Magazine - Year 1981 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपनी अनुभूतियों के सृष्टा- हम स्वयं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
ज्ञान का अस्तित्व ज्ञाता की सत्ता के भीतर ही होता है। हम जो कुछ जितनी दूर तक देख-सुन सकते हैं, या कल्पना कर सकते हैं, वह सब आत्म-सत्ता का ही क्षेत्र होता है। आत्मेत्तर का अनुभव असम्भव है। अतः सम्पूर्ण अनुभव आत्म तत्व की ही बहुरंगी झाँकियाँ हैं। आत्म-चेतना का जैसा स्तर एवं स्वरूप होता है, उसके ही अनुसार दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य जगत का अनुभव होता रहता है।
इसका यह अर्थ नहीं कि जगत की स्वयं में कोई सत्ता नहीं। वह निश्चित ही है। जो लोग यह कहते हैं कि जगत की कोई सत्ता ही नहीं है, उन्हें फिर आत्मसत्ता को भी अस्वीकार करना चाहिए, क्योंकि आत्मसत्ता ही तो जगत का अनुभव करती है। जगत की सत्ता को अस्वीकार करना ऐसा ही है, जैसे नित्य रात्रि को स्वप्न देखने वाला व्यक्ति यह कहे कि स्वप्न की कहीं कोई सत्ता ही नहीं है। बिना सत्ता के अनुभूति असम्भव है। हाँ, यह जरूर है कि आत्म-चेतना के स्तर के अनुसार, अनुभूति का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है। एक बच्चे के लिए स्वप्न भी उतना ही यथार्थ है जितना जागृति के अनुभव। सामान्य वयस्क व्यक्ति स्वप्न के यथार्थ से, दिन के या जागृति-काल के यथार्थ को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। मनोवैज्ञानिक स्वप्नों को भी यथार्थ का ही अंग मानते हैं। इस अन्तर को समझते हुए वे स्वप्न की अनुभूतियों का इस प्रकार लाभ उठा लेते हैं कि वह जागृति काल के यथार्थ को संवारने, संतुलित बनाने में सहायक बन जाती हैं। स्वप्न-प्रतीकों, स्वप्न संकेतों की भाषा एवं अर्थ समझकर, वे उस उस प्रकाश में अपने जागृत समय के आचरण में वाँछित हेर-फेर कर लेते हैं। इसी प्रकार जागृति-काल की दिनचर्या से संशोधन-परिवर्धन करने पर स्वप्नों के स्वरूप में भी परिवर्तन आ सकता है, यह भी वे जानते हैं और ऐसा ही करते हैं। एक गंभीर मनोवैज्ञानिक के लिए जागृति एवं स्वप्न, दोनों की ही अनुभूतियाँ अपने-अपने ढंग से यथार्थ ही हैं।
आत्म-वैज्ञानिक, तत्वज्ञ, दार्शनिक इस यथार्थ जगत को भी स्वप्न ही मानते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि यथार्थ जगत की जो अनुभूति व्यष्टि-चेतना की सामान्य स्थिति में होती है, वह दृष्टा की चेतना के स्वरूप पर ही आधारित है उससे भिन्न नहीं। अपने निरपेक्ष स्वरूप में जगत मात्र ‘सत्’ का- विराट सत्ता का अंग है। किन्तु प्रत्येक प्राणी को उसकी सापेक्ष अनुभूति ही होती है और यह सापेक्ष अनुभूति वस्तुतः स्वप्न तुल्य यथार्थ ही होती है। आधुनिकतम वैज्ञानिक अन्वेषण भी इसी निष्कर्ष तक आ पहुंचे हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों का यह सर्वमान्य निष्कर्ष है कि आकर्षक रंगों की, सम्मोहक सौंदर्य की चित्ताकर्षक ध्वनियों की, परिव्याप्त प्रकाश की, तापमयी ऊष्मा की, सुहाने संगीत की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वे तरंगों और गतियों के भिन्न-भिन्न क्रमों के समुच्चय मात्र हैं। ऊष्मा क्या