Magazine - Year 1979 - January 1979
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Language: HINDI
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दुर्बुद्धि ने विज्ञान को भी अभिशाप बना दिया
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6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा नगर पर अणुबम गिराया गया था। इसके बाद दूसरा अणुबम नागाशाकी पर गिराया गया। इसमें 60 हजार व्यक्ति तत्काल मर गये और उसके साथ ही एक विशाल भू-भाग जल भुनकर खाक हो गया। तब से लेकर अब तक लगभग 40 वर्षों में अणु अस्त्रों की भारी वृद्धि हुई है और उनकी संहारक शक्ति भी पहले की अपेक्षा कई गुणा बढ़ गयी हे। जापान पर गिराये गये बम 2 हजार टन टी.एन.टी. शक्ति के थे, लेकिन अब जो हाइड्रोजन बम बन रहे हैं उनकी शक्ति 6 करोड़ टन टी.एन.टी. शक्ति की है। अर्थात् इन बमों की शक्ति जापान पर गिराये गये बमों की से तीन हजार गुनी है। अर्थात् यदि एक उद्जन बम कहीं गिरा दिया जाये तो 18 करोड़ व्यक्ति तत्काल मर जायेंगे। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे देशों को एक या दो बमों से ही पूरी तरह तत्काल नष्ट किया जा सकता है।
यह तो उद्जन बम के कारण तत्काल होने वाला नर संहार है। बम के विस्फोट से जो विकिरण फैलने लगता है और रेडियो धर्मी धूल उत्पन्न होती है; वह महाविनाश का ही दृश्य उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है। अब तक इस तरक के बमों का युद्ध में कहीं प्रयोग तो नहीं किया गया और न ही इनके प्रयोग की सम्भावना दिखाई देती है। क्योंकि जो राष्ट्र इनका प्रयोग करेंगे, वे भी उनसे होने वाले कुप्रभावों से बच नहीं सकेंगे। लेकिन परीक्षण के तौर पर जहाँ परमाणु अस्त्रों का विस्फोट दिया गया वहाँ की हजारों वर्ग मील भूमि बेकार हो गयी है।
भूमि ही बेकार हुई हो, ऐसा भी नहीं है। उन विस्फोटों का प्रभाव अन्तरिक्ष ने अभी भी विद्यमान है। अब तक अणु विस्फोट के लिए जितने परीक्षण किये गये उतनों का क्या दुष्परिणाम होगा? संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यह जानने के लिए जिस वैज्ञानिक समिति का गठन किया गया उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा है-जो परीक्षण किये जा चुके है; उनका ही इतना विषाक्त प्रभाव हवा में मौजूद है कि उसके परिणाम स्वरूप वर्तमान तथा अगली पीढ़ी में कम से कम डेढ़ करोड़ बच्चों शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से विकृत होंगे। उनकी सन्तानें भी इन प्रभावों से मुक्त न रह सकेंगी और यह क्रम वंश परम्परा के अनुसार निरन्तर चलता है। इसके अतिरिक्त पिछले प्रभाव के कारण 20 लाख व्यक्तियों को कैंसर, ल्यूकोभिय, हृदयरोग, टी.बी. तथा गलित कुष्ठ के कारण मरना पड़ेगा। इससे अधिक व्यक्तियों की इन रोगों की दारुण व्यथा सहनी पड़ेगी। करोड़ों व्यक्तियों को अकाल मृत्यु से मरना पड़ेगा।
“साइन्स डाइजेस्ट” पत्रिका में डा. जूल वैरमोन ने अपने एक लेख “क्रिएटर और किलर” में लिखा है कि-विज्ञान से मनुष्य जाति ने आशा की थी कि वह उसके लिए जीवन सुविधायें जुटायेगा परन्तु उसने मनुष्य को मारने के सरंजाम ही जुटाये हैं। विज्ञान से वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के विकास की आशा की गयी थी परन्तु उसने विकास की अपेक्षा मनुष्य को विनाश की ओर ही अधिक धकेला है।”
इस समय अमेरिका के पास छोटे-बड़े करीब 35 हजार अणुबम है। इनमें से सैकड़ों प्रक्षेपास्त्रों पर कस कर तैयार रखे हुए हैं। बटन भर दबाने की देर है कि एटलस, टिटन, पोलाटिस किस्म के सुसज्जित प्रक्षेपास्त्र उन्हें दो हजार मील दूर तक पलक झपकते ही फेंक आयेंगे और उसे देश को भूमिसात कर देंगे। इन अणु अस्त्रों की मार से उत्पन्न हुई विभीषिका का वर्णन शब्दों में ही नहीं किया जा सकता और न कल्पना ही की जा सकती है।
