Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री तीर्थ- अतीत की वापसी का अभिनव प्रयास
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देवालयों और तीर्थों का अन्तर गम्भीरता पूर्वक समझा जाना चाहिए। देवालय स्थानीय या समीपवर्ती क्षेत्र के लोगों में सत्प्रेरणाएं उभारने तथा सत्प्रवृत्तियाँ विकसित करने के भावनात्मक एवं पुरुषार्थपरक प्रयत्नों में कार्यरत रहते हैं। उनका दायरा इतने तक ही सीमित है। उनमें बसने के लिए उतने ही व्यक्ति पर्याप्त होते हैं जितने से स्थानीय गतिविधियाँ और निर्धारित क्षेत्र की संपर्क साधना का अलख जगाते रहना शक्य होता रहे। उनमें कार्यकर्ता भर रहते हैं। कभी कोई परिव्राजक प्रचारक आ पहुँचे तो उसके लिए निवास, भोजन का प्रबन्ध भी मिल सके।
प्रज्ञा संस्थाओं को आदर्श देवालय स्तर की स्थापना कहा जा सकता है। जन साधारण के साथ सामान्य स्तर का संपर्क स्थापित करने और जहाँ भी भूमि उपजाऊ दिखे वहाँ अधिक सतर्कतापूर्वक बीजारोपण करने की दृष्टि से यही उपयोगी भी है और पर्याप्त भी। सुविस्तृत धरातल पर बसे देश-देशान्तरों में विभिन्न स्तर के लोगों के साथ संपर्क साधने को प्रारम्भिक प्रक्रिया हल्की-फुल्की ही हो सकती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए देवालयों के निर्माण, निर्धारण एवं कार्यक्रम महामनीषियों ने बनाये, चलाये। वे अपने स्थान पर अपनी आवश्यकता पूर्ति की दृष्टि से आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हैं।
प्राचीनकाल में इसी दृष्टि से देवालय योजना का प्रचलन आरम्भ हुआ था। बहुत समय तक वह अपने ढर्रे पर ठीक प्रकार चला भी। अस्तु उनके निर्माण से लेकर उपासना गृह की तरह प्रयुक्त करने में जन-साधारण का उत्साह भी बहुत रहा। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि मध्यकाल के अन्धकार युग में जहाँ सांस्कृतिक निर्धारणों का बेहिसाब अवमूल्यन हुआ वहां देवालय भी दुर्दशाग्रस्त हुए बिना न रहे।
तीर्थों का स्तर देवालयों की तुलना में कहीं अधिक वजनदार है। तीर्थ प्रकारान्तर से ऐसे परिष्कार एवं प्रशिक्षण केन्द्र हैं जिनमें न केवल स्वाध्याय, सत्संग की शिक्षा पद्धति वरन् योग तप की समन्वित साधना पद्धति भी जुड़ी हुई है। साधना का महत्व शिक्षण की तुलना में कहीं अधिक है। शिक्षण मात्र मस्तिष्क भर को प्रभावित करता है। उसे इतना सोचने भर का अवसर प्रदत्त करता है कि किस तर्क के आधार पर क्या सोचना उचित हो सकता है। इससे पूर्व मान्यताओं में अन्तर आने जितना प्रयोजन सध सकता है, किन्तु इतने भर से उन रुझानों, अभ्यासों एवं आदतों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता जो अनुपयुक्त होते हुए भी स्वभाव का अंग बनकर रह रही हैं और तर्क की दृष्टि से मात खाते हुए भी टस से मस होने का नाम नहीं लेतीं।
नशे के अभ्यस्त लोग कई बार उसे बुराई मानते और छोड़ने की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी अपनी लत से पिण्ड छुड़ाने में असमर्थ रहते हैं। यह अचेतन की अत्यन्त गहरी परतें हैं जिनमें उलट-पुलट करने के लिए उसी स्तर के प्रयत्न करने होते हैं। कहना न होगा कि वह प्रयास ‘साधना’ ही है जिसके अनेकानेक भेद उपचार अन्तराल की गहराई तक पहुँचने और उपयोगी फेर-बदल करने में समर्थ होते हैं। अतएव जहाँ तक व्यक्तित्व वाली आदतों को उच्चस्तरीय बनाने का सम्बन्ध है वहाँ साधना परक अभ्यास की अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ती है। साधना की शक्ति को सुर और असुर दोनों ही अपने-अपने विरुद्ध प्रयोजनों के लिए समान रूप से आवश्यक मानते और संकल्पपूर्वक अपनाते रहे हैं।
