Magazine - Year 1979 - January 1979
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Language: HINDI
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विधेयात्मक श्रद्धा उत्कर्ष का आधार
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चिकित्सा-विज्ञान की आधुनिक खोजें मानव-शरीर की छान-बीन करती हुई मन और अन्तःकरण के छोर तक जा पहुंचा है। आज मनोविज्ञान भी चिकित्सा-विज्ञान के विद्यार्थियों का एक अध्ययन विषय होता है। आज वैज्ञानिक- चिकित्सक एक स्वर से यह मान रहें है कि शारीरिक रोगों में अच्छा-खासा हिस्सा मानसजन्य रोगों का होता है। इसीलिए आज कई असाध्य रोगों में डॉक्टर किसी रोगी के साथियों- शुभचिन्तकों को आस्था चिकित्सा यानी “फेथ-हीलिंग” की अनुमति सहर्ष दे देते है। जबकि कुछ वर्षों पूर्व तक इसे घोर अन्ध विश्वास मानकर इसके नाम पर ही शिक्षित वर्ग में उपहास और तिरस्कार का भाव तैर जाता था। इसका कारण मात्र यही है कि मनुष्य की आस्था को उसे प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी शक्ति अब पुनः माना जाने लगा है। रोगी की आस्था यदि किसी स्थान या व्यक्ति अथवा क्रिया-विशेष के प्रति गहरी हुई तो उस पर उसका लाभ-दायक प्रभाव अवश्यंभावी है।
आस्था-चिकित्सा (फेथ-हीलिंग) और चमत्कार से उपचार (मिरेकिल-हीलिंग) की पद्धतियाँ विश्व के हर समाज तथा काल-खण्ड में किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में पूजा व आस्था के कुछ प्रतीक होते हैं। प्रतीक-पूजा और आस्था-पूजा के तत्व भारत समेत सम्पूर्ण एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका, आस्ट्रेलिया हर कही पाये जाते है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की आज की सर्वाधिक विकसित स्थिति वाले देश अमरीका में इन दिनों पुनः ‘फेथ-हीलिंग’ अधिकाधिक लोक प्रिय हो गई है। मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के अवचेतन मन के शक्ति को प्रतिपादन और वहाँ जमी आस्थाओं के आश्चर्यजनक परिणामों के विश्लेषण ने इस प्रक्रिया को तेज किया है।
दक्षिणी पश्चिमी फ्राँस में एक शहर है लुर्द। यह रोमन कैथालिकों का एक प्रमुख तीर्थस्थान है। यहाँ एक गरीब किसान परिवार में एक कन्या जन्मी। नाम रखा गया-बनोंदे सुविरोस। 14 वर्ष की आयु से इस लड़की को भावनात्मक अनुभूतियाँ होने लगीं।
ईसा मसीह की माँ जो कुमारी थीं और “वर्जिन मेरी” के रूप में जानी जाती हैं, उनके सुविरोस को दर्शन होने लगे। वे इस लड़की को सन्देश देतीं। यह बात चारों तरफ फैली। ईसाई पुरोहितों ने इसका उग्र में विरोध किया। 16 अप्रैल 1879 को 36 वर्ष की उम्र में यह लड़की मर गई। पर मरकर भी वह अमर हो गई। उसकी स्मृति में वहाँ जो समाधिस्थान बनाया गया, वह तीर्थ बन गया। लाखों लोग वहाँ आने तथा रुकने से असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं।
अनेक लोगों ने इसे अन्ध-विश्वास का विस्तार बताते हुए तीखी आलोचना की और सरकार से इसमें हस्तक्षेप का अनुरोध किया। आलोचकों का कहना था कि यहाँ इतनी बड़ी संख्या में लोग आते हैं तो व्यापारियों को मनमाने दाम में सौदे बेचकर लाभ लूटने का एक जरिया निकल आया है।
