Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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यज्ञ की उपयोगिता का वैज्ञानिक आधार
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विज्ञान अब इस निष्कर्ष पर पहुँचता जा रहा है कि हानिकारक या लाभदायक पदार्थ उदर में पहुँच कर उतनी हानि नहीं पहुँचाते जितनी कि उसके द्वारा उत्पन्न हुआ वायु विक्षोभ प्रभावित करता है। किसी पदार्थ को उदरस्थ करने पर होने वाली लाभ-हानि उतनी अधिक प्रभावशाली नहीं होती जितनी कि उसके विद्युत आवेग संयोग।
कोई पदार्थ सामान्य स्थिति में भी जहाँ रहता है वहाँ भी विद्युत कम्पनों से कुछ न कुछ प्रभाव छोड़ता है और समीपवर्ती वातावरण में अपने स्तर का संवेग छोड़ता है पर यदि अग्नि संस्कार के साथ उसे जोड़ दिया जाये तो उसकी प्रभाव शक्ति असंख्य गुनी बढ़ जाती है।
तम्बाकू सेवन से कैन्सर सरीखे भयानक रोग उत्पन्न होने की बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है। इस व्यसन के व्यापक बन जाने के कारण सरकारें बड़े प्रतिबन्ध लगाने से डरती है कि जनता में विक्षोभ ओर विद्रोह उत्पन्न होगा, फिर भी सर्व साधारण को वस्तु स्थिति से सचेत करने के लिए प्राथमिक कदम तो उठा ही दिये गये है। अमेरिका में सिगरेटों के पैकेट पर उनकी विषाक्तता तथा संभावित हानि की चर्चा स्पष्ट शब्दों में छपी रहती है। फिर भी जो लोग पीते हैं उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने आरोग्य और रुग्णता के चुनाव में बीमारी और अपव्यय के पक्ष में अपनी पसंदगी व्यक्त की है।
तंबाकू से कैन्सर कैसे पैदा होता है इस सन्दर्भ में जो नवीनतम खोज हुई है उससे नये तथ्य प्रकाश में आये है।
शोधकर्ताओं द्वारा निष्कर्ष यह निकाला गया है कि तंबाकू में रहने वाले रसायन उतने हानिकारक नहीं जितने कि उसके धुएँ के कारण धनात्मक आवेशों से ग्रस्त साँस का लेना। तंबाकू का धुँआ भर मुँह से बाहर निकल जाता है सो ठीक, उसके द्वारा शरीर में रहने वाली वायु पर धनात्मक आवेश भर जाता है। आवेश ही कैन्सर जैसे भयंकर रोग उत्पन्न करने के कारण बनते हैं। धुँआ मुँह से छोड़ देने के बाद उसकी गर्मी और विषाक्तता समीपवर्ती वातावरण में ऐसे विद्युत करण उत्पन्न करती है जिससे साँस लेना भयंकर विपत्ति उत्पन्न करता है। सिगरेट का धुँआ उगलने के बाद साँस तो उसी वातावरण में लेनी पड़ती है। अस्तु तंबाकू की विषाक्तता विभीषिका बनकर भयंकर हानि पहुँचाती है। उस हानि से किसी प्रकार भी नहीं बचा जा सकता।
इनको ही नहीं तंबाकू पीने वालों के निकट बैठने वालों को भी उस धुँआ से होने वाली हानि भुगतनी पड़ती है इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए रेलगाड़ियों में-बसों में यह हिदायत लिखी रहती है कि यदि साथ मुशाफिरों को आपत्ति हो तो तंबाकू न पिएं। कोई स्वयं अपने पैरों कुल्हाड़ी मारे उसकी इच्छा पर यह छूट दूसरों पर आक्रमण करने के लिए नहीं दी जा सकती। तंबाकू के धुएँ से पास बैठे हुये लोगों का स्वास्थ्य बिगाड़ना एक प्रकार से अनैतिक और असामाजिक कार्य ही माना जायेगा।
आक्सीजन की समुचित मात्रा रहने पर ही वायु हमारे लिए स्वास्थ्य रक्षक रह सकती है। यदि उसमें कार्बनडाइ आक्साइड गैस अथवा अन्य विषैली गैसें बन जाय तो ऐसी वायु जीवन के लिए संकट ही उत्पन्न करेगी। कमरा बन्द करके उसमें जली अँगीठी रखकर सोया जाय तो आक्सीजन समाप्त होकर कार्बन बन जाने के कारण उसकी साँस बन्द कमरे में सोने वालों के लिए प्राणघातक बन जाती है।
