Magazine - Year 1975 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विज्ञान और अध्यात्म को साथ-साथ चलना होगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विज्ञान और अध्यात्म अन्योन्याश्रित है। एक दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। विज्ञान हमारे साधनों को बढ़ाता है और अध्यात्म आत्मा की। आत्मा को खोकर साधनों की मात्रा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो उनसे मनुष्य भोगी, व्यसनी, अहंकारी और स्वार्थी ही बनेगा। महत्वाकाँक्षाएँ मनुष्य को नीति तक सीमित नहीं रहने देती। आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुछ भी कर गुजरता हैः उसे अनीति अपनाने और कुकर्म करने में भी कोई झिझक नहीं होती। अध्यात्म चिन्तन को, आकाँक्षाओं को, क्रिया को उन मर्यादाओं की परिधि में बाँधकर रखता है जिसमें व्यक्ति का चरित्र और समाज का व्यवस्था क्रम अक्षुण्ण बना रह सके। अस्तु दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में समान रुप से उपयोगी है।
पुरुषार्थ के साथ प्रगति को जोड़ा जाना वैज्ञानिक दृष्टि है। जो होने वाला है, जो भागय में लिखा है, जो ईश्वर को करना है सो होकर रहेगा। यह मान्यता अवैज्ञानिक है। जन्मपत्र के आधार पर कितने दिन जीना है यह निर्धारण करना मिथ्या है। अब से पचास वर्ष पूर्व रुस की औसत आयु 23 साल थी तब वह बढ़कर 68 साल हो गई स्वीडन और स्विटजरलैण्ड में वह बढ़कर 80 के करीब जा पहुँची जबकि हम भारतवासी 32 वर्ष की औसत आयु से आगे नहीं बढ़ सके। इसमें भागय विधान नहीं पुरुषार्थ ही कारण है। भौतिक प्रगति के लिए चिन्तन और कतृत्व को विकसित करना विज्ञान है। जिसे अध्यात्म की ही तरह आवश्यक माना जाना चाहिए।
ईसा कहते थे-मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता। साथ ही यह भी सही है कि मनुष्य रोटी के बिना नहीं जी सकता। इसलिए रोटी की व्यवस्था भी होनी चाहिए और उन तत्वों की भी जिसके बिना, मात्र रोटी की वह उपयोगिता नहीं रह जाती जिसके सहारे मनुष्य की आत्मा को जीवित रखा जा सके। रोटी केवल शरीर को जिन्दा रख सकती है जैसा कि खुराक के सहारे मक्खी, मच्छर आदि अन्य प्राणी जीवित रहते हैं।
हमारा चिन्तन सर्वागीण होना चाहिए न कि एकाँकी। रोटी के बिना संन्यासी भी नहीं जी सकता। वह संसार को असार-माया मिथ्या कहता भले ही रहे पर उन पदार्थों के बिना एक दिन का भी गुजारा नहीं जो ‘माया’ के अर्न्तगत आते हैं। पिछले दिनों हम ब्रह्मावाद के बढ़े-चढ़े प्रतिपादन करते रहे है और भौतिक क्षमताओं को उपेक्षित बनाये रहे हैं। फलतः उस एक पक्षीय प्रगति ने हमें भौतिक दृष्टि से दुर्बल बना दिया इस दुर्बलता का लाभ विदेशी आक्रमणकारियों ने उठाया और हमें लम्बे समय तक गुलामी के सिकंजे में कसकर रखा।
भौतिक पदार्थों की विवेचना एवं उपलब्धि प्रस्तुत करने वाला विज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता। वह सत्य है। सत्य के नियम होते हैं-झूठ के नहीं। विज्ञान नियमों पर आधारित है। स्वप्न का-मिथ्या का कोई नियम नहीं। यदि यह संसार मिथ्या होता तो उसमें कोई नियम क्रम दिखाई न पड़ता।
पिछले दिनों हमने वैज्ञानिक दृष्टि गँवा दी और विवेक रहित श्रद्धा को छाती से लगाये रहे। फलतः पग-पग पर मार खाते रहे। विदेशी आक्रमणों से जूझने की भौतिक तैयारी न थी। मन्त्रों की अथवा देवताओं की शक्ति से सारे संकट पार होने की बात सोची जाती रही फलतः आक्रमणकारी सफलतापूर्वक सफल होते चले गये। यदि हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टि होती तो यथार्थ चिन्तन सम्भव होता आत्मा को परिष्कृत बनाने के लिए अध्यात्म को शरीर को, और समाज को परिपुष्ट करने के लिए समर्थता की आवश्यकता अनुभव करते और तदनुरुप साधन जुटाते। वैज्ञानिक दृष्टि का अर्थ है-मान्यताओं, आग्रहों, आस्थाओं की गुलामी से छुटकारा पाकर यथार्थता को समझ सकने योगय विवेक का अवलम्बन। उसमें अन्ध-विश्वासों और परम्पराओं के लिए कोई स्थान नहीं। तथ्यों और प्रमाणों की कसौटी पर जो खरा उतरे उसी को अपनाना वस्तुतः सत्य की खोज है। इसे हटा देने पर अध्यात्म निष्प्राण ही नहीं, भ्रमोत्पादक और भय संवर्धक बन जाता है। हम निष्ठावान बनें, श्रद्धालु रहें, पर वह सब विवेक युक्त होना चाहिए। बुद्धि बेचकर मात्र परम्परावादी आग्रह अपनाये रहने से अध्यात्म का उद्देश्य और लाभ प्राप्त न हो सकेगा।
