Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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गृहस्थ और स्वावलम्बी रहते हुए योगी यति बनें......
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प्राचीनकाल में भी गृहस्थ संन्यासी, गृही-बैरागी होते थे और अब भी वही प्रक्रिया अध्यात्म मार्ग पर द्रुत गति से आगे बढ़ने वाले साधनों के लिए उपयुक्त है।
भिक्षा का अन्न वही ग्राह्य है जो उच्च संस्कारवान व्यक्तियों का है, और पूर्ण न्यायोचित, नीतियुक्त कमाया गया है। आज ऐसा अन्न मिलना प्रायः एक प्रकार से असम्भव नहीं है। अनीति उपार्जित धान्य को खाकर साधना करने से साधक की बुद्धि भी वैसी ही कुसंस्कारी बनेगी। उसे न एकाग्रता प्राप्त होगी और न शान्ति। भजन का बहाना भले ही करते रहा जाय, न उसमें मन लगेगा और न सफलता मिलेगी। ऐसी दशा में आज की स्थिति में-भिक्षा का अन्न, मुफ्त का निर्वाह एक प्रकार से सर्वथा अवांछनीय ही है। जंगलों में कन्द, मूल, फल की प्राचीन सुविधा रही नहीं। अब वे बन कहाँ है जहाँ थोड़ी कृषि उद्यान गो पालन करके निर्वाह की व्यवस्था की जा सके। ऐसी दशा में यही उचित है कि अपने हाथ-पैर के उपार्जन से गुजारा करते हुए साधनात्मक जीवन जिया जाय।
जिसका अन्न खाया जाता है उसके बदले में अपना तप उपार्जित पुण्य देना पड़ता है। मुफ्त में यहाँ कहीं कुछ भी मिलने का नियम नहीं है। भौतिक जीवन का क्रम अवरुद्ध करके मन साधन किया और जो कमाया वह अन्न, वस्त्र दाता दानी के लिए चला गया। उसमें अपने लिए क्या बचा। इसमें क्या बुद्धिमानी रही। भले ही थोड़ा भजन या सेवा कार्य किया जाय पर वह स्वावलम्बी होकर ही करना चाहिए। तभी उसमें कुछ सफलता मिलेगी।
प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि आज के साधु बाबाओं से सर्वथा भिन्न थे। उनमें से अधिकांश गृहस्थ संन्यासी-गृही विरागी थे। प्रकृति के समीप शुद्ध जल-वायु का आश्रय लेकर वे विरल प्रदेशों में रहते थे। गो पालन, फल, शाक उत्पादन आदि निर्वाह की उपयुक्त व्यवस्था वही बना लेते थे। आश्रम में स्त्री-बच्चों समेत रहते थे। अपने परिवार को भी सुसंस्कारी और लोकोपयोगी बनाते थे। साथ ही गुरुकुल, चिकित्सा तप, शास्त्र चिन्तन, आगन्तुकों को परामर्श विभिन्न विषयों के शोधकार्य जैसी प्रवृत्तियाँ वहाँ रह कर चलाते थे और आवश्यकतानुसार भ्रमण करके जन-जागरण की आवश्यकता पूरी करते थे। यही ऋषि जीवन था। संन्यास तो जीवन के अन्तिम एवं अशक्त भाग में लिया जाता था। इससे पूर्व तो वानप्रस्थ की-ऋषि-मुनि की भूमिका ही समस्त आत्म-परायण व्यक्ति निबाहते थे।
आज की युवावस्था में संन्यास परम्परा अवैदिक- अशास्त्रीय है। उसका जन्म बुद्ध काल में हुआ। समय-समय पर उस अवांछनीय उभार का खण्डन भी किया जाता रहा है। निम्न स्तर के व्यक्ति यदि उच्चस्तर का वेष धारण कर लें तो भी वस्तुस्थिति का निर्वाह नहीं हो सकता। कोई छोटा बच्चा, वृद्ध जैसी सफेद दाढ़ी मूँछ लगा ले, अशिक्षित व्यक्ति विद्वान् का वेष धारण कर ले, निर्धन होते हुए भी अमीर का स्वाँग बनाये तो यह सर्वथा उपहासास्पद ही होगा। योग्यता के अभाव में ऊँचे पद के उत्तरदायित्वों का निर्वाह हो नहीं सकेगा। फलतः अवांछनीय परिणाम ही सामने आवेंगे। आज की साधु-बाबाओं की भीड़ से केवल गड़बड़ी ही उत्पन्न हो रही है। उस पद के अधिकारी पात्र और उत्तरदायित्व का सही निर्माण करने वाले कोई विरले ही कहीं-कहीं दीखते हैं।
