Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री तीर्थ और सुसंस्कारिता सम्वर्धन
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षोडश संस्कारों का भारतीय धर्म परम्परा में अपना विशेष महत्व है। रसायनें बनाने में उनके कई बार अग्नि संस्कार किए जाते हैं। रस, भस्में इसी प्रकार बनती हैं। मनुष्य को सोलह बार संस्कारित करने की अति प्रभावी संस्कार प्रक्रिया से प्राचीन तत्त्वदर्शी भली प्रकार अवगत थे। अतएव उनने ऐसे निर्धारण किए कि संचित कुसंस्कारों को हटाकर उनके स्थान पर सुसंस्कारों की स्थापना करने की विशेष उपचार प्रक्रिया काम में लाई जाय। इन प्रयोजनों के लिए निर्धारित वेदमन्त्र, अग्निहोत्र, देवाह्वान, कर्मकाण्ड साथ-साथ प्रशिक्षण की समन्वित प्रक्रिया को संस्कार कृत्य कहते हैं। यह मात्र चिन्ह पूजा नहीं है। यदि उसे सही शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न किया जा सके तो उस व्यक्ति पर आशाजनक प्रभाव पड़ता है जिसका कि संस्कार कराया गया।
भगवान मनु ने ब्राह्मणत्व संस्कारों की उपलब्धि बताया है। वे कहते हैं “जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं। संस्कार प्रक्रिया के आधार पर उनका दूसरा देव जन्म होता है।” आगे चलकर उनने ब्राह्मणत्व प्राप्त होने के संदर्भ में लिखा है- “यज्ञों और महायज्ञों में अनुप्राणित करने पर यह सामान्य शरीर ही ब्राह्मण बन जाता है।” इसी प्रकार के अनेकों कथनोपकथन अन्यान्य धर्मशास्त्रों में भरे पड़े हैं। उनका अभिप्राय यह है कि सुसंस्कारिता मात्र शिक्षण, सत्संग और वातावरण का ही प्रतिफल नहीं है। उसे संस्कार उपचार के अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय से बनी हुई निर्धारित विधि-व्यवस्था के द्वारा भी विकसित किया जा सकता है।
यह प्रतिपादन मात्र श्रद्धा पर निर्भर परम्परागत प्रथा प्रचलनों पर आधारित नहीं है। षोडश संस्कारों की पद्धति का अपना निजी आधार भी है। इन्जेक्शन से रक्त की में औषधि पहुँचाकर उसका चमत्कारी परिणाम देखा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि मन्त्र विज्ञान और अग्निहोत्र विधान के समन्वय से बने आध्यात्मिक उपचार मनुष्य के स्तर में विकासोन्मुख परिवर्तन न ला सकें। अतीत में लम्बी अवधि तक इस प्रयोग परीक्षण को अनुभव प्रतिफल की कसौटी पर कसने के उपरान्त यह मान्यता बनी और परम्परा चली कि जन्म से लेकर मरण पर्यन्त देव समाज के प्रत्येक सदस्य को सोलह बार संस्कारित किया जाना चाहिए। वर्णाश्रम व्यवस्था की तरह ही षोडश संस्कारों की प्रथा भी भारतीय धर्म संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है।
इन दिनों संस्कार उपचारों का स्वरूप एक प्रकार से लुप्त तिरोहित ही हो गया है। मुण्डन की घरेलू और विवाह की मंत्र परक प्रक्रिया ही देखने को मिलती है। बहुत हुआ तो किसी ने यज्ञोपवीत संस्कार करा लिया। इस उपेक्षा एवं विस्मृति के दो प्रमुख कारण हैं। एक यह कि उनका सही स्वरूप जानने बताने वाले पुरोहित रहे नहीं, जो हैं उनने इस प्रक्रिया को असाधारण रूप से महंगी खर्चीली बनाया और जिस-तिस प्रकार यजमानों का धर हरण करने पर ही ध्यान रखा। जिसकी उपयोगिता प्रतीत न हो, जिसे करने में अकारण बहुत सारा खर्च करना और झंझट उठाना पड़े, उसकी आमतौर से उपेक्षा ही की जाने वाली लगती है। संस्कार उपचार की अवहेलना इसी आधार पर होती चली गई।