है? वातावरण की तरंगों का संघात। प्रकाश एवं वर्ण? ये ‘इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम’ में विभिन्न ‘फ्रीक्वेंसी’ तथा ‘वेवलेन्थ’ के अलग-अलग ‘सेट’ ही तो हैं, और क्या? प्रत्येक रंग प्रकाश खंड में कुछ निश्चित ‘फ्रीक्वेंसी’ तथा ‘वेवलेन्थ’ की तरंगों का परिणाम है। प्रख्यात वैज्ञानिक एडिंगटन के अनुसार- “तरंग है यथार्थ और जो रंग हम देखते हैं, वह हमारी दिमागी बुनावट है।” इस प्रकार जगत का यथार्थ निरपेक्ष रूप में मात्र “है” (अस्ति) किन्तु वस्तु सत्य के रूप में हम जो भी अनुभव करते हैं, वह हमारा ही ‘आत्म-परक सृजन’ है। हमारी जो अनुभूति क्षमताएँ हैं, उनके अपने ढाँचे और स्तर के ही अनुसार हमें वस्तु सत्य का अनुभव होता है।
तनिक हम कल्पना करें कि यदि विश्व का कोई भी चेतन प्राणी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से एक की भी शक्ति से समर्थ न होता यानी किसी में भी देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्शानुभव करने और स्वाद ले सकने की ऐन्द्रिक क्षमताएँ नहीं होतीं तब यह शेष संसार रहता तो ऐसा ही, किन्तु इसकी विविध रूपाकृतियों, विविध गंधों का, नाना स्वादों का, ध्वनियों एवं संगीत का क्या अनुभव होता और क्या प्रमाण होता? वस्तु-सत्ता तो तब भी होती, किन्तु अनुभूतियों का वर्तमान स्वरूप तब कदापि कहीं होता ही नहीं।
हम वस्तु-सत्य को जब भी देखते या उसका अनुभव करते हैं, उसमें हमारे अपने संस्कार, आपने पूर्व संचित संवेदन और उनको क्षमता-विशेष, झुकाव-विशेष का भी प्रभाव घुला-मिला रहता है। क्योंकि हम चेतन दर्शक, चेतन भोक्ता हैं।
कैमरे को देखने की क्रिया और चेतन प्राणी के देखने की क्रिया में भेद चेतना की उपस्थिति से ही होता है। नेत्र से भी किसी प्रकाशित वस्तु को उस वस्तु से विकीर्ण प्रकाश की किरणों के द्वारा ही देखा जाता है। वे ही प्रकाश-किरणें पुतलियों में प्रविष्ट होती हैं और नेत्रवीक्ष उसके द्वारा नेत्र पटल पर उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। किन्तु इससे आगे की क्रिया कैमरे की क्रिया से बिल्कुल भिन्न है। नेत्र पटल पर उभरे प्रतिबिम्बों का प्रभाव संवेदन-नाड़ियाँ मस्तिष्क तक ले जाती हैं, वहाँ संचित बोध-अनुभवों के आधार पर वस्तु के स्वरूप के अनुभव के साथ ही, उसके प्रति संवेदनात्मक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न होती है। सुन्दर, प्रीतिकर दृश्यों से प्रसन्नता-उल्लास की, अरुचिकर दृश्यों से जुगुप्सा-अप्रसन्नता-कष्ट की, सामान्य अनुभव से सर्वथा भिन्न दृश्यों से विस्मय की और आत्म-सत्ता के द्वारा अपने लिए अनुकूल मानी गई परिस्थितियों को क्षति पहुँचा सकने का संकेत देने वाले या उनकी स्मृति उभारने वाले दृश्यों से भय की अनुभूतियाँ होती हैं। इन अनुभूतियों के समय मस्तिष्क की कोशिकाओं में या मज्जागत पदार्थ में किस तरह के कम्पन होते हैं इसका यदि भौतिकी या रसायनशाला की दृष्टि से अध्ययन-विश्लेषण कर भी लिया जाय तो भी उस विश्लेषणात्मक अध्ययन की तुलना उस समय की वास्तविक मानसिक अनुभूति से पूरी तरह नहीं की जा सकती। भौतिक-रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन से यथार्थ मानसिक अनुभूतियों का संकेत मात्र ही हो सकता है। वह अध्ययन वास्तविक अनुभूति के समतुल्य कभी भी नहीं हो सकता। इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की जो अनुभूति है, वह मूलतः व्यक्ति-चेतना की स्वतः की क्रिया-विशेष है। वस्तु सत्ता की निरपेक्ष अनुभूति चेतन व्यक्ति को नहीं हो पाती।