अध्यात्म साधनाओं के पथ पर चलने के लिये साहस करने वाले व्यक्तियों को आज की स्थिति में संन्यासी होने की-कपड़े रंगने की, घर छोड़ने की जरूरत नहीं है। यदि युवावस्था हो तो गृह आजीविका उपार्जित करते हुए इस मार्ग पर चलने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। यदि आयु ढल गई है और बच्चे कमाने योग्य हो गये है, छोटे बहन-भाइयों को सम्भाल सकते हैं तो फिर वानप्रस्थ की तरह घर में रहते हुए स्वाध्याय, सेवा संयम, साधना का क्रम निर्धारित करना चाहिए। घर से कुछ दूरी भी निवास किया जा सकता है। पत्नी को भी साथ रखा जा सकता है। पर आजीविका की दृष्टि से स्वावलम्बी ही होना चाहिए।
संचित आजीविका का प्रबन्ध न हो तो सेवा कार्य के बदले पारिश्रमिक लेकर निर्वाह करना चाहिए पर मुफ्त का भोजन निर्वाह किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करना चाहिए। सम्पर्क में कोई उदार दानी हो और अपनी सेवा सहायता करना चाहे तो उस धन को अपने लिए न लेकर लोकमंगल लिए ही लगा या लगवा देना चाहिए। प्राचीनकाल में पुरोहितों द्वारा जो प्रतिग्रह लिया जाता था वह उनके निजी काम नहीं आता था वरन् सार्वजनिक सत्प्रयोजनों के लिये ही नियोजित होता था। अभी भी उसी परम्परा को अपनाया जाना चाहिए।
ब्रह्मचर्य की मर्यादा जितनी अधिक सम्भव हो उतनी रखी जाय पर दुर्बल मनोभूमि के रहते उस प्रकार की प्रतिज्ञा करना अनिवार्य नहीं। हाँ साधना मार्ग पर चलने वालों को सन्तान की संख्या न्यूनतम रखने का आरम्भ से ही प्रयास रखना चाहिए। ढलती आयु में तो यह सतर्कता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। बुढ़ापे में सन्तान पैदा करना अपने साथ और उस सन्तान के साथ एक प्रकार से अत्याचार करना ही है।
प्राचीनकाल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, स्त्री बच्चे भी साथ रहते थे उसके कुछ प्रमाण देखिये-
तारावृहस्पतेर्भार्य्या वशिष्ठस्याप्यरुन्धती।
अहल्या गौतमस्त्री साप्यनस्यात्रिकामिनी॥
देहहूती कर्दमस्य प्रसूतिर्द क्षकामिनी।
पितृणाँ मानसी कन्या मेनका साम्बिकाप्रसूः॥
लोपामुदा तथाहूती कुबेरकामिनी तथा।
बरुणामी यमस्त्री चबलेर्विन्ध्यावलीति च॥ - ब्रह्म वैवर्त पुराण
सुर गुरु बृहस्पति की भार्या का नाम तारा देवी है, वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती है, गौतम ऋषि की पत्नी का नाम अहल्या है, अत्रि की पत्नी अनसूया नाम वाली है, देवहूति नाम वाली कर्दम की पत्नी है तथा दक्ष की पत्नी प्रसूति नाम धारिणी है। पितृगण की मानसी कन्या मेनका अम्बिका प्रसू है। लोपामुद्रा तथा आहुति कुबेर की कामिनी है यम की वरुणानी है और राजा बली की पत्नी विन्ध्यावली है।
तस्य प्रधायमानस्य कश्यपस्य महात्मनः।
ब्रह्माणोऽशौ सुतौ पश्चात् प्रादुर्भूतौ महौजसौ॥
वत्सारश्चासिश्चैव ताबुभौ ब्रह्मवादिनौ। - वायु पुराण
महात्मा कश्यप के दो पुत्र उत्पन्न हुए वात्सर और असित। वे दोनों ही ओजस्वी और ब्रह्मवादी थे।
तस्य कन्या त्विडविडा रुपेणाप्रतिमाभवत्।
पूलस्त्याय स राजर्षिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत्॥
ऋषिरिडविडायान्त विश्रवाः समपद्यत। - वायु पुराण
तृतीय त्रेता युग में मुख में राजा हुआ था। उसकी इडविडा थी जो कि रूप में अप्रतिम थी। उस राजर्षि ने वह परम सुन्दरी कन्या पुलस्त्य के लिये दे दी थी। ऋषि पुलस्त्य ने इडविडा में विश्रवा को जन्म दिया।
बृहस्पतेबृहत्कीर्तिर्दे वाचार्यस्य कीर्तितः।
कन्याँःतस्योपयेमे स नाम्ना वै देववर्णिनीम्। - वायु पुराण
देवों के आचार्य बृहस्पति को बृहत्कीर्ति कहा गया है नाम से देववर्णिनी उसकी कन्या के साथ उसने विवाह किया था।
शुकस्याऽस्याभवन् पुत्राः पश्चाऽत्यन्ततपस्विनः।