प्रचलन न रहने, अनुयायी कम मिलने पर भी शाश्वत सत्य और तथ्य अपने स्थान पर बिना किसी समर्थन के भी सुदृढ़ बने रहते हैं। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय आदि शाश्वत तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता। अनुयायियों का सर्वथा अभाव रहने पर किसी का यह साहस नहीं हो सकता कि इन मर्यादाओं की अनुपयुक्त ठहरा सके। अपनी विवशता बताकर बच निकलने वाले भी उन्हें अमान्य ठहराने निरर्थक सिद्ध करने का साहस नहीं कर सकते।
भारतीय संस्कृति के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई षोडश संस्कार परम्परा के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनका प्रचलन भले ही कारणवश घट गया हो फिर भी जहाँ साँस्कृतिक मूल्यों, प्रतिपादनों, अनुबन्ध, अनुशासनों की चर्चा होगी वहाँ उस महान प्रक्रिया की गरिमा एवं उपयोगिता को झुठलाया न जा सकेगा।
भारतीय समुदाय सुसंस्कारिता की ओर अग्रसर होगा, उस समाज को देव समाज में विकसित होना है। उसके लिए जहाँ प्रज्ञा अभियान जैसे वातावरण में प्रखरता उत्पन्न करने वाली युगान्तरीय चेतना को जन-जन के मन में प्रवेश कराना है, वहाँ सुसंस्कारिता उत्पन्न करने की उस चिर परीक्षित प्रक्रिया को भी काम में लाना है जिसने अतीत को सतयुग स्तर का बनाने में असाधारण भूमिका निभाई।
प्रयत्न यह किया जा रहा है कि इस परिपाटी को पारिवारिक धर्मानुष्ठानों की तरह कार्यान्वित किया जाने लगे। परिवार गोष्ठियों के रूप में इस प्रक्रिया का प्रचलन फिर भूतकाल की तरह घर-घर में चल पड़ते। इस आधार पर धार्मिकता का वातावरण बनेगा और जन-जन का ध्यान सुसंस्कारिता सम्पादन की उपयोगिता समझाने एवं उस दिशा में प्रयत्नरत होने के लिए मुड़ेगा। दिखने में सामान्य होते हुए भी यह प्रक्रिया कालान्तर में अति महत्त्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करेगी।
यों षोडश संस्कार कहीं भी हो सकते हैं और उन्हें निर्धारित विधि-विधान के आधार पर कोई भी विज्ञ व्यक्ति भली प्रकार करा सकता है। इतने पर भी उपयुक्त स्थान, वातावरण और उच्चस्तरीय पौरोहित्य की आवश्यकता सदा बनी ही रहेगी। वैसे अवसर जिन्हें मिल सकेंगे वे अधिक लाभान्वित भी होंगे और वैसा सुअवसर पाकर अपने को सौभाग्यशाली भी मानेंगे। कहना न होगा कि इस प्रयोजन के लिए तीर्थ स्थानों की विशेषता असंदिग्ध है।