हर व्यक्ति की अपनी कुछ दुर्बलताएं हैं, उन्हीं के कारण असफलताएं एवं विपत्तियाँ सहनी पड़ती हैं। हर व्यक्ति की अपनी कुछ आन्तरिक आवश्यकताएं हैं। उनकी उपलब्धि हो सके तो व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनने में देर न लगे। कहना न होगा कि अन्तराल की गहरी परतों का स्पर्श करने में बौद्धिक दबाव बहुत छोटी सीमा तक ही सफल होता है। अन्तराल को प्रभावित, परिवर्तन करने के लिए अधिक भारी एवं पैने ध्यान की आवश्यकता पड़ती है और वह योगाभ्यास परक साधनाओं के माध्यम से ही सरल, सम्भव है।
तीर्थ साधना प्रधान होते हैं। उनमें शिक्षण का भी पुट रहता है ताकि साधना का रूखा समय पूरा होने के उपरांत शिक्षण का उपयोगी मनोरंजन भी साथ-साथ मिलता रहे। वस्तुतः स्वाध्याय, सत्संग जैसे प्रयोजन महत्वपूर्ण होते हुए भी बुद्धि संस्थान तक ही अपनी उछल-कूद करने के उपरान्त शान्त हो जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो आये दिन कथा-सत्संगों के वक्ता श्रोता अवश्य ही अपने व्यक्तित्वों को प्रखर बनाने में समर्थ हो गये होते, जब कि उन क्षेत्रों का प्रभाव, परिणाम दिखने पर एक प्रकार से निराशा ही हाथ लगती है।
तीर्थों की प्रकृति, शोभा, जलाशय भव्य देवालय, ऐतिहासिक प्रसंग की चारों ही विशेषताएं स्थान चयन करने वालों की सूझबूझ का परिचय देती है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि मात्र प्रतिमाओं की दर्शन झाँकी करने अथवा नदी सरोवरों में स्नान भर कर लेने से उस पुण्यफल की प्राप्ति हो सकती है जिसका सुविस्तृत माहात्म्य धर्म शास्त्रों में विस्तारपूर्वक बताया गया है। दर्शन-स्नान से मनःक्षेत्र में धार्मिक स्तर के विचारों का उठाना, सम्बद्ध प्रसंगों की स्मृति से अतीत को समझने और उसके प्रति नतमस्तक होने जैसे छुटपुट लाभ ही मिल सकते हैं। उपयोगी जलवायु के स्थानों में अधिक समय पर आहार-विहार की श्रेष्ठता अपनाकर रहा जाय तो विश्रान्ति, बलवृद्धि जैसे लाभ से मिल सकते हैं किन्तु यह मान्यता सही नहीं कि उतने भर से आत्मोत्कर्ष की तथा उस पर आधारित कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती हैं। कारण के बिना कार्य की सिद्धि होती भी कहाँ है। जब पुण्य प्रदान करने वाला कोई उच्चस्तरीय प्रयास पुरुषार्थ बन ही नहीं पड़ा तो उच्चस्तरीय पुण्य फलों की प्राप्ति बिना मूल्य, बिना प्रयास के ही किस प्रकार मिल सकेगी। निश्चय ही तीर्थ यात्रा के नाम पर चलती रहने वाली आज की भगदड़ वाली भीड़ें पर्यटन विनोद के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन की पूर्ति नहीं करतीं।