भूरिश्रवाः प्रभुः शम्भु कृष्णो गौरश्च पश्चमः॥
कन्याकीर्तिमतीचैवयोग माताधृतव्रता। - कूर्म पुराण
इन शुकदेव के पाँच अत्यन्त तपस्वी पुत्र हुए थे जिनके नाम भूरिश्रवा-प्रभु-शम्भु-कृष्ण और गौर थे। एक कन्या थी जो कीर्तिमती- योग माता और धतवृता थी।
अरुन्धत्याँ वशिष्ठस्तु शक्तिमुत्पादयत्सुतम्।
शंक्तेः पराशरः श्रीमान् सर्व्वज्ञस्तपतां वरः॥
आराध्य देवदेवेशमीशानंत्रिपुरान्तकम्।
लेभे त्वप्रतिमं पुत्रं कृष्णद्वैपायं प्रभुम्॥ - कूर्म पुराण
वशिष्ठ ने अरुन्धती पत्नी से शक्ति नामधारी पुत्र को ही उत्पन्न किया था। शक्ति से श्रीमान् सर्वज्ञ और तपस्वियों में परम श्रेष्ठ पराशर ने अपना जन्म ग्रहण किया था। उस पराशर महामुनि ने देवों के भी देवेश्वर त्रिपुरान्तक ईशान की समाराधना करके एक अति अप्रतिम प्रभु श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जैसा उत्तम पुत्र प्राप्त किया था।
वशिष्ठस्तूपयेमेऽथ भागिनी नारदस्य तु ।
अरुन्धतीं वरारोहां तस्यां शक्ति मजीजनत् ॥
शक्तः शराशरः पुत्रस्तस्य वंश निभोध मे ।
यस्य द्वैपायनः पुत्रः स्वयं विष्णुरजायत ॥ - मत्स्य पुराण
वशिष्ठ ने नारद की भगिनी के साथ विवाह किया था, जिस वरारोहा का नाम अरुन्धती था। उस अरुन्धती में उसने शक्ति को समुत्पन्न किया था। शक्ति का पुत्र पराशर हुआ था। अब उसका जो भी अंश हुआ, उसे मुझसे समाज लो। जिस पराशर का स्वयं विष्णु द्वैपायन पुत्र उत्पन्न हुआ था।
अङ्गारेष्वङ्गिरा जातो ह्यार्चिभ्योऽत्रिस्तथैव च ।
मरीचिभ्यो मरीचिस्तु ततो जातो महातपाः ॥
कशैस्तु कपिशा जातः पुलस्त्यश्च महातपाः ।
केशै प्रलम्बैः पुलहस्ततोजातोमहातपाः ॥
वसुमध्यात् समुत्पन्नो वशिष्ठस्तु तपोधनः ।
भृगुः पुलोम्नस्तुसुतांदिव्यांभार्यामविन्दत ॥ - मत्स्य पुराण
अङ्गारों में अङ्गिरा उत्पन्न हुए और हुताशन की अर्चियों से अत्रि ऋषि की उत्पत्ति हुई थी और इसके अनन्तर मरीचियों से महान् तपस्वी महर्षि मरीचि उत्पन्न हुए थे। केशों से कपिश और महान् तपस्वी पुलस्त्य उत्पन्न हुए। पुलम्ब केशों से फिर महान् तपस्वी पुलह समुत्पन्न हुए। वासु के मध्य से तप के ही धन वाले वशिष्ठ ऋषि प्रसूत हुए थे। भृगु महर्षि ने पुलोमा की पुत्री को अपनी दिव्य भार्या बनाया।
एतानुत्पाद्य पुत्रास्तु प्रजासन्तानकारणात् ।
कश्यपः पुत्रकामस्तु चचार सुमहत्तपः ॥
तस्यैवन्तपतोऽत्यर्थं प्रादुर्भूतौसुताविमौ ।
वत्सरश्चासितश्चैव तावुभौ ब्रह्मवादिनौ ॥ - कुर्म पुराण
कश्यप ऋषि ने पुत्रों की कामना करते हुए इस प्रकार से प्रजा को सन्तान के कारण से पुत्रों को समुत्पन्न करके फिर सुमहान् तप किया था। उनके इस भाँति तप करने पर ये दो सुत समुत्पन्न हुए थे जिनमें एक वत्सर और दूसरा असित था। वे दोनों की ब्रह्मवादी थे।
पाण्डुश्चैव मृकण्डुश्च ब्रह्मकोशौ सतातनो।
मनस्विन्याँ मृकण्डोश्च मार्कण्डेयो बभूव हे॥
प्रजायते पूर्णमासं कन्याश्चेमा निबोधत।
तृष्टि पृष्टिस्त्विष चैव तथा चापचितिः शुभा॥
स्मृतिश्चाडिरसः पत्नी जज्ञे तावात्मसम्भवौ।
पुत्रौ कन्याश्चतस्त्रश्च पुण्यास्ता लोकविश्रुता॥
अनसूयापि जज्ञे तान् पश्चात्रे यानकल्मषान्।
कन्याँचैव श्रुति नाम माता शख्पादस्य या।
कर्म मस्य तु या पत्नी पुलहस्य प्रजापतेः॥
ऊर्जायान्तु वशिष्ठस्य पुत्रा वै सप्त जज्ञिरे।
ज्यायसी च स्वसा तेषाँ पुण्डरीका समुध्यमा॥ - वाय पुराण