आज इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं। पदार्थ की सत्ता की खोज में आगे बढ़ते-बढ़ते वैज्ञानिक सृष्टि के मूलकणों से भी आगे बढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वे प्राथमिक कण भी विद्युत तंरगों के संघात मात्र हैं और आगे बढ़ने पर नतीजा यह निकला कि ये विद्युत-तरंगें भी अज्ञात, अवर्ण्य, अविवेच्य तरंग समूहों का अंश मात्र हैं और उनका मूल रूप जानना भौतिक उपकरणों से सम्भव नहीं। क्योंकि उन उपकरणों और उनके संचालक नियमों की हम जो गणना एवं विधि-व्यवस्था बनाते हैं वह अंततः हमारी ही मानसिक संरचना का परिणाम है। जिसे हम प्रकृति की कार्यविधि समझते हैं, वह प्रकृति के क्रिया-कलापों की हमारी अपनी मानसिक संकल्पनाओं के आधार पर व्याख्या भर है। हमारा सम्पूर्ण अवलोकन-विश्लेषण और परीक्षण हमारी अवधारणाओं पर आधारित रहता है। उसे स्वप्नवत् ही सत्य माना जा सकता है।
सामान्य दिनचर्या के अनुभवों-संवेदनों से मन पर जो प्रभाव पड़ते रहते हैं, उनके संस्कार एवं तज्जन्य वासनाएँ संचित होती रहती हैं। उसी आधार पर सुषुप्तावस्था में मन-मस्तिष्क स्वप्न की सृष्टि करता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्क के अनुभवों से भिन्न स्वप्न-सृष्टि असंभव है। उसी प्रकार जन्म-जन्मांतरों से संचित संस्कारों एवं तदनुरूप आत्म-चेतना के स्वरूप के अनुसार ही हम जगत का बोध प्राणी को होता रहता है। इसलिए इस जागतिक बोध की, उसके विविध नाम-वर्ण, दृश्य, स्पृश्य, स्वाद, गंध शब्द आदि के अनुभव-संघातों की स्वप्न से तुलना पूर्णतः वास्तविक है। सुषुप्ति काल में उदित वासना के अनुसार स्वप्न होता है। भिन्न-भिन्न वासनाएँ भिन्न-भिन्न स्वप्नों को बोध कराती हैं। उसी प्रकार भिन्न-भिन्न वासनाओं की उदितावस्था में इस नाम-रूपात्मक सृष्टि की भिन्न-भिन्न अनुभूतियों का स्वरूप बनता-बिगड़ता रहता है। एक मनःअवस्था में जो दृश्य मधुर, शीतल, आकर्षक, संगति योग्य, हितावह, सुन्दर प्रतीत होते हैं, दूसरी मनःअवस्था में वे ही दोष-पूर्ण, विकृत परित्यज्य, हानिकर प्रतीत होते देखे जाते हैं। कभी जो अनुभव नितान्त सत्य प्रतीत होता है, बाद में कभी वही पूरी तरह भ्रान्त ज्ञात होता है।
वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ भी हमारे अपने अनुभव संघातों के सहारे ही निर्धारित की जाती हैं। वैज्ञानिक विश्लेषण और प्रयोग की पद्धतियाँ एवं नियम-सूत्र वैज्ञानिकों के चेतन-अचेतन मस्तिष्क के अनुभवों द्वारा ही निर्धारित होते हैं। इसीलिए वे परिवर्तित भी होते रहते हैं। आज जो वैज्ञानिक निष्पत्ति, निभ्रान्त सिद्ध होती है, कल वही भ्रान्त सिद्ध हो जाती हैं।