प्राचीनकाल में तीर्थ ऐसे साधना केंद्रों के रूप में स्थापित एवं विकसित किए गये थे जिनसे अन्तराल की गहरी परतों का उपचार, परिष्कार एवं उत्कर्ष संभव हो सके। इस प्रक्रिया को एक प्रकार से उपयोगी वातावरण में बने हुए साधन-सम्पन्न तथा मूर्धन्य चिकित्सकों से भरे-पूरे ‘सेनेटोरियमों’ की उपमा दी जा सकती है। अन्तर इतना ही है कि वे उपचार केन्द्र मात्र स्वास्थ्य लाभ भर दे सकते हैं। जबकि तीर्थों से न केवल चिन्तन को मोड़ने-मरोड़ने वाली स्वाध्याय, सत्संग जैसी परिचर्या चलती है वरन् मेजर आपरेशनों जैसी, प्लास्टिक सर्जरी जैसी सुविधा भी रहती है। अन्तराल को, अचेतन मन के रहस्यमय क्षेत्रों को सुधारने संभालने का कार्य तीर्थों में होता रहा है। उसकी कुछ-कुछ तुलना वैज्ञानिक उपचारों से किये जाने वाले ‘ब्रेन वाशिंग’ से की जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारने वाले, व्यक्तित्व को सामान्य से असामान्य बनाने वाले उपचार एवं अभ्यास केंद्रों के रूप में ही महा-मनीषियों ने तीर्थों की स्थापना की थी। अपने समय में वह पूर्ण या सफल भी रही।
उन दिनों गुरुकुलों में शारीरिक एवं मानसिक बलिष्ठता उत्पन्न करने वाली पढ़ाई ही नहीं होती थी वरन् छात्रों की समग्र दिनचर्या का निर्धारण इस प्रकार होता था, जिसमें उन्हें न केवल लोक-व्यवहार में काम आने वाली जानकारियाँ वरन् सद्व्यवहार एवं प्रखर पराक्रम करने में प्रयुक्त होने वाले दृष्टिकोण तथा स्वभाव का भी भली प्रकार अभ्यास होता चले।
उन दिनों आरण्यकों में ढलती आयु के सभी लोग आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की उच्चस्तरीय पढ़ाई नये सिरे से पढ़ते थे जो गुरुकुलों से भिन्न होती थी। अनगढ़ छात्रों को लौकिक जीवन में प्रवेश करने और उस क्षेत्र की प्रवीणता प्राप्त करनी होती थी, किन्तु प्रौढ़, परिपक्व अपनी गृहस्थ भूमिका का भौतिक पक्ष या तो स्वयं पूरा कर लेते थे तथा समर्थ उत्तराधिकारियों के कन्धों पर छोड़कर स्वयं परमार्थ प्रयोजनों में निरत होते थे। इसमें उन्हें अपने निज का अन्तराल उछालने वाली तपश्चर्या करने वाली होती थी, पर जनमानस से उत्कृष्टता भरे रहने वाली परमार्थ परायणता का प्रशिक्षण भी प्राप्त करना होता था।
लोक-सेवा का स्थूल रूप तो सीधा सादा है। उनमें अन्न, वस्त्र, औषधि, शिक्षा आदि से असमर्थों की सहायता करने के लिए दान देने या संग्रह करने भी से काम चल जाता है, किंतु यदि मनुष्य को पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से छुड़ाना और उत्कृष्टता अपनाने के लिए शौर्य साहस दिखा सकने योग्य बनाना हो तो इसके लिए दूसरे स्तर का कार्य कौशल संजोना पड़ता है। वह भी इस आधार पर पृथक-पृथक प्रकार का होता है कि किस स्तर के व्यक्ति को कैसे लोगों के बीच रहकर किस प्रकार के सेवा प्रयोजनों में निरत होना है।
हाईस्कूल, कॉलेज स्तर की शिक्षा परीक्षा तो सामान्य ढर्रे की ही होती है, किन्तु किसी सेवा कार्य में नियुक्त होने का समय आने पर उस प्रयोजन की ट्रेनिंग अलग से प्राप्त करनी होती है। यही बात वानप्रस्थी आरण्यक साधना के संबंध में भी है। उसमें दुहरी तैयारी करनी होती है। निजी व्यक्तित्व उभारने वाली आत्मोत्कर्ष की साधना तथा अगले दिनों जिस स्तर की सेवा साधना अपनानी है उसके लिए परिस्थितियों के अनुरूप कौशल तथा अनुभव प्राप्त करना। आरण्यक इसी दुहरी क्षमता को अर्जित करने की साहसिक साधना के लिए अभीष्ट वातावरण एवं कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले प्राणवान केन्द्रों की भूमिका निभाते थे।