पांडु और मृकण्डु ब्रह्मकोश तथा सनातन हुए। मनस्विनी में मृकण्डु से मार्कंडेय उत्पन्न हुए। मारीचि की पत्नी सम्भूति नाम वाली थी उसने अपत्य पुत्र उत्पन्न किया जो पूर्णमास उत्पन्न होता है। और उसके कन्यायें हुई उन्हें समझ लो तुष्टि, पुष्टि, त्विषा, अत्यचिति और शुभा ये कन्याएं हुईं। अंगिरा की पत्नी स्मृति ने दो पुत्र पैदा किए और चार परम पवित्र तथा लोक विश्रुत कन्या उत्पन्न की थी। अनसूया ने भी अकल्मष पाँच अत्रियों को जन्म दिया और एक कन्या उत्पन्न की जिसका नाम श्रुति था और जो शंखपद की माता थी जो प्रजापति पुलह कर्दम की पत्नी थी। ऊर्जा में वसिष्ठ के सात पुत्र उत्पन्न हुए और ज्यायसी (बड़ी) उनकी बहिन सुमध्यमा पुण्डरीका थी।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः।
तेषाँ विख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ॥
दत्तात्रेयस्तस्य ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः। - वायु पुराण
स्वस्त्यात्रेय इस नाम से विख्यात वेद के पुरोगामी ऋषिगण थे उनमें विख्यात यश वाले महान् ओज से युक्त परम ब्रह्मिष्ठ दो पुत्र थे। उनमें दत्तात्रेय सबसे बड़ा था उसका छोटा भाई दुर्वासा था।
गृहस्थ में रहते हुए-स्वावलम्बी आजीविका उपार्जन करते हुए राजा जनक की तरह जल में कमल पत्र व्रत रहना सम्भव है (1) उच्च मनोभूमि (2) सत्कर्म (3) वाणी का श्रेष्ठतम सदुपयोग करना यह तीन दण्ड है। उन्हें धारण करने वाला व्यक्ति बिना वेष धारण किये त्रिदण्डी संन्यासी हो सकता है।
वस्तुतः शारीरिक और मानसिक उत्कृष्टता को धारण करना ही योगी यति होने का वास्तविक आधार है घर छोड़ देना या वेष धारण करना उसके लिए आवश्यक नहीं। प्राचीन परम्परा ऐसी ही साधना की है। जिसमें मन की क्रिया को निर्मल उत्कृष्ट बनाने पर ही सारा जोर दिया जाता रहा है। ऋषि-मुनि इसी स्तर के होते रहे है इसका उल्लेख शास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है-
एवं निश्चित्य सुविधा गृहस्थोऽपि यदा चरेत्।
तदां सिद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥ - शिव गीता
निश्चय आस्था और निर्मल बुद्धि वाला गृहस्थ भी योग साधना करते हुए निस्सन्देह सिद्धि प्राप्त करता है।
गृहस्थश्चाप्यनासक्तः स मुक्तो योगसाधनात्।
योगक्रियाभियुक्तानाँ तस्मात्संयतते गृही॥
गेहे स्थित्वा पुत्रदारादिपूर्णः सगंत्यक्त्वा चान्तरे योगमार्गे।
सिद्धे चिन्ह वीक्ष्य पश्चाद्गृहस्थः क्रीडेत्सों वै सम्मत साधयित्वा॥ - शिव गीता
योग साधना में संलग्न साधक गृहस्थ रहते हुए भी संयम पूर्वक साधना करने से सिद्धि प्राप्त करता है।
घर में रह कर स्त्री पुत्र आदि की व्यवस्था अनासक्त भाव से करते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है।
बाग्दण्डःकर्मदण्डश्चमनोदण्डश्चतेत्रयः।
यस्यैतैनियतादण्डाःसत्रिदण्डीमहायतिः॥ - मारकण्डेय पुराण
जिसके पास (1) वाक् दण्ड (2) कर्म दण्ड (3) मनः दण्ड है वही त्रिदण्डी है। वही महा यति है।
इन्द्रियाणि वशीकृत्य गृह एवं वसैन्नरः।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्र नैमिष पुष्कराणि च॥
गडद्वारच्च् केदारं सन्निहत्यां तथैव च।
एतानि सर्वतीर्थानि कृत्वा पापैः प्रमुच्यते॥ - व्यास स्मृति
अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य यदि घर में ही रहे तो उसके लिए वह घर ही नैमिषारण्य, कुरु क्षेत्र एवं पुष्कर के समान है। जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिये गंगा द्वार, केदारनाथ आदि सभी तीर्थों का लाभ अपने पास ही मिल जाता है।
प्रपश्चमखिलं यस्तु ज्ञानाग्नौ जुहुताद्यतिः।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य सोऽग्निहोत्री महायतिः॥ - संन्यासोपनिषद् 21229
जो अपनी आत्मा में अग्नि को प्रज्वलित करता है वही सच्चा अग्निहोत्री और महायति है।
