Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारी दुर्दशा दुमुँहे साँप जैसी
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दक्षिणी अफ्रीका के पोर्टलिजाबेथ के अजायबघर में एक दो मुँह का साँप था। वह खाता तो दो मुँह से था पर पेट एक ही था। एक दिन साँप के दोनों फन आपस में लड़ने लगे और एक दूसरे पर आक्रमण करने लगे। उस दिन पहरेदार ने उसे देख लिया और हस्तक्षेप करके लड़ने से रोक दिया, पर वे द्वेष मन में बसाते और बढ़ाते ही चले गये, फनों में आये दिन खटपट होती रहती और पहरेदार बीच-बचाव करता रहता। अन्त में अवसर पाकर दोनों सिर आपस में बुरी तरह जूझ पड़े और तब छूटे जब उनकी जान चली गई।
एक ऐसा ही दुमुँहा सर्प न्यूयार्क के अजायबघर में था उसका नाम प्रोवेल्टिस रखा गया था। दर्शकों का वह प्रमुख आकर्षण था। सरक्षक जब उसे दूध पिलाने आते तो दोनों फन खुद पी जाने और दूसरे को न पीने देने के लिए झगड़ते। इसका बीच-बचाव करने के लिए संरक्षक को दो प्याले दो दिशाओं में रखने पड़ते या फिर दोनों फनों के बीच एक दफ्ती का टुकड़ा खड़ा करना पड़ता ताकि एक दूसरे को देख न सके और शान्तिपूर्वक पेट भर लें। इस साँप के दोनों मस्तिष्क पृथक-पृथक ढंग से सोचते थेस्त्र एक पूर्व को चलना चाहता था तो दूसरा पच्छिम को, इस खींचतान में शरीर की बुरी तरह दुर्गति होती थी। दोनों मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तु विलक्षण स्थिति में होते। दोनों की परस्पर विरोधी आज्ञाएँ एक ही समय में किस प्रकार पालन की जाँय इसका कोई हल न निकलने पर शरीर बुरी तरह इठता, अकड़ता, खिंचता, टूटता और थककर चूर-चूर होता हुआ दीखता था।
थाइलैण्ड के अजायबघर में ठीक ऐसा ही एक-दो सिर का कछुआ था। वह भी उपरोक्त सर्पों की तरह चिड़ियाघर में रखा गया था और उसी को सबसे पहले देखने के लिए दर्शक आतुर रहते थे। यह सिर एक ही ओर नहीं थे वरन् विपरीत दिशाओं में थे। अगले पैर उस सिर का हुक्म मानते थे जो उनके समीप होता था। दोनों और बढ़ने के लिए दोनों पैर जौर लगाते थे। फलस्वरुप बीच के धड़ की रस्साकसी जैसी खींचतान होती रहती थी। बेचारा कछुआ कोल्हू का बैल बना एक ही जगह आगे पीछे चलने-लौटने की हरकतें करता रहता था।
इन दो मुँहे साँप और कछुओं की मूर्खता पर हँसी आती है कि वे अपने ही एक अंग को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानकर उस पर आक्रमण करने की नासमझी में अपने को ही हानि पहुँचाते रहे और विज्ञ लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनते रहे।
हम सब शारीरिक दृष्टि से तो दुमुँहें साँप जैसी आकृति के नहीं हैं, पर प्रकृति लगभग उसी प्रकार की है। अपने ऊपर आप ही निरन्तर आक्रमण करते रहते हैं और अपने हाथों इतनी हानि पहुँचाते हैं जितनी कि शत्रु समझे जाने वाले लोग सब मिलकर एकबारंगी आक्रमण करके भी नहीं पहुँचा सकते। आहार-विहार की अनियमिताएँ अपनाकर अपना स्वास्थ्य अपने आप ही हम नष्ट करते हैं। जीभ की लिप्सा से पेट खराब होता है और कामुकता की अति जीवन रस को निचोड़ कर गन्दी नाली में बहा देती है। फिर खोखले शरीर से जिन्दगी की भारी भरकम लाश को ढोना कठिन हो जाता है। चिन्तन की भ्रष्टता दृष्टकोण की निकृष्टता अपनाकर हँसी-खुशी का हलका-फुलका जीवन जी सकना असम्भव हो जाता है।
दूसरे हमसे घृणा इसलिए करते हैं कि हम अपने आप से घृणा करते हैं। संसार में हमारी उपेक्षा अवज्ञा इसलिए हुई कि हमने स्वयं अपना सम्मान नहीं किया। हम आप ही अपने काटने गिराने में लगे रहे, अपने हाथों आत्म-हत्या करते रहे और इस कष्टप्रद एवं उपहासास्पद स्थिति में पड़े हैं जिसमें रहकर दुमुँहे साँप दुर्दशा भुगतते हैं।