विज्ञान एवं धर्म अध्यात्म को एक-दूसरे का विरोधी तब कहा जाता है, जब यथार्थ चिन्तन की अवज्ञा करके किन्हीं पूर्वांग्रहों के साथ ही चिपटे रहने पर बल दिया जा रहा हो। हम यह भूल जाते हैं कि प्रगति की ओर हम क्रमशः ही बढ़े हैं और यह अनादि काल से चला आ रहा क्रम अनन्त काल तक चलता रहेगा। जो पिछले लोगो ने सोचा या किया था वह अन्तिम था उसमें सुधार की गुँजाइश नहीं यह मान बैठने से प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाता है और सत्य की खोज के लिए बढ़ते चलने वाले हमारे कदम रुक जाते हैं। विज्ञान ने अपने को भूत पूजा से मुक्त रखा है और पिछली जानकारियों से लाभ उठा कर आगे की उपलब्धियों के लिए प्रयास जारी रखा है। अस्तु वह क्रमशः अधिकाधिक सफल समुन्नत होता चला गया। अध्यात्म ने ऐसा नहीं किया उसने ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाई। समय आगे बढ़ गया, पर आग्रह शीलता की बेड़ियों ने मनुष्य को उन्हीं मान्यताओं के साथ जकड़े रखा जो भूत काल की तरह अब उपयोगी के साथ जकड़े रखा जो भूत काल की तरह अब उपयोगी नहीं समझी जाती। पूर्वजों से आगे की बात सोचना उनका अपमान करना है ऐसा सोचना क्रमशः आगे बढ़ते चले आने के सार्वभौम नियम को झुठला देना है।
इस पृथ्वी के जन्म समय क्या परिस्थितियाँ थीं और आदिम काल का मनुष्य कैसा था, इसे जानने के उपरान्त आज की परिस्थितियों के साथ तुलना करने पर मध्यवर्ती इतिहास देखना पड़ता है। उस निरीक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रगति क्रमशः ही संभव हुई है। आगे कदम बढ़ाने के लिए पैर को वह स्थान छोड़ना पड़ता है जहाँ वह पहले जमा हुआ था। पिछले स्थान से पैर न उठाया जाय तो वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? विज्ञान ने इस तथ्य को स्वीकारा और अपनाया है किन्तु अध्यात्म को न जाने क्यों इस प्रकार का साहस संचय करने में हिचकिचाहट रही है।
पिछले दिनों विज्ञान ने अपनी पूर्व निर्धारित ऐसी मान्यताओं को बहिष्कृत कर दिया जो किसी समय सर्वमान्य रही हैः पर नवीनतम खोजों ने जिन्हें झुठला दिया है। इन बहिष्कृत मान्यताओं में कुछ इस प्रकार हैं (1) सौर मंडल का केन्द्र पृथ्वी है। (2) तारक का आकार विस्तार और उनकी एक दूसरे से दूरी संबंधी मान्यताएँ (3) ग्रह तारक व्यक्ति विशेष पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। (4) पृथ्वी चपटी है। (5) पृथ्वी कुछ हजार वर्ष ही पुरानी है। (6) ऊपर से गिराने पर हल्की की अपेक्षा भारी वस्तु जल्दी नीचे गिरेगी (7) वस्तुएँ तभी गति करती हैं जब उनमें बल लगाया जाय (8) पदार्थ को ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता (9) ब्रह्माँड स्थिर है। (10) प्रकृति रिक्तता (बैकुम) से घृणा करती है और कहीं पोल नहीं रखना चाहती। (11) जीव विज्ञान की किस्में अपरिवर्तनीय है। (12) जीव उत्पत्ति के लिए अमुक जीव कोप ही उत्तरदायी है। (13) पानी और हवा मूल तत्व है। (14) परमाणु पदार्थ की अन्तिम न्यूनतम और अखंडित इकाई है। आदि ऐसी अगणित मान्यताएँ ऐसी हैं जिन्हें अवास्तविक ठहरा दिया गया है फिर भी उनके प्रतिपादनकर्ताओं को सम्मान यथावत् बनाये रखा गया है। कारण कि जिस समय उन्होंने यह मान्यताएँ प्रचलित की थीं उस समय की प्रचलित मान्यताएँ और भी अधिक पिछड़ी हुई थीं। उन दिनों उन प्रतिपादनों को भी क्रान्तिकारी माना गया है। प्रगति के पथपर चलते हुए सत्य की दिशा में जो कुछ इस समय जाना माना गया है आवश्यक नहीं कि वह भविष्य में भी इसी तरह माना जाता रहे। इस बात की पूरी संभावना है कि अब की अपेक्षा भावी प्रतिपादन और भी अधिक क्रान्तिकारी माने जायँ। ऐसी स्थिति का आज के वैज्ञानिक सहर्ष स्वागत करने के लिए तैयार हैं।