साधनात्मक पथ पर अग्रसर होते हुए विचारवान साधकों को साँसारिक और आत्मिक दोनों भूमिकाओं का समन्वयात्मक निर्वाह करना चाहिए। प्राचीन काल में भी ऋषि-मुनियों की जीवनचर्या यही थी। आज की दृष्टि से यही उचित एवं उपयुक्त है।
भिक्षा का अन्न वही ग्राह्य है जो उच्च संस्कारवान व्यक्तियों का है, और पूर्ण न्यायोचित, नीतियुक्त कमाया गया है। आज ऐसा अन्न मिलना प्रायः एक प्रकार से असम्भव नहीं है। अनीति उपार्जित धान्य को खाकर साधना करने से साधक की बुद्धि भी वैसी ही कुसंस्कारी बनेगी। उसे न एकाग्रता प्राप्त होगी और न शान्ति। भजन का बहाना भले ही करते रहा जाय, न उसमें मन लगेगा और न सफलता मिलेगी। ऐसी दशा में आज की स्थिति में-भिक्षा का अन्न, मुफ्त का निर्वाह एक प्रकार से सर्वथा अवांछनीय ही है। जंगलों में कन्द, मूल, फल की प्राचीन सुविधा रही नहीं। अब वे बन कहाँ है जहाँ थोड़ी कृषि उद्यान गो पालन करके निर्वाह की व्यवस्था की जा सके। ऐसी दशा में यही उचित है कि अपने हाथ-पैर के उपार्जन से गुजारा करते हुए साधनात्मक जीवन जिया जाय।
जिसका अन्न खाया जाता है उसके बदले में अपना तप उपार्जित पुण्य देना पड़ता है। मुफ्त में यहाँ कहीं कुछ भी मिलने का नियम नहीं है। भौतिक जीवन का क्रम अवरुद्ध करके मन साधन किया और जो कमाया वह अन्न, वस्त्र दाता दानी के लिए चला गया। उसमें अपने लिए क्या बचा। इसमें क्या बुद्धिमानी रही। भले ही थोड़ा भजन या सेवा कार्य किया जाय पर वह स्वावलम्बी होकर ही करना चाहिए। तभी उसमें कुछ सफलता मिलेगी।
प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि आज के साधु बाबाओं से सर्वथा भिन्न थे। उनमें से अधिकांश गृहस्थ संन्यासी-गृही विरागी थे। प्रकृति के समीप शुद्ध जल-वायु का आश्रय लेकर वे विरल प्रदेशों में रहते थे। गो पालन, फल, शाक उत्पादन आदि निर्वाह की उपयुक्त व्यवस्था वही बना लेते थे। आश्रम में स्त्री-बच्चों समेत रहते थे। अपने परिवार को भी सुसंस्कारी और लोकोपयोगी बनाते थे। साथ ही गुरुकुल, चिकित्सा तप, शास्त्र चिन्तन, आगन्तुकों को परामर्श विभिन्न विषयों के शोधकार्य जैसी प्रवृत्तियाँ वहाँ रह कर चलाते थे और आवश्यकतानुसार भ्रमण करके जन-जागरण की आवश्यकता पूरी करते थे। यही ऋषि जीवन था। संन्यास तो जीवन के अन्तिम एवं अशक्त भाग में लिया जाता था। इससे पूर्व तो वानप्रस्थ की-ऋषि-मुनि की भूमिका ही समस्त आत्म-परायण व्यक्ति निबाहते थे।
आज की युवावस्था में संन्यास परम्परा अवैदिक- अशास्त्रीय है। उसका जन्म बुद्ध काल में हुआ। समय-समय पर उस अवांछनीय उभार का खण्डन भी किया जाता रहा है। निम्न स्तर के व्यक्ति यदि उच्चस्तर का वेष धारण कर लें तो भी वस्तुस्थिति का निर्वाह नहीं हो सकता। कोई छोटा बच्चा, वृद्ध जैसी सफेद दाढ़ी मूँछ लगा ले, अशिक्षित व्यक्ति विद्वान् का वेष धारण कर ले, निर्धन होते हुए भी अमीर का स्वाँग बनाये तो यह सर्वथा उपहासास्पद ही होगा। योग्यता के अभाव में ऊँचे पद के उत्तरदायित्वों का निर्वाह हो नहीं सकेगा। फलतः अवांछनीय परिणाम ही सामने आवेंगे। आज की साधु-बाबाओं की भीड़ से केवल गड़बड़ी ही उत्पन्न हो रही है। उस पद के अधिकारी पात्र और उत्तरदायित्व का सही निर्माण करने वाले कोई विरले ही कहीं-कहीं दीखते हैं।
अध्यात्म साधनाओं के पथ पर चलने के लिये साहस करने वाले व्यक्तियों को आज की स्थिति में संन्यासी होने की-कपड़े रंगने की, घर छोड़ने की जरूरत नहीं है। यदि युवावस्था हो तो गृह आजीविका उपार्जित करते हुए इस मार्ग पर चलने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। यदि आयु ढल गई है और बच्चे कमाने योग्य हो गये है, छोटे बहन-भाइयों को सम्भाल सकते हैं तो फिर वानप्रस्थ की तरह घर में रहते हुए स्वाध्याय, सेवा संयम, साधना का क्रम निर्धारित करना चाहिए। घर से कुछ दूरी भी निवास किया जा सकता है। पत्नी को भी साथ रखा जा सकता है। पर आजीविका की दृष्टि से स्वावलम्बी ही होना चाहिए।