फ्राँस-सरकार ने इस बात की जाँच के लिए एक जाँच-आयोग गठित कर दिया जो यह पता लगाये कि वहाँ आने वाले रोगियों को वास्तविक लाभ होता है या नहीं। आयोग में चिकित्सक मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्री भी थे। अनेक मामलों की विस्तृत छान बीन के बाद आयोग ने पाया कि यह बात पूर्णतः सत्य थी कि कई असाध्य रोगी लुर्द पहुंचने पर ठीक हो जाते थे। 19 वीं 20 वीं शताब्दी में सरकारी तौर पर इस प्रकार की जाँच का यह एकमात्र मामला है, जिसमें आस्था के चमत्कारी परिणामों की ही पुष्टि हुई। यों सामान्यतः सरकारें जीवित व्यक्तियों की प्रसिद्धि की असलियत की तो छान बीन करता हैं; किन्तु तीर्थ स्थानों या विशेष स्थलों को लेकर कोई खोज-पड़ताल नहीं करती।
रोगों के दो वर्ग है। शारीरिक और मानसिक। पहले को ‘व्याधि’ और दूसरे को ‘आधि’ कहते हैं। खाँसी, सर्दी दमा, कब्ज, मधुमेह जैसे रोग स्पष्टतः शारीरिक होते है। जबकि सनक, विस्मृति, विसंगतियाँ, उलझनें, कुँठाएँ, मूढ़ता, उन्माद आदि मानसिक रोग हैं। शारीरिक योग भी प्रायः मानसिक अस्त--व्यस्तता के ही परिणाम होते हैं। यदि ऐसा न भी हुआ, बाहरी कारण से रोग हो गया तो भी उसकी पीड़ा-व्यथा सहनी मन को ही पड़ती है। चिकित्सा क्रम में यदि मन ही हार मान बैठे, हिम्मत टूट जाये, तो शारीरिक शक्ति ढीली पड़ जाती है और प्रकृति भीतर ही भीतर रोग को दूर करने का काम कर रही होती हैं, उसको प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। आस्था-चिकित्सा से व्यक्ति-मन में नयी आस्था, नये विश्वास का संचार हो जाता है। तब उपचार से शीघ्र आराम मिलता है। यदि रोग मानसिक ही हुआ, तब तो आस्था का संचार उसकी रामबाण औषधि सिद्ध होने वाला ही है।
इस तथ्य को समझने पर स्पष्ट हो जाएगा कि आस्था चिकित्सा वस्तुतः कोई बाहरी चमत्कार है। जन-सामान्य अधिक अंतर्मुखी नहीं होता। अतः वह अपनी ही आस्था के इन चमत्कारों को बाहर आरोपित कर देता है।
आस्था मस्तिष्क की ऊपरी परत से नहीं, चेतना की मूल प्रवृत्ति के मर्मस्थल अन्तःकरण से सम्बन्धित होती है। इसीलिए बौद्धिक रूप में बाहरी आस्था-केन्द्रों में विश्वास न करने वाले तथा इन्हें अन्ध विश्वास मानने वाले प्रबुद्ध लोग भी किन्हीं विशेष संकट के अवसरों पर इन आस्था-केन्द्रों से लाभ उठाते देखे जाते हैं। उनके अंतर्मन में जमी आस्था की गहरी परतें ऐसे मौकों पर प्रभावी सिद्ध होती हैं
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल स्त्रोत आस्थाओं में सन्निहित रहता हैं इसी आस्था केन्द्र से उमंगों और इच्छाओं का उद्भव होता है। ये इच्छाएँ उमंगे ही विचारणा और क्रिया को जन्म देती हैं। इस प्रकार मनुष्य के कार्यों का ही नहीं, विचारों और इच्छाओं तक का उद्गम आस्था-मान्यता के चेतन-केन्द्र से होता है। इस केन्द्र से जैसी लहरें स्फुरणाएँ उठेंगी, वैसा ही चिन्तन और कर्म होगा। उसी के अनुसार व्यक्तित्व समुन्नत अथवा पतित बनता चला जायेगा।
उन्माद, विस्मृति जैसे असामान्य लक्षणों की ओर तत्काल ध्यान चला जाता है। किन्तु अनैतिकता, छल, प्रपंच, बेईमानी, अश्लीलता, अनाचार की प्रेरणाएँ भी मानसिक विकृतियों का ही परिणाम हैं। ये विकृतियाँ आस्था-केन्द्र में घुसी विकृति का ही परिणाम होती हैं। इसीलिए आस्था-केन्द्रों, प्रतीकों, पूजा स्थलों से मिलने वाला वह लाभ बहुचर्चित रोगों के उपचारों से कई गुना अधिक है। जो मनुष्य के भीतर सद्विचारों, सद्भावनाओं को जागृत करता और बढ़ाता है। अच्छे पवित्र विचारों तथा उत्कृष्ट भाव-संवेदनाओं की प्रवाहित करने की आस्था-केन्द्रों की सामर्थ्य ही उनकी वास्तविक विशेषता है।