अभी भी बच्चों के मुण्डन संस्कार प्रायः किसी तीर्थ में ही होते हैं। मृतकों के अस्थि प्रवाह एवं श्राद्धतर्पण के लिए तीर्थों में ही जाया जाता है। जो बात उपरोक्त दो संस्कारों के सम्बन्ध में लागू होती है। वस्तुतः उसे सोलहों के लिए समझा जा सकता है। गर्भवती का पुंसवन बच्चे का नामकरण, अन्न प्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत यह सभी संस्कार ऐसे हैं जिन्हें किसी तीर्थ में सम्पन्न करने का अवसर मिले तो घर की अपेक्षा उसे अधिक श्रेयस्कर माना जाना चाहिए। कहना न होगा कि इस दृष्टि से भी गायत्री तीर्थ का स्थान मूर्धन्य है। हिमालय से निःसृत सप्त धाराओं का समागम, सप्तऋषियों की तपोभूमि, शिव पार्वती के प्रणय बन्धन एवं गणेश, कार्तिकेय की पुण्यभूमि हरिद्वार में अवस्थित गायत्री तीर्थ को अन्यों की अपेक्षा हर दृष्टि से वरिष्ठ समझा जा सकता है। युग क्राँति के अतिरिक्त उसे सुसंस्कारित सम्पादन जैसे पुण्य प्रयोजन एवं क्रिया-कृत्य की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त माना जा सकता है।
इस स्थान का दिव्य वातावरण ऐसा है जिसे साधना, स्वाध्याय, सत्संग की दृष्टि से वर्तमान समय में मूर्धन्य माना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। कर्मकाण्ड की दृष्टि से शास्त्रीय विधि-व्यवस्था की समग्र जानकारी और विधि व्यवस्था का यहाँ समुचित प्रबन्ध है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात है गुरुदेव माताजी की उपस्थिति में उनके हाथों किये गये यह संस्कार कितने फलप्रद हो सकते हैं, इसका अनुमान लगाने में किसी को संदेह करने की गुंजाइश नहीं है। ऐसे संस्कार करने में बालकों को परिवार के बड़े-बूढ़ों के हाथ में थमाया, गोद में बिठाया जाता है। अपने विशाल परिवार के कुलपिता एवं कुलमाता की उपस्थिति में जिन्हें अपने बालकों के संस्कार कराने का अवसर मिलेगा, वे बड़भागी ही माने जायेंगे। ऐसे अवसरों पर मिले हुए आशीर्वाद बालकों के लिए भी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना से भरे-पूरे होंगे।
गायत्री मंत्र की दीक्षा एवं यज्ञोपवीत संस्कार के लिए बचपन, जवानी, वृद्धावस्था का नर या नारी का कोई बन्धन नहीं। जिन्हें इनकी उपयोगिता समझा में आई और आवश्यकता अनुभव हुई हो वे भी गायत्री तीर्थ में आकर इन उपलब्धियों से लाभान्वित हो सकते हैं। ढलती आयु में वानप्रस्थ लेने की धर्म परम्परा निभाने क लिए उस व्रतशीलता का दण्ड धारण यहीं किया जा सकता है। वानप्रस्थ सदा के लिए न लेना हो तो न्यूनतम एक साल के लिए लेने और उसे इच्छानुसार आगे बढ़ाते चलने का संकल्प भी गायत्री तीर्थ में आकर लेने से अधिक सफल हो सकता है।
आदर्श विवाहों के लिए भी गायत्री तीर्थ में व्यवस्था बनाई गई है। आदर्श विवाह से मतलब है- बिना बारात, बिना धूम-धाम, बिना लेन-देन का सतोगुणी विवाह बंधन। जिनके लिए इसमें उपयुक्तता पड़ती हो, वे अभिभावक, वर कन्याओं को लेकर आ सकते हैं और इस वातावरण में हुए पाणिग्रहण से गृहस्थ जीवन की सुख-शाँति का बीजारोपण कर सकते हैं।
पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण का प्रबंध भी गायत्री तीर्थ में है। माता-पिता ही नहीं, पितृकुल और मातृकुल की ऊपरी पीढ़ियों के भी श्राद्ध तर्पण यहाँ होते रहेंगे।
इस प्रकार सभी संस्कारों के लिए गायत्री तीर्थ हर दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त स्थान है। जन्म-दिन मनाने और विवाह दिन मनाने के लिए यहाँ पहुँचा जा सकता है।