संचित आजीविका का प्रबन्ध न हो तो सेवा कार्य के बदले पारिश्रमिक लेकर निर्वाह करना चाहिए पर मुफ्त का भोजन निर्वाह किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करना चाहिए। सम्पर्क में कोई उदार दानी हो और अपनी सेवा सहायता करना चाहे तो उस धन को अपने लिए न लेकर लोकमंगल लिए ही लगा या लगवा देना चाहिए। प्राचीनकाल में पुरोहितों द्वारा जो प्रतिग्रह लिया जाता था वह उनके निजी काम नहीं आता था वरन् सार्वजनिक सत्प्रयोजनों के लिये ही नियोजित होता था। अभी भी उसी परम्परा को अपनाया जाना चाहिए।
ब्रह्मचर्य की मर्यादा जितनी अधिक सम्भव हो उतनी रखी जाय पर दुर्बल मनोभूमि के रहते उस प्रकार की प्रतिज्ञा करना अनिवार्य नहीं। हाँ साधना मार्ग पर चलने वालों को सन्तान की संख्या न्यूनतम रखने का आरम्भ से ही प्रयास रखना चाहिए। ढलती आयु में तो यह सतर्कता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। बुढ़ापे में सन्तान पैदा करना अपने साथ और उस सन्तान के साथ एक प्रकार से अत्याचार करना ही है।
प्राचीनकाल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, स्त्री बच्चे भी साथ रहते थे उसके कुछ प्रमाण देखिये-
तारावृहस्पतेर्भार्य्या वशिष्ठस्याप्यरुन्धती।
अहल्या गौतमस्त्री साप्यनस्यात्रिकामिनी॥
देहहूती कर्दमस्य प्रसूतिर्द क्षकामिनी।
पितृणाँ मानसी कन्या मेनका साम्बिकाप्रसूः॥
लोपामुदा तथाहूती कुबेरकामिनी तथा।
बरुणामी यमस्त्री चबलेर्विन्ध्यावलीति च॥ - ब्रह्म वैवर्त पुराण
सुर गुरु बृहस्पति की भार्या का नाम तारा देवी है, वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती है, गौतम ऋषि की पत्नी का नाम अहल्या है, अत्रि की पत्नी अनसूया नाम वाली है, देवहूति नाम वाली कर्दम की पत्नी है तथा दक्ष की पत्नी प्रसूति नाम धारिणी है। पितृगण की मानसी कन्या मेनका अम्बिका प्रसू है। लोपामुद्रा तथा आहुति कुबेर की कामिनी है यम की वरुणानी है और राजा बली की पत्नी विन्ध्यावली है।
तस्य प्रधायमानस्य कश्यपस्य महात्मनः।
ब्रह्माणोऽशौ सुतौ पश्चात् प्रादुर्भूतौ महौजसौ॥
वत्सारश्चासिश्चैव ताबुभौ ब्रह्मवादिनौ। - वायु पुराण
महात्मा कश्यप के दो पुत्र उत्पन्न हुए वात्सर और असित। वे दोनों ही ओजस्वी और ब्रह्मवादी थे।
तस्य कन्या त्विडविडा रुपेणाप्रतिमाभवत्।
पूलस्त्याय स राजर्षिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत्॥
ऋषिरिडविडायान्त विश्रवाः समपद्यत। - वायु पुराण
तृतीय त्रेता युग में मुख में राजा हुआ था। उसकी इडविडा थी जो कि रूप में अप्रतिम थी। उस राजर्षि ने वह परम सुन्दरी कन्या पुलस्त्य के लिये दे दी थी। ऋषि पुलस्त्य ने इडविडा में विश्रवा को जन्म दिया।
बृहस्पतेबृहत्कीर्तिर्दे वाचार्यस्य कीर्तितः।
कन्याँःतस्योपयेमे स नाम्ना वै देववर्णिनीम्। - वायु पुराण
देवों के आचार्य बृहस्पति को बृहत्कीर्ति कहा गया है नाम से देववर्णिनी उसकी कन्या के साथ उसने विवाह किया था।
शुकस्याऽस्याभवन् पुत्राः पश्चाऽत्यन्ततपस्विनः।
भूरिश्रवाः प्रभुः शम्भु कृष्णो गौरश्च पश्चमः॥
कन्याकीर्तिमतीचैवयोग माताधृतव्रता। - कूर्म पुराण
इन शुकदेव के पाँच अत्यन्त तपस्वी पुत्र हुए थे जिनके नाम भूरिश्रवा-प्रभु-शम्भु-कृष्ण और गौर थे। एक कन्या थी जो कीर्तिमती- योग माता और धतवृता थी।
