह समझते रहे कि उनकी तप साधना का लाभ कोई भी बिना हिचक उठा सकता है, सो उठाया भी गया। अभावों, संकटों, उलझनों, अवरोधों से निबटने में सहायता प्राप्त करने के लिये अनेकों उनके पास आये। सो न कोई खाली हाथ गया न निराश। जटिल प्रारब्धों को पूर्णतया समाप्त कर देना तो एक मात्र ईश्वर के हाथ में ही हो सकता है। मनुष्य तो अपनी सामर्थ्य भर दूसरों की सहायता ही कर सकता है। सो उनने इस संदर्भ में सदा असीम सहृदयता और उदारता का ही परिचय दिया। हर किसी ने पूरा अधूरा कुछ न कुछ सहयोग अवश्य पाया। जिनकी आवश्यकता पहाड़ जितनी थी पर टीले जैसी सहायता मिलने से सन्तुष्ट हुये-पर जिसने यह देखा कि उपलब्ध अनुदान भी कितना बड़ा था पर टीले जैसी सहायता मिलने से सन्तुष्ट हुये-पर जिसने वह देखा था कि उपलब्ध अनुदान भी कितना बड़ा था और उतना भी मिलने पर कितनी विपत्ति का सामना करना पड़ता-वे उतने से सन्तुष्ट रहें। चर्चा न करने का प्रतिबन्ध था पर मन की बात सदा छिपाये रहना मानसिक दुर्बलता को देखते हुये सब अंशों में सम्भव नहीं सो उपलब्ध अनुदानों की चर्चा एक से दूसरे के कानों में पहुँचती रही और इस आकर्षण में उनसे अधिक व्यक्ति उनके पास आते रहे जिनकी संख्या का लेखा-जोखा रखा जाय तो उसे अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। 50 लाख तो उनके दीक्षित शिष्य हैं। संपर्क साधने वालों और लाभान्वित होने वालों की संख्या करोड़ों में गिनी जा सकती है उदार अनुदानी और सन्त तपस्वी के रूप में उन्हें मोटे तौर पर समझा जाता रहा है।
कई बार कुपात्रों को सहायता न करने के लिये मैंने कहा तो उनने इतना ही कहा-बार-बार काटने वाले बिच्छू को भी पानी में बहने डूबने से बचाना सन्त का धर्म है। अनुचित लाभ उठाने के इच्छुक अग्नि आदत से पीछे नहीं हटते तो हमीं क्यों अपनी-सहायता को सीमाबद्ध करें। तर्क की दृष्टि से उनसे बहस की जा सकती थी पर जिसके मन में करुणा, ममता और आत्मीयता के अतिरिक्त और कुछ हो ही न, जो सबमें अपनी ही आत्म समायी देखता हो ऐसे अवधूत की भाव गरिमा को चुनौती देने में न तर्क समर्थ हो सकता था न गुण अवगुण का विश्लेषण। वस्तुतः वे इन परिधियों से बहुत आगे निकल चुके थे सो किसी ने पात्र कुपात्र की चर्चा की भी और समझाने रोकने का प्रयत्न भी किया तो कुछ परिणाम न निकला।
परिणाम स्पष्ट है उनकी महानता में तपश्चर्या जितनी सहायक हुई उससे हजार गुनी प्रभावी थी-आन्तरिक निर्मलता और निर्बाध उदारता। जीवन साधना के इन दो पक्षों के आधार पर ही वे गरुड़ की तरह ऊँचे आकाश में उड़ चलने में सफल हो सके। विश्लेषण करने वाले देखते हैं उनकी अधिकतम उपासना 6 घण्टे नित्य थी इतने असंख्य अभाव ग्रस्तों का साहित्य सम्भव हो सके। दूसरे उनसे भी अधिक कर्मकाण्डी एवं जप-तप करने वाले मौजूद हैं पर उनकी उपलब्धियाँ नगण्य ही रहती है फिर गुरुदेव के लिये इतना उपार्जन कैसे सम्भव हुआ? इस पर उनकी अति निकटवर्ती एवं निम्र अनुगामिनी होने के नाते इतना ही कह सकती हूँ कि उनने निर्मलता और उदारता की प्रवृत्तियों को विकसित करने में अत्यधिक ध्यान दिया और पुरुषार्थ किया। अपने व्यक्तित्व को उर्वर क्षेत्र की तरह विकसित करने में यदि इतनी सतर्कता न बरती होती तो सम्भवतः उनके 24 वर्षों के 24 गायत्री महापुरश्चरण तथा सामान्य समय के जप-तप उतने प्रभावी न हो से होते जितने कि देखे और पाये गये।
गुरुदेव चले गये। दूर जाने पर उनका अधिक अन्वेषण विश्लेषण हम सबके लिये अधिक सम्भव हो सकेगा। उन्हें गहराई तक समझने का जितना प्रयत्न किया जायगा उतना ही अधिक हम अध्यात्म तत्वज्ञान का वास्तविक स्वरूप समझ सकने और उसके महान् परिणामों का उपलब्ध कर सकने का पथ प्रशस्त कर सकेंगे।
-भवगती देवी शर्मा