साँस के लिये केवल आक्सीजन ही काफी नहीं-हवा में रहने वाले धूलिकणों का विद्युत आवेश ऋणात्मक होना भी आवश्यक है। सर्वविदित है कि वायु में छोटे-छोटे धूलिकण भरे रहते हैं। इन कणों में से अधिकांश में विद्युत आवेश चार्ज रहता है। इन आवेशित कणों को आयन कहा जाता है। धनात्मक आवेश वाले स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं और ऋणात्मक कण श्रेयस्कर सिद्ध होते हैं। जिस प्रकार स्वास्थ्यवर्धक जल-वायु प्राप्त करने की व्यवस्था स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक समझी जाती है उसी प्रकार अब विशेषज्ञ लोग यह भी सुझाव देते हैं कि ऐसी जगह रहना चाहिए जहाँ वायु में हरने वाले धूलि-कण ऋणात्मक विद्युत से आवेशित हो। प्रायः यह कहा जा रहा है कि वायु में आवेश नियन्त्रण करके बिगड़े स्वास्थ्य को सुधारने की-रोगों के निवारण की व्यवस्था की जाय। इस सन्दर्भ में काफी खोजें हुई है और अभीष्ट आवेश उत्पन्न करने वाले यन्त्र बनाये गये हैं। विद्युत चिकित्सा पद्धति पहले से भी प्रचलित थी पर अब उसमें धूलिकणों को आवेशित करके उपचार करने की एक नई प्रक्रिया “आयनिक थैरेपी” भी सम्मिलित कर ली गई है। फेफड़े से सम्बन्धित श्वास रोगों पर तथा रक्त शुद्धि एवं रक्त संचार प्रक्रिया में दोष होने के कारण उत्पन्न हुए रोगों पर तो इस पद्धति का आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिल रहा है।
यों तंबाकू खाना भी कम विपत्ति का कारण नहीं है। पर धुएँ के द्वारा जितना विष शरीर में पहुँचता है उतना ही यदि उसे खाकर उदरस्थ किया जाय तो अपेक्षाकृत कम हानि होगी। तंबाकू खाने वालों को मुँह का-गले का-फेफड़े का और पेट का कैन्सर इसलिए होता है कि उसकी अत्यधिक मात्रा पेट में ठूँस जी जाती है। धुएँ के द्वारा सिगरेट पीने वाले जितना जहर खाते हैं उतनी ही मात्रा यदि खाई जाय तो तुलनात्मक दृष्टि से पीने वालों की तुलना में खाने वालों को कम हानि उठानी पड़ेगी।
कोई वस्तु खाई जाय तो उसकी अवांछनीय विषाक्तता का बहुत कुछ भाग मुख और पेट में स्रवित होने वाले रस सम्भाल सुधार लेते हैं। सर्प का विष यदि मुँह से खाया जाय तो उतनी हानि नहीं करेगा पर यदि वह सीधा रक्त में सम्मिलित हो जाय तो मृत्यु का संकट उत्पन्न करेगा। टेट्नस के विषाणुओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। टेट्नस के कीड़े तभी संकट उत्पन्न करते हैं जब वे खुले घाव में होकर रक्त में सम्मिलित हो जायं इन्हीं कीड़ों को यदि आहार या जल द्वारा पेट में पहुँचा दिया जाय तो उसका इतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि वस्तुएँ आहार द्वारा सन्तुलित और बाह्य प्रभाव ही उत्पन्न कर सकती है। वे यदि सामान्य स्तर की हों तो न तो बहुत अधिक हानि ही पहुँचा सकेगी और न अत्याधिक लाभ ही उत्पन्न करेगी। शरीर उन्हें काट-छाँट कर अपने सामान्य क्रम के अनुरूप बना लेगा।
दवा-दारु गोली चूर्ण मिक्स्चर के रूप में खिलाने की अपेक्षा उन्हें इंजेक्शन द्वारा रक्त में सम्मिश्रित करना इसी दृष्टि से अधिक लाभदायक माना गया है कि औषधि रक्त में सीधा सम्मिलित होकर अपना पूरा प्रभाव डालती है और उसे पेट के रसों द्वारा होने वाला काट-छाँट का समाना नहीं करना पड़ता। रक्त में औषधि सम्मिलित करने से भी अधिक प्रभावी उपाय साँस द्वारा उसे शरीर में पहुँचाया जाना है। यज्ञ विज्ञान का सारा आधार इसी तथ्य पर विनिर्मित है।
तंबाकू पीने की हानिकारक प्रक्रिया की तरह ही यज्ञ हवन की लाभदायक प्रक्रिया का उपक्रम है यों दोनों की दिशायें एक दूसरे से सर्वथा पृथक् है। एक में हानि ही हानि है दूसरे में लाभ ही लाभ। पर दोनों का सिद्धान्त एक है। यज्ञ सामग्री में प्रयुक्त होने वाले घी शक्कर आदि पदार्थ मुख के द्वारा खाये जाय अथवा गुण कारक हव्य औषधियों का सेवन कराया जाय तो उससे होने वाले सम्भावित लाभ की तुलना में वह लाभ हजारों गुना अधिक होगा जो उन पदार्थों को वायु भूत बनाकर समीपवर्ती एवं दूरवर्ती लोगों के शरीर में प्रवेश कराया जाता है। तंबाकू के धुएँ की तरह ही हवन का धुंआ भी शक्ति शाली विद्युत आवेश उत्पन्न करता है। अन्तर इतना ही होता है कि उनमें उपयोगी तत्त्व सम्मिलित रहने से यज्ञ कर्ताओं को और समस्त समाज को लाभ पहुँचाता है जब कि तंबाकू का धुँआ अपनी मादक शक्ति से हर किसी का हर प्रकार अहित ही करता है।