भौतिक क्षेत्र में समृद्धि एवं प्रगति चक्र को अग्रगामी वाली प्रतिभाएं गुरुकुल ढालते थे और आत्मिक क्षेत्र की प्रतिभाएं उत्पन्न करके वातावरण में शालीनता की चेतना भरे रहने वाली मनीषाएं उत्पन्न होती थीं। उन दिनों के उत्पादन केन्द्रों को आज के विशालकाय बिजली घरों के समतुल्य कहा जा सकता था। पावर स्टेशन दूर-दूर तक जनता को अनेकानेक घरेलू आवश्यकताएं पूरी करने से लेकर अपने क्षेत्र में औद्योगिक विकास का पथ-प्रशस्त करते हैं। इसी प्रकार प्राचीनकाल में तीर्थों द्वारा उत्पादित प्रतिभाएं भौतिक समृद्धि का, मनीषाएं व्यक्तित्वों की सर्वतोमुखी प्रगति का सरंजाम जुटाती रहती थीं। इससे उभयपक्षीय लोकमंगल का व्यापक आधार बनता और साधन सधता था।
यही थीं उपलब्धियाँ तीर्थ स्थानों की, जिनके कारण उनका माहात्म्य बखाना गया, श्रेय दिया गया और उस सान्निध्य को पारस के स्पर्श जैसा फलप्रद बताया गया। इसी आधार पर तीर्थों की यश गाथा, कीर्ति ध्वजा, गगनचुम्बी होती गई और लोक श्रद्धा उस पुण्य प्रयोजन के लिए इतनी अधिक भाव विभोर हुई कि क्रमशः तीर्थों का वैभव और आकर्षण बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक जा पहुंचा जहां उनके निमित्त अरबों-खरबों का धन एवं कोटि-कोटि मानवों का श्रम, समय उस प्रयोजन के लिए अभी भी निछावर होता रहता है।
आँखों से दिखता तो कलेवर ही है, पर उसमें जो सजीवता, उपयोगिता, सुन्दरता दिखती है वह परोक्षतः प्राण चेतना की ही होती है। प्राण न रहे तो सुन्दर होने पर भी काया क्षण भर में सड़ने-गलने लगती है और दुर्गंध भरी कुरूपता से समूचा दृश्य घिनौना बना देती है। कलेवर तो औजार या वाहन भर है, उसमें प्रखरता जीवनीशक्ति पर अवलम्बित रहती है। तीर्थों के सम्बन्ध से भी यही बात है जब वे प्राणवान थे तो न केवल भारत के श्रद्धावान वरन् संसार भर के तत्त्वदर्शी वहाँ के वातावरण से लाभ उठाने के लिए वर्षों की लम्बी कष्ट साध्य यात्राएं पार करके यहाँ आते थे। श्रम के अनुरूप उन्हें लाभ भी मिलता था क्योंकि उन दिनों इन धर्म स्थानों में प्राणवान होने के सभी चिन्ह मौजूद थे।
ऊपर की पंक्तियों में तीर्थ स्थानों में विनिर्मित गुरुकुलों एवं आरण्यकों की चर्चा हुई। यह उन लोगों के लिए थे जिनने या तो गृहस्थ में प्रवेश ही नहीं किया या उससे निवृत्त होने की सुविधा पाकर देर तक वहाँ ठहरते और लम्बे समय की साधना से कायाकल्प और परिवर्तन से लाभान्वित होकर वापिस लौटते थे। तीसरा वर्ग वह रह जाता है जिसे गृहस्थ एवं भौतिक प्रयोजनों में संलग्न कह सकते हैं। बहुसंख्यक जन-समुदाय इसी वर्ग का होता है। बहुमुखी क्रिया-कलापों में संलग्न होने के कारण समस्याऐं भी उन्हीं के सामने रहती हैं और चित्र-विचित्र व्यवधानों से लोहा भी उन्हीं को लेना पड़ता है। आकर्षक भी उन्हीं को लुभाते और विग्रह भी उन्हीं को सताते हैं। उत्थान-पतन की बहुमुखी परिस्थितियाँ भी उन्हीं के सामने आती हैं। हर्ष शोक के ज्वार-भाटे भी उस समुद्र जैसे जन-समुदाय में उभरते रहते हैं। सच तो यह है कि गुरुकुलों के छात्र भी शिक्षा के उपरान्त इसी वर्ग में समा जाते हैं। इसी प्रकार यह भी सच है कि आरण्यकों की वानप्रस्थी साधना भी इसी समुदाय की श्रेष्ठता, समर्थता बनाये रहने के लिए, वापिस लौटने पर सेवा रत होने के लिए संलग्न दिखती है। इसका अर्थ यह हुआ कि गृहस्थ की वह धड़ है जहाँ पाचन होता है रक्त बनता है। मस्तिष्क से लेकर अन्यान्य सभी अवयव वहाँ से अपनी खुराक पाते और तरह-तरह के पुरुषार्थ चमत्कार दिखाते हैं।
