Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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साधना की तन्मयता
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महान् चित्रकार आगस्टी केन्वायर जितने अधिक वृद्ध होते गये उतना ही उनका कला-प्रेम बढ़ता गया। युवावस्था में वे एक अच्छे चित्रकार थे। उनकी रोजी-रोटी उसी से चलती थी। पर दुर्भाग्य से यह न देखा गया। उनके हाथ-पैरों में गठिया की शिकायत आरम्भ हुई और इतनी बढ़ी कि पैरों ने दो कदम चलने से भी इनकार कर दिया। पहियेदार कुर्सी के सहारे ही वे घर के एक कोने से दूसरे कोने तक खाने, सोने जैसी दैनिक आवश्यकताएँ पूरी करने जा पाते थे। हाथों का यह हाल हो गया कि ब्रुश पकड़ना उँगलियों के लिये कठिन हो गया। तब वे उँगलियों के साथ रस्सी से ब्रुश बाँध लेते और चित्रकारी में तन्मय रहते।
यों तो दर्द उन्हें चौबीस घण्टे बना रहता था। कई बार तो वह इतना बढ़ जाता कि पहियेदार कुर्सी से उतरने और चढ़ने का अवसर आने पर उन्हें कराहना पड़ता। ब्रुश को रंग की प्लेट तक ले जाने, डुबाने और उठाने में कई बार उँगलियों में बेतरह कसक होती और वे उसे जहाँ की तहाँ रखने के लिए मजबूर हो जाते। थोड़ा चैन मिलने पर ही हाथ उठता, पर चित्रकला की उनकी तन्मयता में इससे भी कुछ अन्तर न आया।
अपंग कला साधक की लगन और कला देखने के लिये दूर-दूर से नवसिखिए चित्रकार उनके पास आया करते थे और उस सन्दर्भ में गूढ़ प्रश्न पूछते थे। एक प्रश्न यह तो होता ही था, सत्तर वर्ष से अधिक आयु हो जाने के कारण जरा, जीर्णता और रुग्णता के रहते हुए भी वे किस प्रकार अपने प्रयास में इतने दत्त चित्त रह पाते थे ? उत्तर में वे नये कलाकारों को अपनी मनःस्थिति का सार बताते हुए यही कहते– यदि कोई कलाकार अपनी कृति और प्रगति को देखकर सन्तोष कर बैठे या अहंकार करने लगे, तो समझना चाहिए, उसके विकास का अन्त हो गया। प्रगति का एक ही मार्ग है– अकल्पनीय प्रगति तक पहुँचने की उत्कट आकांक्षा और उसके लिए मजदूर जैसी कठोर श्रम साधना। जिसने थोड़ी सफलता पर अहंकार व्यक्त किया, समझ लो, वह मारा गया। प्रगति तो अनन्त है, इसलिये उसकी साधना भी असीम ही होनी चाहिए। 78 वर्ष की आयु में, जबकि आगस्टी केन्वायर बहुत अधिक वृद्ध हो गये थे और बीमारी ने उन्हें नर कंकाल मात्र बना दिया था, तो भी उन्होंने अपनी कला-साधना छोड़ी नहीं। फेफड़ों की खराबी बेतरह तंग करती थी और लगता था कि वे अब महाप्रयाण करने ही वाले हैं, तो भी उन्होंने अपनी साधना छोड़ी नहीं। अन्तिम दिनों में वे महिला मित्र नामक अत्यन्त कलापूर्ण चित्र बनाने में निमग्न थे और अपने बेटे की मेज़ पर रखने के लिए एक गुलदस्ता चित्रित कर रहे थे।
डाक्टरों ने पूर्ण विश्राम के लिए कहा, तो उन्होंने एक ही उत्तर दिया। कुछ न करने की– कुछ न सोचने की बात मेरी प्रकृति स्वीकार ही न कर पायेगी। अन्तिम दिन उन्हें श्वास का ऐसा विकट दौरा पड़ा, जो उन्हें साथ लिए बिना गया ही नहीं। वे फर्श पर बेहोश होकर गिर पड़े। वे होश में आये तो गृह सेविका लूसी ने पूछा– अब आपकी तबियत कैसी है ? तो उन्होंने तबियत का मतलब अपनी कला-साधना से समझा और बुझती हुई आँखों को नये सिरे से चमकाते हुए कहा– लूसी मैं समझता हूँ कि चित्रकला के बारे में मैं अब कुछ-कुछ समझ सकने योग्य हो चला। इसके बाद उन्होंने सदा के लिए आँखें बन्द कर ली।