धार्मिक मान्यताओं में भी क्रमशः परिवर्तन होता आया है यद्यपि कहा यही जाता है कि धर्म सनातन और शास्वत है। बारीकी से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म न तो अनादि और अनन्त। वह स्थिर भी नहीं है और अपरिवर्तनशील भी नहीं। उसका जाने अनजाने क्रमिक विकास होता रहा है। इस स्थिति को सुधारवाद कहा जा सकता है। धर्म वेत्ता, मनीषी, अवतारी, देवदूत समय-समय पर इसी प्रयोजन के लिए अवतरित होते रहे हैं कि न केवल परिस्थिति को वरन् तत्कालीन लोक मनःस्थिति को भी बदलें। उनने अपने से पूर्व के प्रचलनों के स्थान पर ऐसे प्रतिपादन प्रस्तुत किये जिन्हें उस समय निश्चित रुप से क्रान्तिकारी समझा गया है और तत्कालीन पुरातन पंथियों ने उसका घोर विरोध भी किया था।
ईश्वर संबंधी आज की मान्यताएँ उसमें भिन्न हैं जो आदिम ने मनुष्य के अपने मस्तिष्क में स्थापित की थीं। देवताओं के रुष्ट और प्रसन्न होने का आधार और परिणाम-धर्म के नियम और प्रतीक-उपासनात्मक-कर्म-काण्ड और विधान आदि के संबंध में क्रमशः इतने अधिक परिवर्तन होते रहें हैं कि भूतकालीन मान्यताएँ न केवल विचित्र वरन् बहुत अंशों में अब के प्रतिपादनों में लगभग सर्वथा विपरीत पड़ते हैं। धर्म संस्थापक, सुधारक एवं अवतारी व्यक्ति वस्तुतः अपने समय की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिस्थितियों मान्यताओं एवं प्रथाओं में-क्रान्तिकारी परिवर्तन करके सुधारवादी प्रतिष्ठापनाएँ करने वाले लोग ही थे।
योरोप में इगलैण्ड के न्यूटन, इटली के गैलीलियों, पोलैण्ड में केपलर आदि वैज्ञानिकों ने अपने समय में क्रान्तिकारी वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादन किये थे। धार्मिक मान्यताओं में भारी सुधार प्रस्तुत कराने वाले मनीषियों में जर्मनी के लूथर, स्विटजरलैण्ड के ज्विंगी, फ्राँस के केल्विन, स्काटलैण्ड के जोन नोक्स आदि अग्रणी रहे हैं। न केवल भारत में भी ऐसे ही अनेकानेक उदाहरण हैं वरन् समस्त विश्व में अपने ढंग से यह सुधारवादी प्रक्रिया चलती रही है। भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में सदा ही प्रगति की कुसमुसाहट जारी रही है। उसी ने मानव को उस स्तर तक पहुँचाया है जिसमें कि वह आज है।
जूलयिन हक्सले ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि विज्ञान की तरह ही अध्यात्म का आधार भी तथ्यों को रखा जाना चाहिए। लोभ और भय से उसे मुक्त किया जाना चाहिए, काल्पनिक मान्यताओं का निराकरण होना चाहिए और चेतना को परिष्कृत करने की उसकी मूलदिशा एवं क्षमता को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
विचार और कार्य, विश्वास और श्रद्धा, शंका और निराशा, ज्ञान और कर्तव्य, व्यक्ति और समाज, पदार्थ और आत्मा, जाति और सभ्यता, कथा और इतिहास, प्रेम और घृणा, त्याग और भक्ति, जैसे असंख्य प्रश्न अभी अनिर्णीत पड़े हैं। इस संदर्भ में अध्यात्म द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखकर शोध करनी चाहिए और जो निर्ष्कष सामने आये उनसे मानव जाति को लाभान्वित करना चाहिए।
सामायिक परिस्थितियाँ या तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो दवाब देती हैं उनसे वैज्ञानिक अपने खोज प्रयासों के लिए दिशा एवं प्रेरणा उपलब्ध करते हैं। ठीक इसी प्रकार अध्यात्म वेत्ताओं को भी समय की माँग को पूरा करने के लिए विचारणा एवं श्रद्धा के शक्तिशाली चेतना तत्वों को नये सिरे से ढालना पड़ता है। और उस प्रयोग का प्रचलन योजना बद्ध रुप से करना पड़ता है।
विज्ञान और धर्म वस्तुतः मानव जीवन के दो ऐसे पहलू हैं जो अविच्छिन्न रुप से एक-दूसरे के साथ जुडे़ हुए हैं। उन्हें परस्पर विरोधी न तो माना जा सकता है और न रखा जाता है यदि वास्तविक प्रगति की सुस्थिर सुख-शान्ति की अपेक्षा हो तो इन दोनों महान शक्ति स्रोतों को गाड़ी के दो पहियों की तरह समन्वित रहने और गतिशील रहने के लिए बाध्य करना होगा।