अरुन्धत्याँ वशिष्ठस्तु शक्तिमुत्पादयत्सुतम्।
शंक्तेः पराशरः श्रीमान् सर्व्वज्ञस्तपतां वरः॥
आराध्य देवदेवेशमीशानंत्रिपुरान्तकम्।
लेभे त्वप्रतिमं पुत्रं कृष्णद्वैपायं प्रभुम्॥ - कूर्म पुराण
वशिष्ठ ने अरुन्धती पत्नी से शक्ति नामधारी पुत्र को ही उत्पन्न किया था। शक्ति से श्रीमान् सर्वज्ञ और तपस्वियों में परम श्रेष्ठ पराशर ने अपना जन्म ग्रहण किया था। उस पराशर महामुनि ने देवों के भी देवेश्वर त्रिपुरान्तक ईशान की समाराधना करके एक अति अप्रतिम प्रभु श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जैसा उत्तम पुत्र प्राप्त किया था।
वशिष्ठस्तूपयेमेऽथ भागिनी नारदस्य तु ।
अरुन्धतीं वरारोहां तस्यां शक्ति मजीजनत् ॥
शक्तः शराशरः पुत्रस्तस्य वंश निभोध मे ।
यस्य द्वैपायनः पुत्रः स्वयं विष्णुरजायत ॥ - मत्स्य पुराण
वशिष्ठ ने नारद की भगिनी के साथ विवाह किया था, जिस वरारोहा का नाम अरुन्धती था। उस अरुन्धती में उसने शक्ति को समुत्पन्न किया था। शक्ति का पुत्र पराशर हुआ था। अब उसका जो भी अंश हुआ, उसे मुझसे समाज लो। जिस पराशर का स्वयं विष्णु द्वैपायन पुत्र उत्पन्न हुआ था।
अङ्गारेष्वङ्गिरा जातो ह्यार्चिभ्योऽत्रिस्तथैव च ।
मरीचिभ्यो मरीचिस्तु ततो जातो महातपाः ॥
कशैस्तु कपिशा जातः पुलस्त्यश्च महातपाः ।
केशै प्रलम्बैः पुलहस्ततोजातोमहातपाः ॥
वसुमध्यात् समुत्पन्नो वशिष्ठस्तु तपोधनः ।
भृगुः पुलोम्नस्तुसुतांदिव्यांभार्यामविन्दत ॥ - मत्स्य पुराण
अङ्गारों में अङ्गिरा उत्पन्न हुए और हुताशन की अर्चियों से अत्रि ऋषि की उत्पत्ति हुई थी और इसके अनन्तर मरीचियों से महान् तपस्वी महर्षि मरीचि उत्पन्न हुए थे। केशों से कपिश और महान् तपस्वी पुलस्त्य उत्पन्न हुए। पुलम्ब केशों से फिर महान् तपस्वी पुलह समुत्पन्न हुए। वासु के मध्य से तप के ही धन वाले वशिष्ठ ऋषि प्रसूत हुए थे। भृगु महर्षि ने पुलोमा की पुत्री को अपनी दिव्य भार्या बनाया।
एतानुत्पाद्य पुत्रास्तु प्रजासन्तानकारणात् ।
कश्यपः पुत्रकामस्तु चचार सुमहत्तपः ॥
तस्यैवन्तपतोऽत्यर्थं प्रादुर्भूतौसुताविमौ ।
वत्सरश्चासितश्चैव तावुभौ ब्रह्मवादिनौ ॥ - कुर्म पुराण
कश्यप ऋषि ने पुत्रों की कामना करते हुए इस प्रकार से प्रजा को सन्तान के कारण से पुत्रों को समुत्पन्न करके फिर सुमहान् तप किया था। उनके इस भाँति तप करने पर ये दो सुत समुत्पन्न हुए थे जिनमें एक वत्सर और दूसरा असित था। वे दोनों की ब्रह्मवादी थे।
पाण्डुश्चैव मृकण्डुश्च ब्रह्मकोशौ सतातनो।
मनस्विन्याँ मृकण्डोश्च मार्कण्डेयो बभूव हे॥
प्रजायते पूर्णमासं कन्याश्चेमा निबोधत।
तृष्टि पृष्टिस्त्विष चैव तथा चापचितिः शुभा॥
स्मृतिश्चाडिरसः पत्नी जज्ञे तावात्मसम्भवौ।
पुत्रौ कन्याश्चतस्त्रश्च पुण्यास्ता लोकविश्रुता॥
अनसूयापि जज्ञे तान् पश्चात्रे यानकल्मषान्।
कन्याँचैव श्रुति नाम माता शख्पादस्य या।
कर्म मस्य तु या पत्नी पुलहस्य प्रजापतेः॥
ऊर्जायान्तु वशिष्ठस्य पुत्रा वै सप्त जज्ञिरे।
ज्यायसी च स्वसा तेषाँ पुण्डरीका समुध्यमा॥ - वाय पुराण
पांडु और मृकण्डु ब्रह्मकोश तथा सनातन हुए। मनस्विनी में मृकण्डु से मार्कंडेय उत्पन्न हुए। मारीचि की पत्नी सम्भूति नाम वाली थी उसने अपत्य पुत्र उत्पन्न किया जो पूर्णमास उत्पन्न होता है। और उसके कन्यायें हुई उन्हें समझ लो तुष्टि, पुष्टि, त्विषा, अत्यचिति और शुभा ये कन्याएं हुईं। अंगिरा की पत्नी स्मृति ने दो पुत्र पैदा किए और चार परम पवित्र तथा लोक विश्रुत कन्या उत्पन्न की थी। अनसूया ने भी अकल्मष पाँच अत्रियों को जन्म दिया और एक कन्या उत्पन्न की जिसका नाम श्रुति था और जो शंखपद की माता थी जो प्रजापति पुलह कर्दम की पत्नी थी। ऊर्जा में वसिष्ठ के सात पुत्र उत्पन्न हुए और ज्यायसी (बड़ी) उनकी बहिन सुमध्यमा पुण्डरीका थी।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः।