तीर्थों ने इस वर्ग के लिए भी द्वार खुले रखे हैं और उनके लिए विशेष स्तर के विशेष उपाय अवलम्बन बनाये रखे हैं। इन्हीं को तीर्थ सेवन के नाम से कहा बताया जाता रहा है। यह साधना स्वल्पकालीन ही हो सकती है। इन व्यस्तता के दिनों में तो उसकी अवधि एक महीने मानी जाय तो उतना ही अवकाश कठिनाई से ही निकल सकेगा। सामान्यता यह दस दिन का भी हो सकता है। प्राचीनकाल में वह समय अपेक्षाकृत अधिक ही रहता होगा क्योंकि उन दिनों न तो आवश्यकताएं इतनी बढ़ी-चढ़ी थीं और न उनकी पूर्ति में आज जैसी दिन-रात मारामारी करनी पड़ती थी। कृषि, पशु-पालन से आजीविका, उपार्जन संयुक्त कुटुम्ब के नर-नारी, जवान बाल-वृद्ध किसी प्रकार मिलजुल कर चला लेते थे, पर आज के गृहस्थ के सूत्र-संचालकों को निरंतर खटना खपना पड़ता है। देशी दशा में पूर्व काल की भाँति इस वर्ग को लंबा अवकाश मिलने और तीर्थ सेवन की दीर्घकालीन साधना करने का अवसर नहीं मिल सकता। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि पूर्वकाल की भांति ही गृहस्थ वर्ग को अपने असन्तुलनों से जूझने और निर्धारणों को क्रियान्वित करने वाली सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए इस उपाय का अवलम्बन करके स्थिरता, प्रसन्नता एवं प्रखरता प्राप्त करने के लिए आवश्यकता तो है ही। सच तो यह है कि चक्रव्यूह में फंसे आज के जन समाज को इस प्रकार को अवलम्बन पूर्व काल की तुलना में और भी अधिक आवश्यक है।
लुप्त प्राय सड़ी गली तीर्थ प्रक्रिया के ध्वंसावशेष पर गायत्री तीर्थ का नया भवन खड़ा करने का जो निश्चय किया गया है, उसे इमारत की दृष्टि से नगण्य किन्तु स्थापना की दृष्टि से मूर्धन्य ही कहा जायेगा। कई बार स्थानीय समझी और छोटी लगने वाली स्थापनाएं भी दूरगामी परिणाम उत्पन्न करती देखी गयी हैं। पावर हाउस कुछ ही एकड़ जमीन घेरते हैं किन्तु उनसे घरेलू आवश्यकताओं से लेकर औद्योगिक विकास की सम्भावनाएं दूर-दूर तक उभरती हैं। ट्यूबवैल जरा-सी जगह घेरता है पर उससे हजारों एकड़ भूमि की फसल लहलहाती हैं। छोटी-सी नर्सरी हजारों उद्यानों के लिए पौधे तैयार करती है। सुई और माचिस जैसे छोटे उपकरण बनाने वाले कारखाने करोड़ों के काम आते हैं। शान्तिकुँज में इन्हीं दिनों जिस गायत्री तीर्थ की प्राण प्रतिष्ठा हुई है उसे प्रत्यक्षतः एक छोटी-सी वस्तु ही कहा समझा जा सकता है। किन्तु यथार्थता यह है कि उसमें प्राचीनकाल की तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने और स्थापना के सहारे समूचे वातावरण को नवजीवन प्रदान करने वाले तत्व मौजूद हैं। पौधे में अनेक फल उत्पन्न होते हैं, आशा की जानी चाहिए कि जिस गायत्री तीर्थ की इन्हीं दिनों प्रतिष्ठापना हुई है, कुछ दिनों में ऐसे-ऐसे अनेक तीर्थों की वंश वृद्धि करेगा, उसी प्रकार जैसे कि प्रज्ञा संस्थानों ने देखते-देखते मत्स्यावतार की तरह विस्तार कर लिया। कहना न होगा कि यह तीर्थ प्रक्रिया के पुनर्जीवन, अतीत के देवयुग की, स्वर्ण युग की वापसी का सुनिश्चित चिन्ह है। इसके दिव्य प्रतिफलों का आशा अपेक्षा अगले दिनों ही पूरी होते, हम सब इन्हीं आँखों से देख सकेंगे।