सन् 1945 में जिन बमों का विस्फोट नागाशाकी और हिरोशिमा पर किया गया तत्काल ही उससे दो तरह से विनाशलीला की। जिन वैज्ञानिकों ने उस विस्फोट का विवरण प्रस्तुत किया था-उनके अनुसार “बम एक अन्धा कर देने वाली चमक के साथ फटा। उससे भयंकर ज्वलनशील गैस आकाश की ओर लपकी। जैसे सैकड़ों सूर्य एक साथ चमक उठे हों और उनकी लपटें अपने आसपास ऊपर नीचे की वस्तुओं को भस्म कर डालने के लिए लपक रही हों। विस्फोट इतना जोरदार था कि उससे 12 मील तक के भवन बुरी तरह ध्वस्त हो गये। तीन मूल दूर तक की मोटी-मोटी दीवारें चकनाचूर हो गयी। 14 मील के घेरे में इतना ताप उत्पन्न हुआ कि वहाँ की सारी चीजें धू-धू कर जल उठी। इतनी तेजी से जली कि उनका धुँआ तक नहीं दिखाई दिया और न ही ज्वालायें ही दीख पड़ी। जलने की क्रिया केवल विभिन्न गैसों के रूप में दिखाई दी; जो स्वयं बहुत उच्च तापमान वाली थी और उनके कारा इतने बड़े घेरे में एक आग्नेय तूफान उठ खड़ा हुआ था।
विनाश के ताण्डव का यह तो प्रत्यक्ष दृश्य था। विस्फोट के तुरन्त बाद ही वैज्ञानिकों के अनुसार उसका विकिरण फैलने लगता है और न्यूट्रोनों, बीमा तथा गामा किरणों का प्रवाह बहने लगता है। यह किरणें अभेद्य समझे जाने वाले अवरोधों को भी पार करती हुई दूर-दूर तक पहुँच जाती है तथा अपना विनाशकारी ताण्डव नाच नाचने लगती है।
विस्फोट के तुरन्त बाद होने वाली इस विनाश के उपरान्त रेडियो धर्मी धूल आती है। यह विस्फोट के साथ आकाश में उड़ने वाले धूलिकणों के साथ विषाक्त विकिरण लेकर अन्तरिक्ष में उड़ने लगती है। इस धूल का एक छोटा-सा अंश ही जमीन पर उतरता है। शेष अन्तरिक्ष में हवा के साथ उड़ता रहता है और वर्षा के साथ यत्र-तत्र भू तल पर गिरता है। फलतः उस जमीन की उर्वरा शक्ति ही नष्ट हो जाती है। विकिनी स्टोल में सन् 1954 में किये गये अणु परीक्षण से रेडियो धर्मी धूल के कारण 700 वर्गमील क्षेत्र तुरन्त दूषित हो गया था। इसी प्रकार 1955 में अमेरिका द्वारा किये गये परीक्षण से 63 हजार वर्गमील जमीन खराब हुई थी।
यह तो परीक्षणों के कारण उत्पन्न हुआ कुप्रभाव ही है, जो बहुत सुरक्षात्मक ढंग से किये जाते है; ताकि उनके कारण कम से कम हानि हो। खुल कर यदि इन अणु अस्त्रों का उपयोग किया जाय तो इससे भयंकर विनाश लीला उत्पन्न हो सकती है। एक बारगी तो सारी पृथ्वी का ही जीवन नष्ट हो सकता है। थोड़ा बहुत जीवन बच भी जायेगा तो वह इतना विकृत होगा कि मृत्यु से भी भयंकर यन्त्रणादायी होगा।
अणु युद्ध की सम्भावना से इन्कार करते और अणु अस्त्रों के प्रसार को रोकने के लिए प्रयास करते हुए भी संसार में इस महाविनाशकारी दैत्य का परिवार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। अकेले अमेरिका में आणविक प्रहार कर सकने वाले केन्द्रों की संख्या करीब 4600 है। रूस में ऐसे 2000 केन्द्र बताये जाते है। वस्तुतः ऐसे केन्द्र कहाँ कितने होंगे तथा किस देश के पास कितने हथियार है इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। जो कुछ कहा जाता है वह दूसरे देशों द्वारा एकत्र की गयी, गुप्तचर जानकारियों के आधार पर ही कहा जाता है। और प्रत्येक महाशक्ति सम्पन्न देश दूसरे देश की प्रतिद्वन्द्विता में आगे रहने के लिए निरन्तर आणविक अस्त्रों का प्रसार करता ही जा रहा है।
जूलियस सीजर के समय में कहते है एक व्यक्ति को मारने में पाँच रुपये खर्च होते थे। नैपोलियन के जमाने में खर्च की वह राशि बढ़ कर एक हजार रुपये हो गयी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय वह लागत 15 हजार तथा द्वितीय विश्वयुद्ध में 1 लाख रुपये तक बढ़ गयी। अब तीसरा युद्ध यदि हो तो कहा जाता है कि एक आदमी को मारने के लिए औसतन 13 लाख रुपये खर्च करना पड़ेंगे।
विज्ञान को विनाश का साधन जुटाने में लगी हुई मानवीय बुद्धि यदि विकास को लक्ष्य मान कर चल रही होती तो यह संसार ही स्वर्ग जैसा बन जाता। इसमें दोषी विज्ञान नहीं है। वह तो शक्ति है जिसका उपयोग सृजन में भी किया जा सकता है और विनाश में भी। दोषी तो मनुष्य की दुर्बुद्धि है जिसने विज्ञान को अपना अहं बढ़ाने तथा सिद्ध करने का शस्त्र बनाया और उस शक्ति को अभिशाप बना बैठा है। काश विज्ञान का उपयोग सद्भावनायें बढ़ाने और उपलब्धियों का श्रेष्ठ उपयोग करने की दिशा में किया जा सके तो वह उतना ही बड़ा वरदान भी है, जितना बड़ा कि अभिशाप दिखाई देता है।