आस्थाओं के भले ओर बुरे, दोनों ही रूप होते है। वे विधेयात्मक भी होती है, निषेधात्मक भी। विधेयात्मक आस्था व्यक्ति में उत्कृष्ट विचारों, पुण्य-प्रवृत्तियों और श्रेष्ठ उदात्त भावनाओं को जगाती-बढ़ाती है। निषेधात्मक आस्थाएँ आदमी में निष्क्रियता, निरुत्साह परावलम्बन, मिथ्याभय, अविवेक और संकीर्णता को बढ़ाती पोसती हैं तथा क्रूरता एक को प्रोत्साहन देती है। क्योंकि संकीर्णता का अनिवार्य परिणाम क्रूरता होता है। विधेयात्मक श्रद्धा उत्कर्ष के नित नये आधार प्रस्तुत करती है, निषेधात्मक श्रद्धा पतन की ओर तेजी से धकेलती है।
शकुन विचार, प्रेत-चर्चा, ग्रहदशा-विचार पहले उत्साह और प्रेरणा प्रदान करने के लिए फैलाये गये थे। यह उनकी उस समय की चर्चाओं के ढंग से पता चलता है। अब इन्हीं का उपयोग मूढ़ता, निकम्मापन अन्धकार, आलस्य और पर निर्भरता फैलाने के लिए किया जाता है। अनेक ज्योतिषी और तान्त्रिक इन दिनों मनुष्य की इसी श्रद्धा का दोहन कर उसमें निषेधात्मकता बढ़ाते है। यह आस्था की प्रभाव-क्षमता का दुरुपयोग है। जबकि संत-महात्मा, साधु, ब्राह्मण महामानव, व्यक्ति की विधेयात्मक आस्था को, उसके प्रसुप्त देवत्व को जगाकर उस शक्ति का सदुपयोग करते है और डाकू को महाकवि, वैश्या को विदुषी धर्मनेता तथा युद्धलोलुप सम्राट को शान्ति सद्भावना का अग्रदूत बना देते हैं। वाल्मीकि, अम्बपाली अशोक जैसा के जीवन की घटनाएँ विधेयात्मक आस्था के चमत्कार का परिणाम हैं। जबकि जाति उपजाति के भेदों में पिसते रहने, अपने और समाज के वास्तविक उत्कर्ष के लिए कुछ करने के स्थान पर ठगों-चालबाजों के पीछे दौड़ते फिरने तथा पशुबलि, पर पीड़न आदि से भाग्योदय की आशा निठल्ले बैठे रहने वाले बैठे रहने वाले लाखों करोड़ों लोग निषेधात्मक श्रद्धा के भयंकर चमत्कारों की जीती मिसाल हैं।
कभी वह सन्त भी विधेयात्मक दृष्टिकोण जगाने के लिए ही शुरू किया गया हो सकता है, जो आज निषेधात्मकता का पोषक बन गया हैं। पहले कहा जाता था कि दाहिना अंग फड़कने से विशेष लाभ होगा। यह व्यक्ति के भीतर उत्साह जगाने का तरीका था। बाद में इस पर चल दिया जाने लगा कि बांया अंग फड़कने से हानि निश्चित हैं। कभी दुर्दिनों को धैर्यपूर्वक गुजारने, और अच्छे दिनों की आशा में प्रगति-पथ पर उत्साह पूर्वक बढ़ने के लिए ग्रह-दशा का विचार चला होगा। पर अब तो अधिकांश लोग बुरे ग्रहों के प्रकोप की आशंका से ग्रस्त त्रस्त रहते ही देखे जाते है। कभी पितरों के स्नेह-आशीर्वाद के अदृश्य शक्ति से उत्साहित रहने और दुष्कर्मों से बचकर रहने की प्रेरणा देने का काम भूत-चर्चाओं से होता था। आज वही भूत-चर्चा भीतर भय जगाने और अन्ध-विश्वास बढ़ाने का उपाय बन गई हैं।
यह सब विचार करने पर यही तथ्य स्पष्ट होता है कि आस्था, जो अन्तःकरण की मूल प्रवृत्ति है, तभी लाभकारी होती है, जब वह विधेयात्मक हो। किसी न किसी प्रकार की आस्था तो हर व्यक्ति में होती ही है। वह निषेधात्मक हुई तो विघटन और विनाश का कारण बनेगी। उत्कर्ष-प्रगति की प्रेरक वही आस्था बन सकती है जो विधेयात्मक हो। वे ही आस्था केन्द्र मानवता की वास्तविक सेवा कर सकते हैं, जो मनुष्य में विधेयात्मक श्रद्धा जगायें।