Magazine - Year 1979 - January 1979
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Language: HINDI
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जीवन कला में पारंगत वृक्ष वनस्पति
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सृष्टि के प्रत्येक घटक में न केवल नियम-व्यवस्था और क्रमबद्धता है; वरन् उसकी प्रत्येक इकाई कितनी दूरदर्शिता से काम करती है इसका उदाहरण हम पेड़-पौधों में देख सकते हैं। पेड़-पौधे जितनी दूरदर्शिता और सामाजिकता का परिचय देते हैं उतना शायद मनुष्य भी नहीं दे पाते हों। जैसे मनुष्य समाज में पीढ़ियों का संघर्ष एक सामान्य बात है। पुरानी पीढ़ी के लोग नयी पीढ़ी को उच्छृंखल और गैर जिम्मेदार समझते हैं तथा उन्हें कोई दायित्व सौंपने से कतराते हैं। नयी पीढ़ी के लोक पुरानी पीढ़ी को ज्यादती करने वाला वर्ग समझते हैं और इस कारण दोनों में अपेक्षित सामंजस्य नहीं बन पाता। परिणाम यह होता हैं कि पुरानी पीढ़ी के अनुभवों का लाभ नयी पीढ़ी को नहीं मिल पाता और नयी पीढ़ी की शक्ति का कोई सन्तोषजनक सदुपयोग नहीं हो पाता।
किन्तु पेड़ पौधों में नये ओर पुरानों में अद्भुत सामंजस्य देखा गया है। वृक्ष की टहनियों में जिन आँखों से नयी पत्तियाँ निकलती हैं उनका अकस्मात् निर्माण नहीं होता बल्कि वे टहनियों की आँखों के खोल में ढकी रहती हैं बसन्त ऋतु में जब पुरानी पत्तियाँ गिरती हैं तो उसके बाद ही नयी पत्तियों की कोपलें फूटने लगती हैं। इससे पूर्व सूख जाने के बाद भी पुरानी पत्तियाँ टहनियों से इसलिए जुड़ी रहती है कि नयी पत्तियाँ उनका स्थान लेने योग्य बन जाये। यह नहीं वे पुरानी पत्तियाँ नयी पत्तियों के लिए भरपूर पोषण भी एकत्रित करती रहती है; जिन्हें वे अपनी कलियों के माध्यम से नयी पत्तियों तक पहुँचाती रहती हैं।
मनुष्य समाज में माता-पिता प्रायः अपनी सन्तान के लिए भी धन सम्पत्ति कमाने, जमाकर छोड़ जाने की बात सोचते हैं जबकि सन्तान को स्वावलम्बी भर बना देना पर्याप्त होता है। अभिभावक अपनी सन्तान के प्रति कहाँ तक जिम्मेदार हैं, इसका एक सुंदर उदाहरण है- नारियल का पौधा। नारियल का पौधा अंकुरित होने और जड़ पकड़ लेने तक नारियल की गिरि से ही पोषण प्राप्त करता रहता है। जब तक नारियल का पौधा खोपरे की तीन आँखों में से किसी एक को फोड़कर जड़ नहीं पकड़ लेता तब तक गिरी का सफेद, नरम और पौष्टिक गूदा प्रस्तुत रहता है। परन्तु जैसे ही पौधा जड़ पकड़ लेता है उसे गिरी से पोषण मिलना बन्द हो जाता है। गिरी खिर कर जमीन में मिल जाती है। जैसे अपने अपनी सन्तान को स्वावलम्बी बनाकर शेष सारी सम्पत्ति समाज को सौंप दी हो। सेम, मटर, बादाम, अखरोट आदि के पौधों को भी इतना ही पैतृक सहयोग मिलता है, जबकि उनके बीजों में काफी पोषण शक्ति-सम्पत्ति विद्यमान रहती है।
अपनी पोषण शक्ति को जमीन में मिलाकर ये पौधे ऐसे पौधों के लिए आहार उपलब्ध कराते हैं जो कमजोर वर्ग के होते हैं, जैसे राई, पोस्त, पीपल आदि। इस तरह के कितने ही पौधे होते है, जिनके पास नारियल के बीज जैसी सुविधा नहीं होती हैं। इन पौधों को अतिरिक्त शक्ति वाले पौधों द्वारा समर्पित सम्पत्ति से धरती पोषण प्रदान करती रहती है। परन्तु ऐसी भी बात नहीं है कि गरीब घरानों में पैदा हुए ये पौधे अपनी गरीबी का ढिंढोरा पीटने हुए निराश, हताश दूसरों का ही मुँह, ताकते रहते हों। जिन पौधों को अपने अभिभावकों (बीजों) से इस प्रकार का कोई सहयोग नहीं मिलता, वे आँख खुलते ही अपने पैरों आप खड़ा होना सीख लेने है। अर्थात् इन पौधों की पत्तियाँ अंकुरित होते ही हरितवर्ण की हो जाती हैं और वातावरण से अपना भोजन आप उपार्जित करने लगती हैं। यदि इन पौधों की पत्तियाँ हरितवर्णी न हों, और प्रौढ़ विकसित पत्तियों की भाँति श्रम न करने लगें तो इनकी पौधे ही मर जाय और इन पौधों की जाति ही विलुप्त हो जाये।
इन पौधों की जीवनीशक्ति अनुकरणीय कहीं जानी चाहिए कि ये पैदा होते ही अपना भोजन स्वयं अर्जित करने के लिए जीवन संघर्ष करने लगते हैं।