तेषाँ विख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ॥
दत्तात्रेयस्तस्य ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः। - वायु पुराण
स्वस्त्यात्रेय इस नाम से विख्यात वेद के पुरोगामी ऋषिगण थे उनमें विख्यात यश वाले महान् ओज से युक्त परम ब्रह्मिष्ठ दो पुत्र थे। उनमें दत्तात्रेय सबसे बड़ा था उसका छोटा भाई दुर्वासा था।
गृहस्थ में रहते हुए-स्वावलम्बी आजीविका उपार्जन करते हुए राजा जनक की तरह जल में कमल पत्र व्रत रहना सम्भव है (1) उच्च मनोभूमि (2) सत्कर्म (3) वाणी का श्रेष्ठतम सदुपयोग करना यह तीन दण्ड है। उन्हें धारण करने वाला व्यक्ति बिना वेष धारण किये त्रिदण्डी संन्यासी हो सकता है।
वस्तुतः शारीरिक और मानसिक उत्कृष्टता को धारण करना ही योगी यति होने का वास्तविक आधार है घर छोड़ देना या वेष धारण करना उसके लिए आवश्यक नहीं। प्राचीन परम्परा ऐसी ही साधना की है। जिसमें मन की क्रिया को निर्मल उत्कृष्ट बनाने पर ही सारा जोर दिया जाता रहा है। ऋषि-मुनि इसी स्तर के होते रहे है इसका उल्लेख शास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है-
एवं निश्चित्य सुविधा गृहस्थोऽपि यदा चरेत्।
तदां सिद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥ - शिव गीता
निश्चय आस्था और निर्मल बुद्धि वाला गृहस्थ भी योग साधना करते हुए निस्सन्देह सिद्धि प्राप्त करता है।
गृहस्थश्चाप्यनासक्तः स मुक्तो योगसाधनात्।
योगक्रियाभियुक्तानाँ तस्मात्संयतते गृही॥
गेहे स्थित्वा पुत्रदारादिपूर्णः सगंत्यक्त्वा चान्तरे योगमार्गे।
सिद्धे चिन्ह वीक्ष्य पश्चाद्गृहस्थः क्रीडेत्सों वै सम्मत साधयित्वा॥ - शिव गीता
योग साधना में संलग्न साधक गृहस्थ रहते हुए भी संयम पूर्वक साधना करने से सिद्धि प्राप्त करता है।
घर में रह कर स्त्री पुत्र आदि की व्यवस्था अनासक्त भाव से करते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है।
बाग्दण्डःकर्मदण्डश्चमनोदण्डश्चतेत्रयः।
यस्यैतैनियतादण्डाःसत्रिदण्डीमहायतिः॥ - मारकण्डेय पुराण
जिसके पास (1) वाक् दण्ड (2) कर्म दण्ड (3) मनः दण्ड है वही त्रिदण्डी है। वही महा यति है।
इन्द्रियाणि वशीकृत्य गृह एवं वसैन्नरः।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्र नैमिष पुष्कराणि च॥
गडद्वारच्च् केदारं सन्निहत्यां तथैव च।
एतानि सर्वतीर्थानि कृत्वा पापैः प्रमुच्यते॥ - व्यास स्मृति
अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य यदि घर में ही रहे तो उसके लिए वह घर ही नैमिषारण्य, कुरु क्षेत्र एवं पुष्कर के समान है। जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिये गंगा द्वार, केदारनाथ आदि सभी तीर्थों का लाभ अपने पास ही मिल जाता है।
प्रपश्चमखिलं यस्तु ज्ञानाग्नौ जुहुताद्यतिः।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य सोऽग्निहोत्री महायतिः॥ - संन्यासोपनिषद् 21229
जो अपनी आत्मा में अग्नि को प्रज्वलित करता है वही सच्चा अग्निहोत्री और महायति है।
साधनात्मक पथ पर अग्रसर होते हुए विचारवान साधकों को साँसारिक और आत्मिक दोनों भूमिकाओं का समन्वयात्मक निर्वाह करना चाहिए। प्राचीन काल में भी ऋषि-मुनियों की जीवनचर्या यही थी। आज की दृष्टि से यही उचित एवं उपयुक्त है।