ज्ञान चाहे भौतिक वस्तुओं का हो, चाहे देह का, चाहे मन का, वह सदैव ज्ञाता की चेतना के स्वरूप एवं स्तर पर निर्भर करता है। ज्ञाता की सत्ता से बाहर ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता। वस्तु-सत्ता भले ही ज्ञाता की सत्ता से बाहर हो, किन्तु उसका जो ज्ञान होगा, वह ज्ञाता की सत्ता के ही भीतर उत्पन्न प्रतिक्रिया होगा। इसी प्रकार स्वयं की देह का अनुभव भी दृष्टा के अनुभव से स्वरूप पर आधारित होता है। प्रयोगशाला में सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों-उपकरणों से सज्जित-सक्रिय एक वैज्ञानिक जब देह को देखने-जानने को उद्यत होता है तो उसे देह असंख्य जीवाणुओं से भरी जीव-कोशिकाओं का संघात और प्राण-विद्युत तथा शरीर-विद्युत की त्वरित हलचलों का विचित्र क्रीड़ांगन प्रतीत होगा।
जबकि अपने या दूसरे की चमड़ी के सौंदर्य पर मुग्ध रागी को उस देह में जाने कितना माधुर्य, उसकी चेष्टाओं में सम्मोहन भाव और रहस्यमय आकर्षण भरा दिखता है। वैज्ञानिक के लिए प्रयोगशाला का सत्य जितना वास्तविक है, मुग्ध व्यक्ति के लिए अपना मुग्धताभाव भी उतना ही वास्तविक है। मूर्ति-पूजा से विरक्त व्यक्ति के लिए प्रतिमा वस्तुतः निष्प्राण, पाषाण खंड मात्र है, तो किसी सच्चे भक्त के लिए वही प्रतिमा वस्तुतः दिव्य प्रेरणाओं और गहन अनुभूतियों का जीवन्त स्त्रोत है। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यक्ति-चेतना के स्तर एवं स्वरूप के अनुसार ही इस दृश्य जगत (जो स्पृश्य जगत एवं श्रव्य जगत भी है) के अनुभव होते हैं। आत्म-सत्ता ही अनुभूति का आधारभूत तत्व है।
इस तथ्य को समझ लेने पर श्रेष्ठ जीवन-दर्शन की, उत्कृष्ट दृष्टिकोण की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। निकृष्ट दृष्टिकोण अपनाने पर, अंतःकरण में घटियापन भर लेने पर चारों तरफ घटिया स्वरूप ही दृष्टिगत होगा। वस्तुतः यह संसार आत्मसत्ता का ही प्रतिबिम्ब है। आत्मसत्ता का स्तर ही चारों ओर प्रतिबिंब होता है, वस्तु-जगत में हर व्यक्ति आत्मसत्ता को आरोपित करता है। घटिया दृष्टिकोण वाला इसी आरोपण के कारण चारों ओर घटियापन का ही अनुभव करता है। संत कबीर ने इसलिए इस संसार को दर्पणों की गुफा कहा था, अर्थात् ऐसी गुफा, जिसमें चारों ओर दर्पण ही दर्पण हों और उसमें हर व्यक्ति को सभी तरफ अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़े। इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा था-
“दर्पण केरा गुफा में, श्वनहा पइठा धाय।
देखि के प्रतिमा आपनी, भूंकि-भूंकि मरि जाय॥”
अर्थात्- मनुष्य उस कुत्ते के समान है, जो दर्पण गुफा में सहसा दौड़कर घुस जाय और चतुर्दिक अपनी ही प्रतिमाएँ देख-देखकर भौंक-भौंककर दम तोड़ दे।
यह मनुष्य की यथार्थ स्थिति है। अपनी ही आत्मा-सत्ता के प्रतिबिम्ब को देख-देखकर मनुष्य विचलित विक्षुब्ध-व्यग्र होता रहता है और जीवन में क्षण भर को भी सच्ची, शान्ति, संतोष एवं तृप्ति का अनुभव नहीं कर पाता। अध्यात्म-दर्शन का प्रयोजन इस तथ्य को सामने लाकर प्रत्येक मनुष्य को अपना स्वयं का स्तर उत्कृष्ट बनाने की, अपना दृष्टिकोण उन्नत, श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा देना है। उसी के द्वारा मनुष्य की उत्कृष्टता, पवित्रता और प्रकाश के अनुभव एवं दर्शन हो सकते हैं तथा आनन्द, उल्लास की स्थायी अनुभूति हो सकती है।