धर्मानुष्ठानों, षोडश संस्कारों एवं अन्य कृत्यों के प्रति अश्रद्धा इसलिए उभरी है कि उसके साथ पुरोहितों की गैर जानकारी, आधा-अधूरा कृत्य कराने की जल्द-बाजी तथा जिस-तिस बहाने अधिकाधिक पैसा झपट लेने की चालाकी घुल जाने से वे सभी कृत्य उपहासास्पद और अश्रद्धा उत्पन्न करने वाले बन गये। अब जबकि उन सभी आक्षेपों का पूरी तरह निराकरण हो गया तो किसी को कहीं उंगली उठाने की गुंजाइश ही नहीं रही। सर्वविदित है कि शाँति-कुंज के, गायत्री संस्थान के इतिहास में जेबकटी तो दूर, कभी प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से दान-दक्षिणा की याचना का प्रसंग ही नहीं आता। कोई कुछ स्वेच्छा अनुदान दे तो उसे रोका न जाय, मात्र इतना भर विधान है।
गायत्री परिवार विशालकाय है। उसके मूर्धन्य परिजनों को स्वयं ही अपने प्रेरणा स्त्रोत उद्गम केन्द्र के जुड़ने भर से सन्तोष नहीं करना चाहिए वरन् एक कदम आगे बढ़ाकर करना यह भी चाहिए कि अपने परिवार का, सन्तानों का, मित्र पड़ौसियों का भी इस पावर स्टेशन के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय। कहना न होगा कि इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए षोडश संस्कारों का प्रयोजन लेकर गायत्री तीर्थ में पहुँचने से बढ़कर और कोई उपयुक्त माध्यम हो नहीं सकता।
संस्कार प्रयोजनों के अतिरिक्त हरिद्वार, कनखल, ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला के चारों धामों की तीर्थ मज्जन करने का भी सुयोग साथ-साथ रखा गया है। ठहरने की, भोजन की, वाहनों की ऐसी व्यवस्था बनाई गई है जिसे अन्यत्र की तुलना में कहीं अधिक सस्ती कहा जा सकता है। यात्रा तीर्थाटन करना हो तो भी गायत्री तीर्थ से बढ़कर भावभरा और सुविधाजनक वातावरण मिल सकना दूसरी जगह कदाचित ही कहीं सम्भव हो सके।
तीर्थ यात्रा का एक अति महत्वपूर्ण प्रयोजन होता है- किये हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित। तीर्थ स्नान से पाप छूटते की जो मान्यता है उसमें मुख्यतः प्रायश्चित विधान ही आधारभूत कारण है। खाई खोदने का प्रायश्चित एक ही है उसे पाट देने के लिए उतना ही सद्भाव भरा पुरुषार्थ किया जाय जितना कि दुर्भाव लेकर खाई खोदी गई और उसमें गिरने वालों को पीड़ा पहुँचाई गई। इस संदर्भ में शास्त्रकारों ने ऐसे निर्धारण किये हैं कि दुष्कर्मों के दण्ड तपश्चर्या के कष्ट सहकर स्वयं ही भुगत लिये जांय। इतना बन पड़ने पर ही उन अवरोधों का अन्त होता है जो आत्मिक प्रगति के लिए किए गये प्रयासों को पग-पग पर असफल बनाते रहते हैं। रंगाई से पूर्व धुलाई करनी पड़ती है। शोधन के उपरान्त ही सफल होते हैं। पापों के प्रायश्चित की प्रक्रिया आत्मसाधना का सर्वप्रथम सोपान है। अन्यत्र उसे झुठलाया उपेक्षित किया जाता है किंतु गायत्री तीर्थ के साधना विधानों के हर साधन के लिए उसके अनुरूप प्रायश्चित तप का भी प्रावधान रहा गया है। इस प्रकार सुसंस्कारिता के सम्पादन में जो एक भारी व्यवधान अड़ा रहता है उसे भी यहाँ दूर कराने पर पूरा ध्यान रखा जाता है।