मनुष्यों में आमतौर पर यह प्रवृत्ति होती है कि यदि उसकी आमदनी बढ़ जाती है तो वे व्यसनी, अपव्ययी और विलासी जीवन जीने लगते हैं। जबकि पेड़-पौधों में ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं होती। उनके पास अतिरिक्त पूँजी जमा हो जाती है तो वे उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रख लेते हैं तथा अपनी जाति के विकास में लगाने लगते है इस तरह के पौधों में आलू, शकरकन्द, शलजम, गाजर, मूली आदि आदि प्रमुख है।
प्रकृति ने सभी प्राणियों के लिए प्रचुर आहार सामग्री अपने भण्डार में रख छोड़ी है। और उस भण्डार को हर किसी के लिए खुला छोड़ रखा है परन्तु मनुष्य को छोड़ कर और कोई दूसरा प्राणी नहीं है जो अपनी आवश्यकता से अधिक सामग्री संचित करते हों अथवा यह आकाँक्षा भी रखते हों। प्याज का पौधा जमीन पर ही उगता हैं, परन्तु वह अपना जीवन केवल पानी से ही चलाता हैं। यह एक साधारण से प्रयोग द्वारा भी देखा जा सकता हैं। प्याज की एक पत्ती को पानी से भरी हुई एक बड़े मुँह की बोतल में इस प्रकार रखा जाय कि पत्ती की जड़ तर रहे। यह आवश्यक है कि बोतल को प्रकाश में रखा जाया करें। कुछ दिनों बाद ही उस प्याज की पत्ती से धीरे-धीरे हरी पत्तियाँ और फूल भी निकल आयेंगे।
प्रयोग और परीक्षणों इस तथ्य पर पहुँच गया है। कि प्रकृति में सब प्रकार के साधन उपलब्ध रहने के बावजूद भी पौधे अपने पोषण के लिए, मिट्टी का बहुत थोड़ा-सा अंश ही उपयोग में लाते हैं। अधिकाँशतः पानी और कार्बन डाइआक्साइड से ही पौधों के भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाती है। इस आधार पर जब बिना भूमि के ही-पानी में पौधे उगाये जाने की तकनीक विकसित की जा रही है। पानी में की जाने वाली खेती को इस विधि को “हाइड्रोयोनिक्स” कहते हैं।
नदी, तालाब और स्त्रोतों के पानी में उगने वाली एक वनस्पति शैवाल की प्रायः कोई उपयोगिता नहीं समझी जाती, उपयोगिता हो भी क्या सकती हे क्योंकि उसमें न फल है, न फूल, न जड़ और न ही पत्तियाँ। पानी में इसके केवल बहुशाखी तन्तु ही पाये जाते हैं और यह इतनी गन्दी चिकनी तथा चिपचिपी होती है कि छूते ही इस तरह हाथ से छोड़ दी जाती हैं जैसे कोई गन्दा कीड़ा परन्तु वैज्ञानिकों ने इसमें कितने ही उपयोगी तत्व खोज निकाले हैं तथा उसके द्वारा खाद्य संकट को हल्का करने की सम्भावनायें भी व्यक्त की हैं।
यूरोप के कई देशों और जापान में शैवाल के तैलीय भाग से भोजन तैयार किया जाने लगा है। जापान और चीन में शैवाल से तैयार किये गये एक विशेष खाद्य ‘कोम्बू’ का उत्पादन तो एक प्रमुख उद्योग रूप लेता जा रहा है। पाचन क्रिया को ठीक रखने तथा पाचन संस्थान सम्बन्धी रोगों को सुधारने के लिए शैवाल को औषधियों के रूप में भी प्रयुक्त किया जाने लगा हैं। शैवाल में ऐसे अनेक तैल तत्व और खाद्य पदार्थ खोज निकाले गये हैं, जो ब्लडप्रेशर और हृदय विकार के रोगों में अचूक दवा तथा पौष्टिक भोजन का काम करते हैं। चिकनाई युक्त पदार्थ खाने के खून में गांठें पड़ जाती हैं। इसी कारण हृदय विकार उत्पन्न होते हैं परन्तु सिवार की ही एक ऐसी वनस्पति है जिसका तैलीय तत्व (चिकनाई) इस रोग का कारण बनने के स्थान पर उसके कारण को दूर करता हैं।
इसके अतिरिक्त समुद्री शैवाल से पोटाश, आयोडीन, आल्जिनिक आदि रासायनिक दृव्य बनाये जाते हैं। अगर-अगर नामक द्रव्य जिसका उपयोग आइस्क्रीम मुरब्बा आदि बनाने में किया जाता हैं-यह शैवाल से ही तैयार किया जाता हैं। नार्वे, ब्रिटेन, चीन, जापान में शैवाल के उत्पादन तैयार करने वाली कई फैक्ट्रियाँ धड़ल्ले से चल रहीं है।
प्रकृति के अबोध से अबोध शिशु तक भौतिक नियमों का इतनी दृढ़ता से पालन करते हैं। उसी का परिणाम है कि मनुष्य को छोड़कर प्रकृति की अन्य किसी सन्तान को दुःखी, क्लान्त और खिन्न होते नहीं देखा गया। इसका एकमात्र कारण प्रकृति के आदेशों का पालना हैं। प्रकृति का दण्ड भी उन्हीं के लिए प्रस्तुत है जो उसके नियमों को तोड़ते और मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं।